Tuesday, June 7, 2011

आधी रात के बाद का हमला


जब भारत को आजादी मिल रही थी तब देश के पहले प्रधानमंत्री (जिनको लेकर भारतीयों में बहुत सारे सपने पल रहे थे) ने कुछ इस तरह कहा था, जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में होगी, हम एक नए भारत में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें सब को पूरी आजादी होगी। चार जून की आधी रात के बाद रामलीला मैदान में जो कुछ सरकार और प्रशासन की ओर से किया गया, उससे नेहरू की बात गलत साबित होती है क्योंकि इसे आजादी कतई नहीं कहा जा सकता। वहां सरकार और प्रशासन की ओर से जिस तरह के हालात पैदा किए गए उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता बल्कि उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। जो लोग पुलिसिया जुर्म को जायज ठहराने की मुंहजोरी कर रहे हैं उन्हें तो दंडित किया ही जाना चाहिए पर जिन लोगों के साथ जुर्म किया गया है उन्हें भी यह समझ जाना चाहिए कि पुलिस और सरकार का असली चेहरा क्या होता है। रविवार को सुशासन के लिए नाम कमा रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब बाबा रामदेव के साथ की गई कार्रवाई की निंदा कर रहे थे तब बिहार के ही वे चार किसान और उनके परिवार के लोग याद आ रहे थे जिन्हें अभी दो दिन पहले पुलिस ने फायरिंग कर मौत के घाट उतार दिया था। यह लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। वहां मामला एक फैक्टरी को दी गई जमीन से जुड़ा था। शनिवार को ही दिन में कुछ न्यूज चैनल वह तस्वीर प्रसारित कर रहे थे जिसमें जमीन पर पड़े एक बेहोश व्यक्ति के ऊपर एक पुलिस वाला कूद रहा था। अब नीतीश जी कह सकते हैं पूरे मामले की जांच की जा रही है और जो भी दोषी पाया जाएगा उसे बख्शा नहीं जाएगा। हालांकि बर्बर पुलिसकर्मी गिरफ्तार कर लिया गया है पर यह कोई समाधान नहीं हुआ। सवाल यह है कि पुलिस को इस तरह की कार्रवाई करने की छूट किसने दे रखी है। क्या इसी तरह की कार्रवाई पुलिस किसी बड़े आदमी के साथ कर सकती है, नहीं। लेकिन उनसे कोई यह क्यों नहीं पूछता कि आखिर पुलिस को यह छूट किसने दे रखी है। हमारी विपक्ष की सम्मानित नेता बहुत तेजतर्रार तरीके से कह रही हैं कि जिस व्यक्ति की आगवानी करने के लिए सरकार के चार-चार वरिष्ठ मंत्री हवाई पहुंच जाते हैं और पांचसितारा होटल में जिस व्यक्ति के साथ बातचीत की जाती है उसी व्यक्ति के खिलाफ आधी रात में जब रामलीला मैदान में बहुतायत लोग सो रहे हों, पुलिसिया कार्रवाई की अचानक जरूरत क्यों पड़ गई। किसी को कतई यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मैं इस कार्रवाई का किसी तरह से समर्थक हूं बल्कि मैं तो ऐसा करने और करवाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किए जाने की इच्छा रखता हूं लेकिन इसके साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि यह कोई जलियांवाला बाग में ही नहीं हुआ था और न ही आपातकाल के दौरान। आधी रात को पुलिस द्वारा किसी को भी किसी के घर से उठा ले जाना और किसी के भी परिजनों पर लाठियां और गोलियां चलाना इस देश में आम घटनाएं हैं। किसी भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन अथवा आंदोलन को हिंसक बताकर उस पर जुल्म करना यहां आम बात है लेकिन तब उनकी बात नहीं सुनी जाती और न कही जाती है। तब यही लोग सरकार और प्रशासन की भाषा बोलते हैं क्योंकि उसमें कोई बाबा रामदेव नहीं होता बल्कि वे आम किसान, मजदूर, छात्र और महिलाएं होती हैं। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमों में फंसाना, कुख्यात अपराधी, आतंकवादी और नक्सली बताकर किसी को भी घर से आधी रात को घर से उठाकर ले जाना और मुठभेड़ में मार गिराना, किसी भी आंदोलन को अराजक और अशांति फैलाने वाला बताकर उसका दमन करना अथवा रोक देना, हर सरकारों (कम्युनिस्ट कही जाने वाली सरकारों का भी) का काम हो गया है। सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में भी सरकारों ने बहुत बार ऐसा किया है अथवा कर रही हैं। इनमें उनकी भी सरकारें रही हैं जिन्हें आज आपातकाल का भोगा हुआ यथार्थ याद आ रहा है और जो रामलीला मैदान की कार्रवाई को जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर बताते नहीं थक रहे हैं और कार्रवाई को लोकतंत्र के नाम पर कलंक बता रहे हैं। निश्चित रूप से इस कार्रवाई से जलियांवाला बाग, आपातकाल की यादें ताजा होती हैं और इससे लोकतंत्र कलंकित होता है लेकिन जब आम और निरीह-निर्दोष लोगों के साथ यही सब किया जाता है तब क्यों नहीं जलियांवाला बाग और आपातकाल याद आता और लोकतंत्र कलंकित होता। अपने को सबसे बड़ा समाजवादी बताते न थकने वाले मुलायम सिंह यादव शायद रामपुर तिराहा कांड भूल गए हैं। वह भूल सकते हैं पर वहां के लोग और इस देश की जनता कभी नहीं भूलेगी। वे यह भी भूल गए कि किन कारणों से पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जबर्दस्त हार हुई थी। उसी तरह बड़ी-बड़ी बातें करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अपने राज्य में एक समुदाय विशेष के लोगों के साथ जो कुछ किया-करवाया उसके लिए उन्हीं की पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने शर्मिंदगी महसूस की थी। यह तो मात्र दो नाम हैं। कितने नवीन पटनायक और कितने रमन सिंह इसी तरह के हैं जिनके कोप का शिकार आम लोगों को लगातार होना पड़ रहा है पर किसी को लोकतंत्र और जलियांवाला बाग याद नहीं आता, क्यों। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संप्रग सरकार द्वारा की गई कार्रवाई जायज है। ऐसी किसी भी कार्रवाई का व्यापक स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए लेकिन वह भी दिखावे वाला नहीं होना चाहिए न किसी को बरगलाने के लिए जैसा संघ और भाजपा की ओर से बाबा के बहाने किया जा रहा है। किसी को यह भूलना नहीं चाहिए कि इन दोनों ने राम मंदिर के नाम पर पूरे देश में क्या-क्या किया लेकिन जब सरकार बनी तो उसी मुद्दे को किनारे कर दिया जिसकी बैसाखी के सहारे सरकार में आए थे। साध्वी ऋतंभरा को मंच पर बैठाने से पहले बाबा रामदेव को यह बात समझनी चाहिए थी। अन्ना ने शायद इसे कुछ हद तक समझा था शायद इसीलिए उन्होंने उमा भारती को फटकने नहीं दिया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जिस भाषा में बाबा रामदेव के बारे में बातें कह रहे हैं उसे शिष्ट और सभ्य नहीं कहा जा सकता लेकिन भोपाल में उनके बंगले पर किए गए पथराव के संकेत भी कोई कम खतरनाक नहीं हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पथराव करने वाले कौन लोग हो सकते हैं और यह लोग एक बार फिर किस तरह का दौर लाने की तैयारियां कर रहे हैं।
बहरहाल, आज सरकार, प्रशासन और बाबा रामदेव व उनके समर्थक चाहे जो आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों, एक बार फिर यह साबित हो गया कि देश में आजादी नाम की कोई चीज नहीं है। जो कुछ है सिर्फ कहने के लिए और उन कुछ लोगों के लिए है जो सर्वशक्तिसंपन्न हैं। बाबा और अन्ना को भी यह पहले से समझना चाहिए था लेकिन वे इसलिए नहीं समझ पा रहे थे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं जिसे शायद महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण भी नहीं पाए। उन्हें आभास हो गया कि देश के काफी लोग उनके साथ जुड़ गए हैं इसीलिए मुगालता भी हो गया था कि सरकार उन्हें पूजेगी। अपनी आदत के मुताबिक सरकार ने भ्रम फैलाने के लिए ऐसा किया भी। देश के विभिन्न हिस्सों में देश और जनता से जुड़े कई मुद्दों पर बहुत बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके साथ जनसमर्थन नहीं है (जैसा कि अन्ना और बाबा के बारे में लाखों में आंकड़े बताए जा रहे हैं)। उनके साथ भी हजारों-लाखों समर्थक हैं पर सरकार उनकी बात तक नहीं सुनती, बातचीत करने को कौन कहे जबकि इन संत और बाबा के साथ अनशन शुरू करने