Sunday, March 8, 2015

टूटते घर में मोक्ष की तलाश

अभी फिर जब छोटे भाई ने यह जानकारी दी कि उसके घर का अगला हिस्सा गिरने वाला है, तो शायद उसके मन में यह रहा होगा कि मैं उस पर कोई राय दूंगा। ऐसा नहीं है कि यह जानकारी कोई पहली बार उसने दी है। पहले भी इस पर कई बार बात हो चुकी है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं निकला। मुझे लगा कि अब नए सिरे से फिर उन्हीं बातों का कोई मतलब नहीं है, इसलिए चुप्पी साधे रहा। बाद में लगा कि चुप्पी एक तरीका हो सकता है लेकिन किसी समस्या का समाधान तो नहीं हो सकती। फिर दूसरा सवाल दिमाग में आया कि बोलना भी तो कई बार किसी समस्या  का समाधान नहीं बल्कि समस्या को और उलझाना ही हो जाता है। एकालाप भी कोई रास्ता हो सकता है, इसका जवाब हां में मिलता दिखा।
इसलिए एकालाप को लेखन के माध्यम से व्यक्त करना मुफीद लगा। बहुत बार लगता है कि क्या बने-बनाए ढर्रे पर ही सोचा अथवा काम किया जा सकता है। क्या यह नहीं हो सकता है कि आउट आफ बाक्स भी सोचा जा सकता है। किसी विषय पर एकदम विपरीत दिशा में क्यों नहीं विचार किया जा सकता। व्यक्तिगत रूप से कई बार इसका जवाब हां में मिलता है। इसके पीछे सबसे तर्क यह समझ में आता है कि अगर आप रूढ़ तरीके से ही सोचते रहेंगे तो वहीं खड़े रहेंगे अथवा समय की गति से कहीं काफी पीछे छूट जाएंगे। अगर समय के साथ अथवा समय से भी आगे की सोचेंगे तो संभव है कोई दिशा-दशा मिल ही जाए। लेकिन जैसे ही कोई ऐसा सोचने लगता है, लोगों को लगता है भयानक अनिष्ट हो जाएगा। अरे, ऐसा कभी कहीं होता है अथवा कोई करता है। परिणाम यह होगा कि आप मूर्ख घोषित कर दिए जाएंगे। कहे जाएंगे कि आपका इतना पढ़ना-लिखना सब व्यर्थ चला गया। छोटी सी बात समझ में नहीं आती।
अब यह छोटी सी बात क्या है। इस छोटी सी बात को समझने के लिए हमारे सामाजिक ताने-बाने को समझना होगा। जिन सज्जन का घर गिरने वाला है बताया जाता है कि यह उन्हें तब घर वालों की तरफ से खरीद कर दिया गया था जब उन्होंने धमकी दी थी कि अगर उनके लिए एक घर नहीं दिया गया तो जान दे देंगे। तब से लेकर अब तक करीब बीस सालों में उसकी देखरेख की कोई कोशिश की गई। दिमाग में यह तर्क काम कर रहा था कि पता नहीं भविष्य में यह उनका होगा या नहीं। कारण यह था कि जब कभी भी बटवारा होगा तो यह पता नहीं किसको मिले। इसी तर्क के आधार पर तीन घर ऐसे हैं जिनमें भाई लोग रह तो रहे हैं लेकिन उन्हें ठीक रखने के लिए कुछ भी नहीं करते। घरों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया है। घर भी ध्वस्त होने को अभिशप्त हैं।
जब भी इनके गिर जाने की बातें की गईं, मेरा सुझाव होता था कि या तो उन्हें ठीक कराया जाना चाहिए या छोड़ दिया जाना चाहिए। मेरी अपनी सोच है कि किसी भी नौजवान को बटवारे के लिए मार करनी चाहिए बल्कि खुद ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि उसे दूसरों के ऊपर निर्भर नहीं रहना चाहिए। आखिर माता-पिता ने भी तो उद्यम कर जमीन और मकान बनाया होगा। अगर उनके पास कुछ न होता तो किस बटवारे के लिए मार की जाती। यह भी कि अगर एक निश्चित संपत्ति का ही बटवारा होता रहेगा तो आने वाली पीढ़ियों के लिए तो कुछ बचेगा ही। ऐसे में अगर हर कोई खुद ही कमाने और खाने लगेगा, अपना घर और जमीन बनाने लगेगा तो एक तो बटवारे की समस्या से मुक्ति मिल सकती है। दूसरे इस बटवारे को लेकर आपस में जो जानलेवा दुश्मनी बढ़ती है, उसके विपरीत रिश्तों में भी थोड़ी मिठास बढ़ सकती है।
