Monday, October 25, 2010

अयोध्या पर चर्चा

रविवार २४ अक्टूबर को कृष्ण भवन वैशाली में हुई बैठक की बैठक में अयोध्या पर विस्तार से सारगर्भित और तथ्यपरक चर्चा की गई। शुरुआत शंभू भद्रा ने की। उन्होंने आस्था के सवाल को गैरजरूरी बताते हुए आस्था के आधार इस जिद के कोई मायने नहीं कि हम वहीं पूजा करेंगे जहां हमारा मन कहता है। इसी तरह नमाज के लिए यह जरूरी नहीं कि वह तय स्थान पर ही पढ़ी जाए। उन्होंने कहा कि पूजा और नमाज कहीं भी हो सकती है। उनका कहना था कि यह विवाद इतना बढ़ चुका है कि इसका कोई समाधान फिलहाल की परिस्थितियों के मद्देनजर निकल पाना असंभव लग रहा है। उनका यह सुझाव भी था कि उस स्थान को सरकार को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर देना चाहिए। ऐसा कर दिया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।
चर्चा को आगे बढ़ाया श्रवण गुप्ता ने। उनका मानना था कि हमें सारी चीजें सरकार पर ही नहीं छोड़ देनी चाहिए। उनका यह भी कहना था कि कई समस्याएं इसलिए भी उलझ जाती हैं कि हम सरकार पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं। जैसे ही कोई मसला राजनीतिज्ञों के जिम्मे जाता है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। राजनीतिज्ञ उससे खेलने लगते हैं। अयोध्या के साथ भी हुआ। यह मुद्दा राजनीति का खिलौना बनकर रह गया है। कभी कांग्रेस इससे खेलती है तो कभी भाजपा और उसकी जैसी राजनीतिक ताकतें इसे सत्ता के लिए भुनाने लग जाती हैं। उनका मानना था कि अगर अयोध्या के लोग खुद आगे आएं तो इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है।
तड़ित कुमार ने राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाया। उनका कहना था कि जिसका मानवीय अस्तित्व ही नहीं है वह किसी मुकदमे में पक्षकार कैसे हो सकता है। रामलला विराजमान को एक पक्ष मानने के सवाल पर उनका कहना था कि जब भी कोई व्यक्ति वकील करता है तो वह हलफनामा देता है कि उक्त वकील अदालत में उसका पक्ष रखेगा। क्या रामलला ने यह दस्तखत किया? उन्होंने कहा कि ऐसे में तो किसी दिन कोई भूत या डाइन भी पक्षकार बन जाएगी। उन्होंने सेक्युलरिज्म शब्द के धर्मनिरपेक्ष अर्थ को अनर्थ बताया। उनका कहना था कि सेक्युलरिज्म के मायने धर्मनिरपेक्षता होता ही नहीं। उन्होंने सेक्युलरिज्म आंदोलन की विस्तार से चर्चा की और कहा कि यह वह आंदोलन था जिसने नई क्रांति की थी। यह चर्च के खिलाफ डंडा लेकर खड़ा होने वाला आंदोलन था। आज इस शब्द को गलत अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है जो उचित नहीं है। उन्होंने वाल्मीकि के रामायण को महाकाव्य बताया और कहा कि उसमें भी राम को भगवान नहीं कहा गया है।
राम बली ने संक्षेप में अपनी बात रखी। उनका कहना था कि अयोध्या विवाद को सुलह से ही हल किया जा सकता है। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि सुलह का फार्मूला क्या हो सकता है। बाद में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर सुलह से नहीं हल होता तो सरकार को इसका समाधान करना चाहिए।
जगदीश यादव ने शुरुआत ही यहां से की उनके बचपन की जो यादें ताजा हैं उनके अनुसार अयोध्या तब तक कोई धार्मिक रूप से कोई पापुलर स्थान नहीं था। लोग चित्रकूट तक को जानते थे और वहां जाते थे पर अयोध्या के बारे में न कोई बात करता था न कोई वहां जाता था। उन्होंने इसका भी जिक्र किया कि एक प्रेस छायाकार होने के नाते उन्होंने लगातार अयोध्या को कवर किया। उन्होंने विस्तार से उस दिन का भी जिक्र किया जिस दिन बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। यह भी बताया कि किस तरह उन जैसे छायाकारों को किस तरह उनके कैमरे छीनकर एक जगह