के पहले से ही सरकार नतमस्तक हो जाती है। यहां इसका उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि महात्मा गांधी के बाद अनशन का असल प्रयोग इरोम शर्मिला ने किया लेकिन उनकी बात न सरकार सुन रही है न सुनना चाहती है। क्या अनशन को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले, लोकतंत्र को बचाने के लिए सदैव चिंतित रहने वाले हमारे नेतागण इस पर कुछ नहीं कहना चाहेंगे। जो लोग व्यवस्था परिवर्तन का राग अलाप रहे हैं उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इरोम का क्या कसूर है। क्या गांधी के बताए अनशन का अधिकार सिर्फ संतों और बाबाओं को है, आम आदमी के लिए नहीं।

Wednesday, May 25, 2011

अनशन का फंक्शन

------अन्ना हजारे के अनशन की समाप्ति के बाद यह लेख लिखने की शुरुआत की गई थी। लेकिन पूरा नहीं हो सका था। इसलिए अलग रख दिया था। लगा कि ज्यादा अच्छा होगा जैसा है वैसा ही प्रस्तुत कर दिया जाए। सो, आज पेश कर दे रहा हूं।-----

हमारा देश बहुत महान है और इससे भी महान हमारे देश के हम जैसे नागरिक हैं। अभी कुछ दिनों पहले जब विश्व कप क्रिकेट चल रहा था तब हमारे महान नागरिकों की देशभक्ति देखते ही बनती थी। क्रिकेट और धोनी-सचिन के खिलाफ कोई सात्विक टिप्पणी करने वाला भी क्षणमात्र में देश विरोधी कर दिया जा रहा था। हमारे महान देश के महान देशभक्तों ने ऐसी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी जिसमें क्रिकेट को लेकर किसी तरह का शकसुबहा कोई कर सके, भले ही विजेता टीम को नकली ट्राफी दे दी जाए, उसे भी देशप्रेम ही माना गया। हिंदुस्तान के ताजा इतिहासों में अयोध्या में राम मंदिर के लिए जब जत्थे चढ़ाई में जुटे थे वह समय याद कीजिए। तब यह स्थापित कर दिया गया था अगर आप मंदिर के पक्ष में नहीं हैं तो रामभक्त और देशभक्त नहीं हैं। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हाल के वर्षों में मिल जाएंगे। अब ताजा उदाहरण जन लोकपाल बिल का है। आप को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया है कि अगर इसके पक्ष में नहीं हैं तो भ्रष्टाचारी हैं और तब अगर साथ हैं तो जाहिर ईमानदार और देशभक्त। भारत माता की जय और वंदेमातरम जैसे नारों के बीच जंतर मंतर पर चला अनशन का फंक्शन ऐसी बहती गंगा थी जिसमें अगर आपने हाथ नहीं धोया तो तय मानिए आपके साथ यह संकट खड़ा हुआ है कि आप पापी घोषित कर दिए जाएंगे। आस्थाओं के मुरीद हमारे देश के महान नागरिकों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि गणेशजी दूध पी रहे हों और वह न पिला पाएं। यह वही महान देश और उसके महान नागरिक हैं जो सचिन को भगवान और अमिताभ को महानायक घोषित कर पूजने लगते हैं। अब कुछ इसी तरह अन्ना हजारे को लेकर स्थितियां बन रही (बनाई जा रही) हैं। यह मेरी अपनी कमजोरी हो सकती है कि मैं किसी को भी आसानी से भगवान नहीं मान पाता और क्योंकि यह तो चलिए किसी तरह माना जा सकता है कि कभी कोई भगवान रहा होगा जिसे हमने नहीं देखा लेकिन उसके बारे में भी लोग तरह-तरह की टिप्पणियां करते रहते हैं। मुझे लगता है कि कैसा भी हो लेकिन अगर सर्वशक्ति संपन्न भगवान है तो वह काफी है। अब अगर उससे आपका काम नहीं चल रहा है तो तय मानिए बहुत सारे भगवान बना लेने से भी आपका काम चलने वाला नहीं है। भ्रम भले ही पाल लीजिए, क्योंकि सचिन को अपने क्रिकेट और अमिताभ को अपनी फिल्म और इससे उन्हें जो हासिल होता है, उससे ज्यादा उन्हें कुछ भी प्रिय नहीं है। न देश न समाज और न लोगों की समस्याएं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लाखों किसान आत्महत्या करते रहें, इन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं होता। देश के विभिन्न राज्यों में अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता पुलिस की गोलियों से मारी जाती रहे, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। पूरे देश में खासकर देश की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार होता रहे, ये इसके खिलाफ कुछ नहीं बोलते और करते। वे पता नहीं यह सब क्यों नहीं सोचते पर मुझे यह सब सोचते हुए एक बड़ा संकट दिखने लगता है कि कहीं मुझे भी देश विरोधी न घोषित कर दिया क्योंकि इसमें लोग जरा भी देर नहीं करते।