देखने की बात यह है कि इस तरह के तर्क कैसे एक ही वार से धूल-धूसरित हो जाते हैं और आप मूर्ख घोषित हो जाते हैं। अरे यह कैसे संभव हो सकता है। आखिर पुरखों की जमीन को ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं। उसे हासिल करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भले ही भूखों रहें, घर की छत भले ही बच्चों के ऊपर गिर जाए लेकिन पुश्तैनी घर छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर इसके विपरीत सोचा और काम किया जाता तो संभव है इन बीस-पचीस सालों में कहीं ज्यादा अच्छा जमीन या मकान बनाया जा सकता था। लेकिन जब सारा दिमाग और सारी ऊर्जा सिर्फ इसमें खर्च की जाती रहेगी कि नहीं जी जीना यहीं मरना यहीं तो ऐसी स्थितियां तो आएंगी ही। इससे भी आगे यह होगा कि नई पीढ़ी भी उसी में उलझी रहेगी। ऐसा इसलिए कि वह न पढ़ पाएगी न कोई उसे कोई रोजगार मिल पाएगा और न ही वह अपना कोई उद्यम अथवा व्यवसाय कर पाएगी। वह भी आगे चलकर अपने बाप-दादा की तरह सोचती व करती रहेगी। उसी बने-बनाए दायरे में उलझी रहेगी।
मुझे याद आते हैं गौतम बुद्ध। कैसे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई होगी। कैसे उन्होंने घर-बार छोड़ा होगा और दुनिया के सबसे महान लोगों में शामिल हो गए होंगे। कई बार यह भी लगता है कि अगर महात्मा गांधी अपने माता-पिता के भरोसे रहते और पुरखों की जमीन व घर के बटवारे के लिए लड़ते रहते तो क्या बापू हो पाते और भारत को आजादी मिल पाती। हमारे पूर्वांचल के कितने गिरमिटिया मजदूर जीविकोपार्जन के लिए विदेशों में गए और उन्हीं में से कई प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और सांसद आदि भी बने। यह तो मात्र कुछ उदाहरण हैं। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि चलते रहेंगे तो कहीं पहुंचेंगे। एक जगह स्थिर रहेंगे तो तालाब के पानी की तरह हो जाएंगे जो सड़ने के लिए ही अभिशप्त होगा। समझ में नहीं आता कि लोगों को अपने अतीत से इतना प्रेम कैसे होता है कि वे बंदरिया की तरह अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से चिपकाए रहती है। प्रेम बहुत अच्छी चीज होती है। इससे इनकार नहीं लेकिन यह भी देखना चाहिए वह किसके साथ है। प्रेम पुष्पित-पल्लवित होता है। वह मरने के लिए नहीं होता। लेकिन क्या करेंगे उस कहावत का कि दिल लगा गधी से तो परी किस काम की। घर गिर जाने की आशंका में जी रहे लोग अगर कुछ देखना, सुनना और समझना नहीं चाहते तो लगता है कि जिस भगवान की वह हर बात में दुहाई देते हैं वह भी उनका कुछ नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, जिस लगातार सड़ रहे समाज की शान में वे कसीदे पढ़ते रहते हैं, वह समाज भी उन्हें मरने के लिए ही मजबूर करता है। इसके बाद भी उन्हें अगर वही अच्छा लगता है तो कोई क्या कर सकता है।
उक्त जानकारी पर एकबारगी मन हुआ कि फिर कहें कि उस घर को छोड़कर कहीं नया घर बसाइए। लेकिन लगा कि यह तो किसी को मंजूर नहीं। आश्चर्य तो इस पर ज्यादा होता है कि बाहर गए लोग भी कैसे उसी टूट रहे घर और घृणित रूप से विभक्त हो रहे समाज में ही लौट जाने के लिए उतावले हो रहे हैं। इस तर्क पर की पुरखों की जमीन को कैसे छोड़ेंगे और उसी में जिएंगे-मरेंगे तभी मोक्ष मिलेगा। अब यह सभी को अपने-अपने तरीके से तय करना पड़ेगा कि उन्हें कैसा मोक्ष चाहिए अथवा मोक्ष चाहिए भी कि नहीं। मुझे लगता है कि जो जीवन मिला है, उसे तो पहले कुछ मोक्षदायक बनाने की कोशिश कीजिए। बाद में शायद इसी के जरिये मोक्ष भी मिल जाए। जब आपसी और खून के रिश्तों में इतनी कटुता रहेगी तो मोक्ष मिल भी जाए तो किस का काम का रहेगा। 