जबरदस्ती रोके रखे गया और तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक उसे ढहा नहीं दिया गया। उसके बाद में यह कहते हुए जाने दिया गया कि उसी रास्ते से निकलें जिससे बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों ने बताया। उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर बताया कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण में कांग्रेस की सर्वाधिक भूमिका रही। ताला खोलवाने से लेकर जमीन एक्वायर करने तक सब कुछ कांग्रेस ने किया। भाजपा तो इसमें बाद में कूदी और वह भी सत्ता की खातिर। भाजपा के लिए अयोध्या का मतलब केवल सत्ता हासिल करने तक ही सीमित था। उनका कहना था कि इस समस्या का समाधान सुलह से नहीं हो सकता। उनका कहना था कि अयोध्या के लोगों के लिए भी मंदिर कभी कोई मुद्दा नहीं रहा है। अब जरूर वहां के लोग यह सोचने लगे हैं कि अगर मंदिर जाएगा तो उनका व्यवसाय बढ़ जाएगा।
लाल रत्नाकर ने बहुत सारी कहानियों के माध्यम से इस मुद्दे को समझने और समझाने की कोशिश की। उनका कहना था कि अयोध्या एक बड़ी साजिश का हिस्सा है। मंडलाइजेशन, कमंडलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के माध्यम से उन्होंने अयोध्या विवाद को प्रस्तुत किया। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के माध्य से भाजपा के अयोध्या मुद्दे पर प्रलाप को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि जिस व्यक्ति के आराध्य देव झूले लाल उसके आराध्य राम कैसे हो गए? उन्होंने कहा कि बाबर के बाद लिखे गए रामचरित मानस के लेखक तुलसी दास को सबसे बड़ा राम भक्त माना जाता है लेकिन तुलसी दास ने कहीं भी राम के अयोध्या में जन्म का उल्लेख नहीं किया है। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि राम का जन्म अयोध्या में ही और वहीं हुआ है। उन्होंने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि आज अयोध्या ऐसी संपदा हो गई है जिस पर हर कोई अपने कब्जे में करना चाहता है। उन्होंने यह भी कहा कि आज रावण की स्वीकार्यता बढ़ रही है। उन्होंने व्यंग्य किया कि अगर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में राम का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
सुदीप ने अयोध्या विवाद को सभ्यताओं के संघर्ष के रूप मे चिन्हित किया। उनका कहना था कि अयोध्या का मसला अदालत से नहीं सुलझने वाला है। अदालत का सम्मान करते हुए उनका मानना था कि अयोध्या पर जो फैसला आया वह दरअसल फैसला था ही नहीं। इसे फैसले के प्रस्तुतिकरण में मीडिया खासकर हिंदी मीडिया की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए आलोचना की।
पार्थिव का भी यही मानना था कि अदालत से इस मामले का समाधान नहीं किया जा सकता। वार्ता से भी इसे नहीं सुलझाया जा सकता। उनका कहना था कि दरअसल कोई राजनीतिक पार्टी और सरकार नहीं चाहती कि इस समस्या का समाधान निकले। उनका मानना था कि अयोध्या में ही इसका समाधान हो सकता है। उनका तो यह भी कहना था कि हिंदू और मुसलिम दोनों ही पक्षकार अपने समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
प्रकाश चौधरी का कहना था कि अयोध्या की समस्या आम लोगों की समस्या नहीं है। यह विशुद्ध राजनीतिक मसला है। इसे बहुत सोचे-समझे तरीके से लटकाए रखा जा रहा है। हमारे देश की सरकारों को जब जरूरत पड़ी तब इसे उठाया और इसका लाभ उठाया। सरकार को न राम से मतलब है न आम जन से। उनका मानना था इस समस्या का समाधान कोर्ट से नहीं होगा। कोई जनतांत्रिक सरकार ही इसका समाधान खोज सकती है।
चर्चा में राम शिरोमणि शुक्ल और अनिल दुबे ने भी हिस्सा लिया।

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