आइए अब भ्रष्टाचार पर बात की जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है। इससे भी किसी को एतराज नहीं होगा कि यह खत्म होना चाहिए। लोकपाल (जन लोकपाल) पर शायद ही किसी को एतराज हो, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मात्र इससे भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? मेरे जैसे कम समझदार को यह लगता है कि इसका जवाब नहीं में है। दरअसल, इसे खत्म करने की जिस कोशिश को बहुत क्रांतिकारी रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह अपने आप में किसी बड़े धोखे से कम नहीं है। कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार तभी खत्म हो सकता है जब जनलोकपाल बनाया जाए और उसे असीमित ताकत प्रदान की जाए। यहां तक कि वह भ्रष्टाचार के आरोपी को फांसी पर लटका सकें। सबसे पहली बात तो यह है कि फांसी को लेकर पूरी दुनिया में गंभीर बहस चल रही है कि क्या इसे सजा के तौर पर रखा जाए या नहीं। इतना ही नहीं, कई देशों में इस सजा को समाप्त तक कर दिया गया है। इसके अलावा अभी भी कई ऐसे जघन्य अपराध हैं जिनमें हमारे देश में फांसी की सजा का प्रावधान है और कई को यह सजा दी भी गई है लेकिन क्या इससे उस जैसे अपराध रोके जा सके हैं। नहीं, बल्कि उस तरह के अपराध लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल फांसी की सजा के प्रावधान से भ्ष्टाचार खत्म नहीं हो सकेगा। कुछ भले मानुस यह कहते हुए फांसी के समर्थक हैं कि इससे खत्म भले ही न हो कम जरूर हो जाएगा। मेरे दिमाग में भ्रष्टाचार को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि एक किसान और मजदूर को बिजली बिल और मालगुजारी आदि के सौ-दो सौ बकाया होने पर न केवल बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता है बल्कि जेल तक में डाल दिया जाता है। लेकिन मधु कोड़ा की संपत्ति दिन दूना रात चौगुना बढ़ती जाती है और किसी को तब तक खबर नहीं होती जब तक वह मुख्यमंत्री रहते हैं। छोटे-छोटे कर्मचारी जिनका हजार-पांच सौ रुपया इनकम टैक्स बनता है और वह जाने-अनजाने रिटर्न नहीं फाइल कर पाता, उसके खिलाफ कार्रवाई हो जाती है। लेकिन हसन अली हजारों करोड़ रुपये आयकर के छिपाता रहता है और किसी को कोई चिंता नहीं होती। ए राजा करोड़ों करोड़ के घोटाले करते रहते हैं सबको पता रहता है, तब भी किसी तरह की रोक नहीं होती। कामनवेल्थ गेम्स के नाम पर घोटाले दर घोटाले होते रहते हैं, सरकार को पता भी रहता है लेकिन देश की शान के नाम पर उसे होने दिया जाता है। देश का धन विदेश में जाता रहता है, रोकने का कोई इंतजाम नहीं किया जाता। छोटे-छोटे लोग बड़े-बड़े पूंजीपति बनते जाते हैं और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले मरते जाते हैं, इसे कोई देखने वाला नहीं होता। किसान बेमौत मरते रहते हैं और बीज-खाद कंपनियों के मालिक धन्नासेठ बनते जाते हैं। ठेकेदारी प्रथा पर कोई अंकुश नहीं लग रहा है तो सिर्फ इसलिए इससे सभी संबंधित पक्षों और लोगों को धन पहुंच जाता है और निर्माण की ऐसी की तैसी होती रहती है। आंगनवाड़ी जैसे कितने ही विभाग हैं जिनमें किस कदर भ्रष्टाचार है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सब चल रहा है और संस्थाबद्ध तरीके से। कुल मिलाकर कहना यह है कि भ्रष्टाचार को संस्थाबद्ध कर दिया गया है। यह पूरी तरह व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया है। इसलिए इसे खत्म करने या कम करने के लिए व्यवस्थागत बदलाव की जरूरत सबसे पहले है। कुछ अपने को बहुत बुद्धिमान मानने वाले लोग कहते हैं कि जब हर कोई सुधर जाएगा तो भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा। ऐसे लोगों को कौन समझाए कि इस देश की बहुतायत आबादी पहले से ही सुधरी हुई है, इसीलिए उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है और जिसने न सुधरने की कसम खा रखी है वह भ्रष्टाचार के बलबूते सबसे बड़ा देशप्रेमी और विकास का वाहक बनता जा रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि जनलोकपाल बनाकर कुछ लोगों को फांसी पर लटकाया जा सकता है लेकिन भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता । यहभी चिन्हित करने की जरूरत है कि वे कौन और किस तरह के लोग हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ इतने मुखर हो चले हैं। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा जो न अनशन करने वाले चाहते हैं और न ही व्यवस्था के पोषक । इसलिए कम से कम उन लोगों को तो किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए जो वास्तव में चाहते हैं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि भ्रष्टाचार कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जो पहली बार उठा है। इसके पहले भी इस पर आंदोलन हुए हैं। वीपी सिंह को भूलिए मत, जिन्होंने बोफोर्स घोटाले को उठाया लेकिन उसका परिणाम सिर्फ इस रूप में जाना जा सकता है कि वे प्रधानमंत्री बन गए। भ्रष्टाचार का क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। बोफोर्स का भी क्या हुआ, सभी जानते हैं। जिस जयप्रकाश नारायण को कभी नायक के रूप में देखा गया उनके आंदोलन की शुरुआत में भी भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था। उसकी भी परिणति जनता पार्टी की सरकार बनने के रूप में हुई। इस नए आंदोलन की परिणति भी जल्दी ही सामने आ जाएगी। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन इस सबका कतई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए भ्रष्टाचार नहीं है या यह बड़ा मुद्दा नहीं है या इसके खिलाफ आंदोलन नहीं होना चाहिए या इसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह कोई अलाहदा समस्या नहीं है जिसे अलग से हल किया जा सकता है। यह पूरी तरह व्यवस्था से जुड़ा मामला है और इसके साथ और भी बहुत सारी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। उन्हें भी जानने और समझने की जरूरत है।
अब बात नए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राजनीति की। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक पार्टियों के विरोध के साथ जंतर मंतर से शुरू हुए आंदोलन की राजनीति में आमरण अनशन की भी अपनी राजनीति है जिसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। आखिर आमरण अनशन को कुछ लोग इस तरह से जो प्रचारित करते हैं कि यह महात्मा गांधी का ब्रह्मास्त्र था और इसी के बलबूते उन्होंने अंग्रेजों को भगा दिया और भारत को आजादी को दिला दी। हालांकि यह अलग बहस का विषय हो सकता है इसके बावजूद कि बहुत सारे लोग इस धारणा को सही नहीं मानते, इसके बावजूद लगता है कि एक बार फिर सायाश यह स्थापित करने की असफल कोशिश की जा रही है कि इस देश में अभी भी आमरण अनशन के माध्यम से छोटी से लेकर बड़ी समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं। गरीबी, भूख, इलाज, इज्जत और जीवन से भी बड़ी समस्याओं के रूप में इस देश में आतंकवाद और नक्सलवाद को बताया जाता रहता है। महंगाई कोई भ्रष्टाचार से कम भयावह समस्या नहीं है। इन समस्याओं से जो लोग जूझ रहे हैं, उनका दर्द समझने वाला कोई नहीं है। इन सब और इन जैसी समस्याओं के लिए कोई महात्मा गांधी बनने को तैयार नहीं है। अगर कोई कोशिश भी करता है तो उसे तवज्जो देने वाला कोई नहीं है। ऐसे में जनलोकपाल बिल को लेकर कोई अपनी जान देने पर उतारू हो जाए तो लगता है कि इसके पीछे कुछ न कुछ राजनीति तो जरूर है। पिछले बयालिस सालों में अगर लोकपाल बिल नहीं पारित किया गया तो ऐसा न करने वालों की मंशा पर सवाल उठाया ही जाना चाहिए लेकिन यह भी तो समझना चाहिए कि जो काम ४२ सालों में नहीं हो सका वह चार-छह महीनों में कैसे हो सकेगा और कौन करने देगा। इससे भी पहले यह भी सोचा जाना चाहिए कि जनलोकपाल के लिए आमरण अनशन की ही आवश्यकता क्यों पड़ गई। यह कहा जा सकता है कि इसके पहले भी इसके लिए कई तरह के प्रयास किए गए लेकिन वह इस आमरण अनशन जैसे तो नहीं थे। इसके पहले जुलूस निकाले जा सकते थे, सेमिनार किए जा सकते थे, प्रदर्शन हो सकते थे। कुछ दिनों तक क्रमिक अनशन हो सकते थे।
