Tuesday, November 9, 2010

तालियां और खुश

प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन जब देश की राजधानी और कई अन्य जगहों पर प्रदर्शन और धरने हो रहे थे ठीक उसी समय हमारी संसद में तालियां गड़गड़ा रही थीं। हमारे सांसद अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की हर बात पर ऐसे ताली बजा रहे थे जैसे उन्हें यह कहकर ही बुलाया गया था कि जैसे ही एक वाक्य खत्म हो, जोरदार तालियां बजाइएगा और तहेदिल से शुक्रिया अदा कीजिएगा। यह मानना अतिशयोक्ति होगी कि ऐसा कर शायद ओबामा का किसी महानायक की तरह स्वागत किया जा रहा था लेकिन इसमें किसी तरह की कोरकसर नहीं छोड़ी गई। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी व सुषमा स्वराज के अलावा शायद ही कोई ऐसा मान रहा होगा पर लगता है कि अभिभूत तो कम से कम सभी थे । पर यह सवाल अपनी जगह रह गया कि क्या कोई अमेरिकी राष्ट्रपति भारत का महानायक हो सकता है। वैसे किसी भी अतिथि का स्वागत होना ही चाहिए। ओबामा हमारे अतिथि से, इसलिए हमने भारतीय परंपरा का निर्वाह किया, ठीक किया। लेकिन ओबामा ने हमारे लिए ऐसा कुछ नहीं किया या कहा जिससे हम इतने आह्लालादित हो जाएं कि लगातार तालियां बजाते रहें। गांधी की ओबामा ने तारीफ की तो इसमें क्या। गांधी तो दुनिया के महानतम नेता रहे हैं। भला कौन ऐसा राजनीतिज्ञ होगा जो गांधी को नहीं मानेगा? यही बात सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता को लेकर है। अमेरिका ने शायद कभी इसका उल्लेखनीय विरोध नहीं किया। यहां भी वे यह तो कहते नहीं कि हम विरोध करेंगे। यह भी उल्लेखनीय है कि उसके अभी समर्थन करने से कोई भारत को यह मिलने नहीं जा रही है और जब मौका आएगा तब अमेरिका क्या करेगा, इसमें अभी कई पेंचोखम हैं। यही हाल आतंकवाद और पाकिस्तान को लेकर भी रहा। ओबामा के वक्तव्य पर ध्यान देना चाहिए कि उन्होंने कहा कि हम पाकिस्तान के साथ मिलकर आतंकवाद का खात्मा करेंगे। हम इसे सुनकर खुश हो सकते हैं लेकिन जरा सोचिए यह कितनी हास्यास्पद बात है कि जो (दुनिया जानती है ) पाकिस्तान आतंकवाद को पोस रहा है उसी के साथ मिलकर ओबामा आतंकवाद का खात्मा करने की बात कर गए और हम तालियां बजाते रहे। आउटसोर्सिंग पर भी उन्होंने केवल खुश करने वाली बात की। इस बारे में सच्चाई तो उन्होंने अमेरिका में ही कही थी और वही कर रहे हैं। इसके विपरीत वह आए और हमारे यहां से अपने यहां नौकरियां लेकर चले गए। हम इस पर भी मंत्रमुग्ध होते रहे कि ओबामा ने हमें विकसित देश माना और हमारे साथ बराबरी पर बात की। भारत अगर विकसित देश बन गया है या बन रहा है तो इसमें अमेरिका की क्या भूमिका रही है। अगर ऐसा है तो भारत अपने बल पर है। अमेरिका की यह मजबूरी है कि अब वह भारत को पहले की तरह नहीं हांक सकता। यह अलग बात है कि सब कुछ वैसा ही नहीं रहा जैसा माना और बताया जा रहा है।