Tuesday, March 3, 2015

किसान ने की आत्महत्या


अभी एक खबर मिली है कि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के एक किसान ने अपने ही खेत में आत्महत्या कर ली। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि इस समय बेमौसम की बरसात हो रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि ठीक इसी समय में संसद में और उसके बाहर भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर बहस चल रही है। सरकार कह रही है कि उसकी चिंता में गरीब और किसान हैं। विपक्ष कह रहा है कि यह सरकार हर काम गरीब और किसान-मजदूर विरोधी कर रही है। पता नहीं कौन सच बोल रहा है लेकिन परिणाम इस दुखद रूप में सामने आ रहा है कि किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अभी हमारे एक मित्र पूर्वांचल के अपने गांव से दिल्ली लौटे हैं। मिले तो बहुत परेशान दिखे। पूछने पर बताने लगे कि इस बार आलू की पैदावार बहुत अच्छी हुई थी लेकिन वह इतने सस्ते में बिक रही है कि उसे बेचने पर लागत भी नहीं निकल पाएगी। सोचा था ठीक से बिक जाएगी तो कुछ कर्ज कम कर लिया जा सकेगा लेकिन अब तो इसकी चिंता है कि इस आलू को करें तो करें। इससे भी बड़ी चिंता यह है कि इस बारिश से तो गेहूं और सरसो आदि की फसल भी बरबाद हो जाएगी। ऐसा हो गया तो खाने के लाले पड़ जाएंगे। इस सबके बीच करीब एक साल से बेरोजगार पत्रकार का कहना था कि वह कई दिनों से यह सोच रहे थे कि अब दिल्ली में गुजारा नहीं हो रहा है तो गांव चलेंगे और वहीं कम से कम खाने भर का तो उत्पादन कर ही लेंगे। लेकिन अब लग रहा है कि अगर मौसम की मार इसी तरह पड़ेगी और सरकार जमीन भी ले लेगी और किसानों को कोई सुविधा नहीं देगी तो वहां भी जीवन दूभर हो जाएगा। सवाल यह है कि आखिर आदमी जाए तो कहां जाए। क्या वह मरने के लिए ही मजबूर है। पता नहीं सरकार इस पर क्या कहेगी।

Sunday, March 1, 2015

बेमौसम की बारीश

बसंत के मौसम में आप सोए हों और अलसुबह कोई यह कहते हुए जगाए कि अरे उठिए बारिश हो रही है तो कैसा लगेगा। सबको पता नहीं पर मुझे लगा कि छोड़ो नींद को और खिड़की-दरवाजे खोलो। सब कुछ सुहाना लगेगा। धूल कहीं बह चुकी होगी और पौधों की पत्तियां हरी-भरी होंगी। मन मचलने लगा और मैं बाहर आ गया। रिमझिम बारिश। लेकिन अचानक मन में कुछ शंकाएं और खतरे भी उठने लगे। पहला यह कि यह बेमौसम की बारिश बीमार भी कर सकती है। दूसरा यह कि इससे किसानों की फसलों का क्या होगा। कहीं वे नष्ट तो नहीं हो जाएंगी। तीसरा यह कि गांवों में मां, बहनें और भाभियां जो चिप्स बना रही थीं उनका क्या होगा। इससे भी ज्यादा इसको लेकर भी होने लगी कि चार दिन बाद होने वाली होली का क्या होगा। ठंड में होली कौन खेलेगा और कौन रंगों से सराबोर करेगा। कहीं रंगों में सराबोर हो जाने का सुख छीना तो नहीं जाएगा।

