Thursday, October 7, 2010

हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं.

यह मत पूछिएगा कि मैंने क्या किया ? मैं यह बताने भी नहीं जा रहा हूँ कि मैंने क्या किया. यह जरुर बताना चाहता हूँ कि क्या हुआ. रोज क़ी तरह आज भी मेट्रो से जा रहा था अपने दो सह्कर्मिओं के साथ. मेरे सामने वाली सीट पर उस जगह पर दो लोग बैठे हुए थे जिसके उपर लिखा हुआ था केवल महिलाओं के लिए. सीट खाली थी तो बैठ गए, कोई बात नहीं. अगले स्टेशन पर डिब्बे में आई एक महिला निवेदन किया कि उसके लिए सीट खाली कर दें तो बजाए ऐसा करने उन महाशय ने बड़ी दबंगई के साथ जवाब दिया कि अब यह सीट महिलाओं के आराकचित नहीं है. अपनी बेशर्मी को उसने येही तक सीमित नहीं रखा. यह भी बकने लगा कि महिलाओं के लिए सिर्फ आगे वाला डिब्बा है. वह तो यह भी बकने से बाज नहीं आये कि महिलाओं को तो अब इन डिब्बों में आना ही नहीं चाहिए. अब ऐसे मूढों को कौन समझाएगा कि महिलाओं का वैसे भी सम्मान किया जाना चाहिए. सम्मान न भी करो तो अपमान भी नहीं करना चाहिए. कम से कम इतना तो जानना ही चाहिए कि मेट्रो में बैठने कि व्यवस्था पहले कि तरह ही लागू है. बदलाव इतना ही हुआ है कि आगे का डिब्बा महिलाओं के लिए रिजर्व कर दिया गया है. मेट्रो ने इस बारे में अख़बारों आदि के जरिए सूचना भी दे रखी है. मैं कई बार सोचता हूँ कि हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं.

1 comment:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

मुझे यह सब संस्कारों का असर लगता है। दो दिन पहले ही ऐसी अजीब स्थिति से गुजरा हूं। मैं अपनी तारीफ नहीं कर रहा, लेकिन मेरे साथ जाने वाले शायद गवाह होंगे कि महिलाओं, वद्धों या परेशान लोगों को देखकर मैं सीट पर नहीं बैठता। बल्कि सच कहूं तो अकेले होने पर मैं सीट लेता ही नहीं क्योंकि जल्दी ही खानी करनी पड़ती है। लेकिन दो दिन पहले गोद में बच्चा और बगल में पत्नी के साथ मेट्रो में पूरे सफर खड़ा रहा, लेकिन किसी माई के लाल ने सीट में बैठने के लिए नहीं कहा, मैं क्या सोच सकता हूं।