क्रमशः

Monday, November 8, 2010

्ट ओबामा की भारत यात्रा

ऐसे समय जब वैचारिक क्षुद्रता बढ़ती जा रही हो और गंभीर तथा वैज्ञानिक चिंतन का सर्वथा संकट दिख रहा हो, तब बैठक की बैठकों में समसामयिक विषयों पर हो रही विचारोत्तेजक बहसें चीजों को बेहतर तरीके से समझने के लिए किसी के लिए भी मददगार हो सकती हैं। हाल के समय में प्रायः यह माना जाने लगा है कि अब किसी विषय पर समग्र रूप से चिंतन-मनन वाले मंच बहुत कम बचे हैं। कभी ऐसा दौर हुआ करता था जब राजनीतिक और सामाजिक संगठन इस काम को किया करते थे और उसका प्रभाव भी समाज और देश पर दिखाई पड़ता था। तमाम राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन इसके उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा आज के दौर में यह काम कोई नहीं कर रहा है। इसके उलट अब तो चीजों को गड्ड मड्ड करने की जैसे सुनियोजित कोशिश की जा रही है। बुराइयों को महिमामंडित करने और समस्याओं को उलझाने की सायास प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे वक्त इस बात की बेहद जरूरत है कि किसी विषय पर समग्र रूप से और मानवीय दृष्टिकोण के साथ विचार-विमर्श किया जाए। यह भी इसके लिए हमेशा उन कुछ लोगों की तरफ ही न देखने को मजबूर रहा जाए जो अपने विषयों के प्रकांड पंडित माने जाते हैं बल्कि खुद के उन अपनों से भी कुछ सीखने समझने की कोशिश की जानी चाहिए कहीं ज्यादा बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से सोचते हैं और जिनकी सोच देश और समाज के लिए ज्यादा अहमियत हो सकती है। कहना होगा कि यह काम अपने छोटे से प्रयास में बैठक की ओर से बेहद संजीदगी के साथ किया जा रहा है। कश्मीर समस्या और अयोध्या मामले पर हुई इसकी पिछली दो गोष्ठियां किसी के लिए भी उत्साहित करने वाली हो सकती होंगी जिन्होंने इसमें शिरकत होगी या इसकी रिपोर्ट जिसने पढ़ी होगी। हमें यह बताते हुए अच्छा लग रहा है कि यह एक गंभीर और सकारात्मक प्रयास है जिससे हर उस व्यक्ति को लाभ होगा जो किसी विषय को समग्र रूप से जानना-समझना चाहता होगा।
इसी क्रम में रविवार सात नवंबर को कृष्ण भवन में बैठक की गोष्ठी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा पर संगोष्ठी हुई जिसमें विभिन्न वक्ताओं ने अनेकानेक पक्षों पर भारत-अमेरिका संबधों पर विस्तार से बातचीत की। शुरुआत विनोद वर्मा ने की। उन्होंने बिल क्लिंटन और जार्ज बुश की यात्रा के संदर्भ में कहा कि बराक ओबामा के भारत आने पर उस तरह का उत्साह यहां के लोगों में नहीं दिखाई दे रहा है जैसा पूर्व में आए दोनों अमेरिकी राष्ट्रपतियों के आने के समय दिखा था और इसके पीछे शायद सबसे बड़ा कारण उनका अश्वेत होना है। उन्होंने इसका जिक्र भी किया कि कैसे बुश को छूने के लिए कई सांसद तक बिछे पड़ रहे थे। उन्होंने उस हार का जिक्र भी किया जो ओबामा अमेरिका में हुए चुनाव में झेल कर ओबामा यहां आए हैं। लेकिन उन्होंने भारत की इस मामले में तारीफ की कि अब वह अपनी आर्थिक कमजोरियों से लगातार उबर रहा है और यह पहला मौका है जब अमेरिका के साथ बराबरी के साथ खड़ा होने की स्थिति में आ रहा है। ओबामा के साथ सौदे भी बराबरी के स्तर पर किए गए। ऐसा तब है जब अमेरिका गंभीर आर्थिक मंदी को झेल चुका है और हमारी अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत होती जा रही है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इससे पहले तक अमेरिका भारत को छोटे भाई की तरह मानता रहा है। उन्होंने हालांकि इसकी आलोचना की कि ओबामा ने मुंबई में आतंकवाद और हेडली पर स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा। इसी तरह कश्मीर पर ढुलमुल रवैया अख्तियार किया। थोड़ा विस्तार में जाते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका लाचार की तरह भारत आया है कि हमें बाजार दो। इसके बावजूद हमारी मानसिकता अभी भी याचक जैसी ही दिखती है। हम सब्सिडी उसी के कहने पर अपने यहां खत्म करते जा रहे हैं जबकि इसके उलट अमेरिका में ओबामा इसे जारी रखे हुए हैं। हम अपनी वर्कफोर्स वापस करने की स्थिति में नहीं जबकि ओबामा आउटसोर्सिंग खत्म करने पर तुले हुए हैं।
इसके बाद चर्चा को आगे बढ़ाया सुदीप ने। उनका कहना था कि ओबामा एक व्यापारी की तरह निकले हैं। इसीलिए उन स्थानों को चुना है जहां उन्हें व्यापार की संभावनाएं दिख रही हैं। लेकिन वह पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं। इसका भी एक खास संदेश है। संभवतः इस मामले पर ओबामा साफ हैं कि वे केवल अमेरिका के लिए निकले हैं। वे अपने यहां रोजगार बढ़ाना चाहते हैं। अब यह भारत को देखना था कि वह अमेरिका और ओबामा की कमजोरियों को कैसे अपने पक्ष में भुना सकते थे जो करने में भारत असफल रहा है। भारत अपनी शर्तों पर अमेरिका के साथ सौदेबाजी कर सकता था जो वह नहीं कर पाया।