Friday, February 27, 2015

मीडिया को क्या हो गया है

बीते बुधवार को खुद को लगातार नंवर वन बताने न थकने वाले एक हिंदी समाचार चैनल पर प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के साथ एक ऐंकर की बातचीत देख-सुन रहा था। दर्शकों में मेरे एक मित्र भी थे। बातचीत के दौरान ही अचानक ऐंकर ने राहुल गांधी के बारे में सवाल करना शुरू किया। लगता नहीं कि यहां यह बताने की जरूरत है कि राहुल गांधी कौन हैं। वह इस देश की दो बड़ी पार्टियों में से एक और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख पार्टी कांग्रेस के उपाध्यक्ष और सांसद हैं। लेकिन यह क्या सवाल पीछे छूट गया और हमारे मित्र ने अचानक जोर से कहा अरे देखिए इन ऐंकर महोदय को क्या हो गया है। दरअसल, ऐंकर महोदय कुछ इस तरह पूछ रहे थे कि राहुल गांधी कहीं चला गया है, इस बारे में आप का क्या कहना है। ऐसा एक सवाल नहीं बाद को दो-तीन अन्य सवालों में भी राहुल गांधी के बारे में जब ऐसा ही कहा गया तो मित्र ने कहा कि अब बंद करिए चैनल को। मैं और मेरे मित्र दोनों ही अलग-अलग विचारधारा वाले व्यक्ति हैं कोई कांग्रेसी नहीं। लेकिन हम दोनों को यह न केवल बहुत बुरा लगा बल्कि यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि हमारी मीडिया को क्या हो गया है।   

टेस्ट

टेस्ट

Sunday, December 29, 2013

सालाना बैठक

कल २८ दिसम्बर को बैठक कि सालाना बैठक विनोद वर्मा के आवास पर बड़े ही खुशनुमा माहौल में हुई. इस  बैठक में आप कि राजनीति पर विचार विमर्श हुआ. कुछ लोगों ने आप कि राजनीति में संभावनाएं देखीं तो कुछ ने गम्भीर आलोचना भी की.