शंभू भद्रा का कहना था कि यह पूरी तरह कारोबारी यात्रा है। आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका की हालत बेहद खस्ता है। कई पैकेज देने के बाद भी अमेरिका की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आ पाया है। उन्होंने इसका बहुत स्पष्ट उल्लेख किया कि रिलायंस और स्पाइस जेट खुद अमेरिका में इंट्री की कोशिश में लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिकी निवेश भारत में इंफ्रास्टक्चर में नगण्य है। वीजा और आउटसोर्सिंग नीति में बदलाव उसकी नीति का नतीजा है जिसका नुकसान भारत को उठाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि भारत का महत्व अमेरिका के लिए सिर्फ बाजार के लिए है बराबरी का नहीं है। अमेरिका अगर किसी से डरता है वह एकमात्र चीन है।
पार्थिव ने अपनी बात की शुरुआत एक अखबार में छपे उस कार्टून से की जिसमे प्रधानमंत्री को एक तख्ती लिए बहुत छोटे कद का दिखाया गया है। उनका कहना था कि उस कार्टून के माध्यम के यह समझा जा सकता है कि भारत की अमेरिका के सामने क्या औकात है। उनका कहना था कि ओबामा के रूप मे अमेरिका कोई लोटा लेकर भारत नहीं आया है बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह आया है। हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि स्पष्ट होना चाहिए कि वह शासनतत्र पर कब्जा करने के लिए आया है। उनका यह भी कहना था कि ओबामा को अश्वेत डेमोक्रेट के रूप में नहीं देखना चाहिए सिर्फ अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को भोपाल का भी जिक्र करना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया।
लाल रत्नाकर का कहना था कि ओबामा को खास रिश्तेदार की तरह बुलाया गया है। अब बुलाया गया है तो कोई तो बात होगी। उनका कहना था कि रंगभेद की नीति अभी खत्म नहीं हुई है। अमेरिका में भी अश्वेत का मुद्दा है। इसके विपरीत भारत बहुरंगी देश है। उनका कहना था कि हमारी सरकार को अपने देश में रोजगार की कोई चिंता नहीं है। उनका कहना था कि अमेरिका को भारत में अभी भी दुश्मन के रूप मे देखा जाता है। अश्वेत होने से नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आ जाता, यह देखना महत्वपूर्ण है। ओबामा व्यापारी ही नहीं हैं वह विचार और ब्रांड अंबेस्डर भी हैं।
श्रवण ने कहा कि हमें सिर्फ यह मानना चाहिए कि ओबामा के रूप में सिर्फ अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। किसी कंपनी के सीईओ की तरह आया है। ओबामा सिर्फ व्यापार करने नहीं आए हैं। यह देखने वाली बात है कि वह हमारे पड़ोसियों को भड़काता है। इसके बाद भी पराकाष्ठा देखिए कि वह मुंबई में आतंकवाद का जिक्र तक नहीं करता। हमें अब यह तय करना होगा कि अमेरिका के साथ किस तरह खड़ा होना है।
तड़ित कुमार ने बहुत साफ कहा कि ओबामा नहीं अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। इसलिए इतना हायतौबा मची है। अभी कुछ समय पहले जापानी नेता आया था तब किसी को पता ही नहीं चला। अश्वेत राष्ट्रपति के मसले पर उनका कहना था कि अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने का मतलब था। ओबामा की यात्रा के बाद अगर हमारे देश में गेहूं की कीमत में कोई अंतर आए तो मतलब है। हम जिस तरह उसके आगे बिछे जा रहे हैं वह हमारी गुलामी की मानसिकता का परिचायक है।
प्रकाश चौधरी ने कहा कि अमेरिका वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। उसकी चौधराहट पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। इसीलिए उसका नया हथियार आतंकवाद और पर्यावरण बन गया है। उनका कहना था कि भारत और अमेरिका की वर्तमान स्थित महत्वपूर्ण है। अमेरिका अन्य देशों को अपनी प्रापर्टी मानता है। मानसिकता का भी टकराव है। भारत के संदर्भ में उनका कहना था कि पैसा आपके पास आ भी जाए तो बहुत अंतर नहीं पड़ता। उन्होंने कहा कि सबसे दुखद यह है कि भारतीय राष्ट्र का कोई क्लैरिफिकेशन नहीं है। इस यात्रा में भारत सरकार का कोई आधिकारिक पक्ष सामने नहीं आया है। उनका कहना था कि अंबानी हमारे प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने कहा कि समझौता बराबर की शक्तियों से होता है। अमेरिका अपनी ही शर्तों पर ही समझौते कर रहा है। गोष्ठी का संचालन रामशिरोमणि शुक्ल ने किया।

Wednesday, November 3, 2010

राहुल का गरीब प्रेम

आज दिनांक दो नवंबर २०१० को नई दिल्ली में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पार्टी महासचिव राहुल गांधी का भाषण सुनते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कुछ नई जानकारियां मिल रही हैं। उनके भाषण के दौरान इतनी तालियां बज रही थीं कि लग रहा था जैसे अधिवेशन में शामिल पार्टी नेताओं को अमृत वचन सुनाई दे रहा था। वैसे उनके लिए तो ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि इसके अलावा वे और कुछ कर भी नहीं सकते। राहुल उनके नेता जो हैं और नेता जो कहेगा वही तो उनके लिए अंतिम सत्य होगा। राहुल गांधी ने एक आप्त वचन पेश किया-अब दो हिंदुस्तान बन गए हैं। मुझे अचानक ऐसा लगा जैसे यह अपने आप हो गया। जाहिर है दो हिंदुस्तान अपने आप तो नहीं बन सकता। कोई न कोई तो उसे बना रहा होगा? और वह आखिर कौन होगा। जिसके हाथ में सत्ता होगी, वही तो ऐसा कर सकेगा। सत्ता उन्हीं की पार्टी कांग्रेस के हाथों में है। पिछले कई सालों से है और इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि ऐसा हो रहा है या हो गया है तो इसका श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है। इस लिहाज से माना जाए तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपने उद्देश्य में सफल हो रही है। शायद इसीलिए राहुल गांधी के साथ अधिवेशन मे शामिल सभी कांग्रेसी गदगद थे कि उनका और उनके नेता का अथक प्रयास कारगर साबित हो रहा है। वे इस मुगालते में भी होंगे कि देश की जनता (जो उनके शब्दों में गरीब है) भी इसके लिए उनका शुक्रिया अदा कर रही होगी। शायद इसीलिए वे बात को आगे बढ़ाते हैं कि एक हिंदुस्तान तेजी से बढ़ रहा है लेकिन दूसरा जो गरीबों का है, वह बंद पड़ा है। अब यह बंद पड़ा है तो फिर सवाल उठता है कि अपने आप तो नहीं बंद पड़ा है। इसे कोई न कोई तो बंद रखे हैं। यह भी सरकार और सत्ताधारी पार्टी और उसकी नीतियां ही करती हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में कांग्रेस की सरकार है। जाहिर है देश की स्थिति का श्रेय भी उसी कांग्रेस को जाता है जिसके महासचिव राहुल गांधी ही हैं। निश्चित रूप से कांग्रेसी अपनी पार्टी और अपने नेता की इस बड़ी उपलब्धि पर जोरदार ताली तो बजाएंगे ही जो उन्होंने ऐसा ही किया। कांग्रेसियों के बीच देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे कांग्रेसियों के नेता राहुल गांधी यहीं तक सीमित नहीं रहे। वह और आगे बढ़ गए। दरअसल जब हर बात पर तालियां बजाने वाले श्रद्धावनत श्रोता सामने हों तो कोई भी नेता कुछ भी कह सकता है। राहुल गांधी ने भी कहा, इन दोनों हिंदुस्तान को जोड़ने का काम कांग्रेस कर रही है और आने वाले समय में यह दूसरा हिंदुस्तान, गरीबों का हिंदुस्तान, तेजी से आगे