Tuesday, June 7, 2011

आधी रात के बाद का हमला


जब भारत को आजादी मिल रही थी तब देश के पहले प्रधानमंत्री (जिनको लेकर भारतीयों में बहुत सारे सपने पल रहे थे) ने कुछ इस तरह कहा था, जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में होगी, हम एक नए भारत में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें सब को पूरी आजादी होगी। चार जून की आधी रात के बाद रामलीला मैदान में जो कुछ सरकार और प्रशासन की ओर से किया गया, उससे नेहरू की बात गलत साबित होती है क्योंकि इसे आजादी कतई नहीं कहा जा सकता। वहां सरकार और प्रशासन की ओर से जिस तरह के हालात पैदा किए गए उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता बल्कि उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। जो लोग पुलिसिया जुर्म को जायज ठहराने की मुंहजोरी कर रहे हैं उन्हें तो दंडित किया ही जाना चाहिए पर जिन लोगों के साथ जुर्म किया गया है उन्हें भी यह समझ जाना चाहिए कि पुलिस और सरकार का असली चेहरा क्या होता है। रविवार को सुशासन के लिए नाम कमा रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब बाबा रामदेव के साथ की गई कार्रवाई की निंदा कर रहे थे तब बिहार के ही वे चार किसान और उनके परिवार के लोग याद आ रहे थे जिन्हें अभी दो दिन पहले पुलिस ने फायरिंग कर मौत के घाट उतार दिया था। यह लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। वहां मामला एक फैक्टरी को दी गई जमीन से जुड़ा था। शनिवार को ही दिन में कुछ न्यूज चैनल वह तस्वीर प्रसारित कर रहे थे जिसमें जमीन पर पड़े एक बेहोश व्यक्ति के ऊपर एक पुलिस वाला कूद रहा था। अब नीतीश जी कह सकते हैं पूरे मामले की जांच की जा रही है और जो भी दोषी पाया जाएगा उसे बख्शा नहीं जाएगा। हालांकि बर्बर पुलिसकर्मी गिरफ्तार कर लिया गया है पर यह कोई समाधान नहीं हुआ। सवाल यह है कि पुलिस को इस तरह की कार्रवाई करने की छूट किसने दे रखी है। क्या इसी तरह की कार्रवाई पुलिस किसी बड़े आदमी के साथ कर सकती है, नहीं। लेकिन उनसे कोई यह क्यों नहीं पूछता कि आखिर पुलिस को यह छूट किसने दे रखी है। हमारी विपक्ष की सम्मानित नेता बहुत तेजतर्रार तरीके से कह रही हैं कि जिस व्यक्ति की आगवानी करने के लिए सरकार के चार-चार वरिष्ठ मंत्री हवाई पहुंच जाते हैं और पांचसितारा होटल में जिस व्यक्ति के साथ बातचीत की जाती है उसी व्यक्ति के खिलाफ आधी रात में जब रामलीला मैदान में बहुतायत लोग सो रहे हों, पुलिसिया कार्रवाई की अचानक जरूरत क्यों पड़ गई। किसी को कतई यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मैं इस कार्रवाई का किसी तरह से समर्थक हूं बल्कि मैं तो ऐसा करने और करवाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किए जाने की इच्छा रखता हूं लेकिन इसके साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि यह कोई जलियांवाला बाग में ही नहीं हुआ था और न ही आपातकाल के दौरान। आधी रात को पुलिस द्वारा किसी को भी किसी के घर से उठा ले जाना और किसी के भी परिजनों पर लाठियां और गोलियां चलाना इस देश में आम घटनाएं हैं। किसी भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन अथवा आंदोलन को हिंसक बताकर उस पर जुल्म करना यहां आम बात है लेकिन तब उनकी बात नहीं सुनी जाती और न कही जाती है। तब यही लोग सरकार और प्रशासन की भाषा बोलते हैं क्योंकि उसमें कोई बाबा रामदेव नहीं होता बल्कि वे आम किसान, मजदूर, छात्र और महिलाएं होती हैं। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमों में फंसाना, कुख्यात अपराधी, आतंकवादी और नक्सली बताकर किसी को भी घर से आधी रात को घर से उठाकर ले जाना और मुठभेड़ में मार गिराना, किसी भी आंदोलन को अराजक और अशांति फैलाने वाला बताकर उसका दमन करना अथवा रोक देना, हर सरकारों (कम्युनिस्ट कही जाने वाली सरकारों का भी) का काम हो गया है। सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में भी सरकारों ने बहुत बार ऐसा किया है अथवा कर रही हैं। इनमें उनकी भी सरकारें रही हैं जिन्हें आज आपातकाल का भोगा हुआ यथार्थ याद आ रहा है और जो रामलीला मैदान की कार्रवाई को जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर बताते नहीं थक रहे हैं और कार्रवाई को