बढ़ेगा। हम गरीबों के लिए काम करेंगे। यह सब सुनते ही मुझमें एक अजीब किस्म का डर घर कर गया। किसी को पहले भी गरीबों को कोई उम्मीद नहीं थी। इससे तो साफ हो गया कि गरीबों का हिंदुस्तान तेजी से आगे बढ़ेगा। यह इसलिए कि राहुल ने आगे और स्पष्ट किया कांग्रेस ही गरीबों को आगे ले जा सकती है। उन्होंने अपना बहुमूल्य अनुभव भी बताया कि गरीब की शक्ति ही हमारी पार्टी को आगे ले जा सकती है। किसी को भी यह साफ समझ में आएगा कि कांग्रेस को आगे ले जाना है (जाहिर है सभी कांग्रेसी यह चाहते होंगे कि कांग्रेस आगे जाए) तो गरीब और गरीबी को भी आगे ले जाना होगा आखिर तभी तो कांग्रेस आगे बढ़ेगी। इसका ध्वन्यार्थ यही निकलता है कि दोनों हिंदुस्तान तेजी से बढ़ेंगे और गरीब तथा गरीबी भी अभी और आगे बढ़ेगी। इसीलिए कांग्रेसी खुश हो रहे होंगे और जोरदार तालियां बजा रहे होंगे? लेकिन गरीब तो कम से दुखी ही होगा।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह महज संयोग नहीं है कि जिस दिन दिल्ली में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था और राहुल गांधी गरीब और गरीबी और प्रवचन कर रहे थे उसी दिन देश की आर्थिक राजधानी मानी जाने वाली मुंबई मे आरबीआई छमाही मौद्रिक और त्रण नीति की समीक्षा प्रस्तुत कर रही थी। इसमे आरबीआई ने रेपो और रिवर्स रेपो दर में वृद्धि की घोषणा की। रेपो और रिवर्स रेपो दर वैसे भी किस गरीब को समझ में आएगी? शायद इसीलिए गरीब इसी बात पर खुश हो जाता है कि राहुल गांधी गरीबों की बातें कर रहे हैं लेकिन उनका जो बढ़ता हुआ हिंदुस्तान है उसके उद्योगपतियों ने इस बढ़त को अर्थव्यवस्था की वृद्धि के खिलाफ बताया है। रियल स्टेट कंपनियां भी इस सख्ती से खुश नहीं हैं। उनकी खुशी नाखुशी का तो दूसरे हिंदुस्तान और उसकी पार्टी कांग्रेस को मतलब होता है लेकिन दूसरे हिंदुस्तान गरीबों के लिए इसका दूसरा ही मतलब है। जानते हैं अंग्रेजी के यह अर्थशास्त्री शब्द रेपो और रिवर्स रेपो का मतलब यह होता है कि आम आदमी के छोटे-छोटे सपनों के घर सपने ही रह जा सकते हैं। इससे यह पता चलता है कि गरीब सिर्फ भाषण के लिए होते हैं, उनकी चिंता किसी को नहीं होती। रिजर्व बैंक की इस सख्ती का सर्वाधिक असर गरीबों पर ही पड़ेगा क्योंकि होम लोन महंगा हो जाएगा। किसी भ्रम में न रहिएगा कि राहुल गांधी गरीबों के लिए कुछ करने वाले हैं वे गरीबों को आगे बढ़ाने के नाम पर गरीबी को आगे बढ़ाते रहेंगे ताकि उनकी पार्टी कांग्रेस आगे बढ़ती रहे। अगर आप भी यही चाहते हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर चाहते हैं कि गरीबी खत्म हो और सभी को बराबरी का मौका मिले तो राहुल गांधी के कहे का अर्थ अच्छे से समझिए नहीं तो कांग्रेस का भविष्य तो बनता जाएगा, दूसरा हिंदुस्तान भी मजबूत होता जाएगा पर गरीबों का बंटाढार हो जाएगा।