लोकतंत्र के नाम पर कलंक बता रहे हैं। निश्चित रूप से इस कार्रवाई से जलियांवाला बाग, आपातकाल की यादें ताजा होती हैं और इससे लोकतंत्र कलंकित होता है लेकिन जब आम और निरीह-निर्दोष लोगों के साथ यही सब किया जाता है तब क्यों नहीं जलियांवाला बाग और आपातकाल याद आता और लोकतंत्र कलंकित होता। अपने को सबसे बड़ा समाजवादी बताते न थकने वाले मुलायम सिंह यादव शायद रामपुर तिराहा कांड भूल गए हैं। वह भूल सकते हैं पर वहां के लोग और इस देश की जनता कभी नहीं भूलेगी। वे यह भी भूल गए कि किन कारणों से पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जबर्दस्त हार हुई थी। उसी तरह बड़ी-बड़ी बातें करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अपने राज्य में एक समुदाय विशेष के लोगों के साथ जो कुछ किया-करवाया उसके लिए उन्हीं की पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने शर्मिंदगी महसूस की थी। यह तो मात्र दो नाम हैं। कितने नवीन पटनायक और कितने रमन सिंह इसी तरह के हैं जिनके कोप का शिकार आम लोगों को लगातार होना पड़ रहा है पर किसी को लोकतंत्र और जलियांवाला बाग याद नहीं आता, क्यों। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संप्रग सरकार द्वारा की गई कार्रवाई जायज है। ऐसी किसी भी कार्रवाई का व्यापक स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए लेकिन वह भी दिखावे वाला नहीं होना चाहिए न किसी को बरगलाने के लिए जैसा संघ और भाजपा की ओर से बाबा के बहाने किया जा रहा है। किसी को यह भूलना नहीं चाहिए कि इन दोनों ने राम मंदिर के नाम पर पूरे देश में क्या-क्या किया लेकिन जब सरकार बनी तो उसी मुद्दे को किनारे कर दिया जिसकी बैसाखी के सहारे सरकार में आए थे। साध्वी ऋतंभरा को मंच पर बैठाने से पहले बाबा रामदेव को यह बात समझनी चाहिए थी। अन्ना ने शायद इसे कुछ हद तक समझा था शायद इसीलिए उन्होंने उमा भारती को फटकने नहीं दिया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जिस भाषा में बाबा रामदेव के बारे में बातें कह रहे हैं उसे शिष्ट और सभ्य नहीं कहा जा सकता लेकिन भोपाल में उनके बंगले पर किए गए पथराव के संकेत भी कोई कम खतरनाक नहीं हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पथराव करने वाले कौन लोग हो सकते हैं और यह लोग एक बार फिर किस तरह का दौर लाने की तैयारियां कर रहे हैं।
बहरहाल, आज सरकार, प्रशासन और बाबा रामदेव व उनके समर्थक चाहे जो आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों, एक बार फिर यह साबित हो गया कि देश में आजादी नाम की कोई चीज नहीं है। जो कुछ है सिर्फ कहने के लिए और उन कुछ लोगों के लिए है जो सर्वशक्तिसंपन्न हैं। बाबा और अन्ना को भी यह पहले से समझना चाहिए था लेकिन वे इसलिए नहीं समझ पा रहे थे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं जिसे शायद महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण भी नहीं पाए। उन्हें आभास हो गया कि देश के काफी लोग उनके साथ जुड़ गए हैं इसीलिए मुगालता भी हो गया था कि सरकार उन्हें पूजेगी। अपनी आदत के मुताबिक सरकार ने भ्रम फैलाने के लिए ऐसा किया भी। देश के विभिन्न हिस्सों में देश और जनता से जुड़े कई मुद्दों पर बहुत बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके साथ जनसमर्थन नहीं है (जैसा कि अन्ना और बाबा के बारे में लाखों में आंकड़े बताए जा रहे हैं)। उनके साथ भी हजारों-लाखों समर्थक हैं पर सरकार उनकी बात तक नहीं सुनती, बातचीत करने को कौन कहे जबकि इन संत और बाबा के साथ अनशन शुरू करने के पहले से ही सरकार नतमस्तक हो जाती है। यहां इसका उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि महात्मा गांधी के बाद अनशन का असल प्रयोग इरोम शर्मिला ने किया लेकिन उनकी बात न सरकार सुन रही है न सुनना चाहती है। क्या अनशन को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले, लोकतंत्र को बचाने के लिए सदैव चिंतित रहने वाले हमारे नेतागण इस पर कुछ नहीं कहना चाहेंगे। जो लोग व्यवस्था परिवर्तन का राग अलाप रहे हैं उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इरोम का क्या कसूर है। क्या गांधी के बताए अनशन का अधिकार सिर्फ संतों और बाबाओं को है, आम आदमी के लिए नहीं।