अगर यह सब नहीं किया गया और सीधे जान दे देने की धमकी दे गई तो सहज ही कुछ शंकाएं पैदा होने लगीं। उससे भी ज्यादा शंका को बल तब मिला जब सभी मांगें सरकार द्वारा मान ली गईं। समझ में नहीं आया कि कल तक जो सरकार संविधान, लोकतंत्र संसदीय मर्यादा की दुहाई दे रही थी और जो अन्ना हजारे किसी भी हालत पर प्रणव मुखर्जी को कमेटी में नहीं देखना चाहते थे , अचानक दोनों ही कैसे तैयार हो गए। इससे भी पहले यह सवाल उठा कि सरकार ने तो औपचारिक रूप से शायद किसी अन्ना हजारे या उनके प्रतिनिधि को वार्ता के लिए बुलाया नहीं था तो यह कैसे होने लगा कि इधर आमरण अनशन शुरू हुआ और उधर उनके प्रतिनिधि कपिल सिब्बल से बात करने के लिए चले गए। आम लोगों को यह पता भी चल नहीं चल पाया कि आखिर यह सब कैसे हो रहा था और उन मुलाकातों में क्या-क्या हुआ सिवाय इसके कि दोनों पक्ष सहमत हो गए। उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह रहा कि खुद आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को खुद ही अनशन तोड़ना पड़ा। कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं आया कि अन्ना साहब अब तो हमने आपकी मांगें मान लीं, तोड़ दीजिए अनशन। हालांकि यह कोई जरूरी नहीं होता कि ऐसा हो, इसके भी अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब आम लोगों के हाथों अनशन तोड़ा गया हो पर यह अनशन तो खास था। लेकिन यह होता कैसे जब भ्रष्टाचार के खिलाफ दुंदुभी बजाने वाले शुरू से ही यह कह रहे हों कि हमें सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से कोई शिकायत नहीं है। भला बताइए, जिसके राज में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हो रहा हो, उन्हीं का गुणगान और उन्हीं से उम्मीदें। कहते हैं सत्ता सर्वशक्तिमान होती है और वह बहुत सारा काम बिना कानून के भी कर सकती है। अगर यह सरकार (मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी) चाहती तो बिना कानून के भी भ्रष्टाचार रोक सकती थी (कम तो करवा ही सकती थी)। ऐसा न कर उसे और बढ़ने तथा फलने-फूलने का मौका दिया। ऐसे में इस आशंका को बल ही मिलता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई अगर उन्हीं के साथ मिलकर लड़ी जानी है तो उसका भविष्य क्या होगा। यह अलग बात है कि अन्ना हजारे ने मांगें पूरी न होने पर फिर से आंदोलन की चेतावनी दे चुके हैं लेकिन गेंद तो अब सरकार के ही पाले में है और ज्यादा खतरा यही है कि वह उसे जैसा चाहेगी स्विंग कराएगी। इस सबके बावजूद पता नहीं क्यों फिल्म पड़ोसन की याद आ रही है। अगर भोला को बिंदु मिल जाए तो अच्छी बात।

Saturday, May 21, 2011

हम भी ना उम्मीद नहीं


कहते हैं उम्मीद पर दुनिया टिकी है। हम भी इसी दुनिया में रहते हैं सो हमें भी कोई कम उम्मीद नहीं है कि कभी हम भी शैशवावस्था से युवावस्था में पहुंच जाएंगे और तब तक हमारा लोकतंत्र अवश्य परिपक्व हो जाएगा। इसीलिए नाउम्मीदी को फटकने नहीं देते। अलग-अलग किस्म की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं को ज्यादा बेहतर समझने वाले कहते हैं कि अमेरिका में हमसे भी बड़ा और ज्यादा लोकतंत्र है। शायद इसीलिए हमारे जैसे महान लोकतंत्र के महान नेता उसकी चाटुकारिता में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। संभव है वे यह दिखाना चाहते हैं कि हमारे लोकतंत्र में जो थोड़ी-बहुत कमी की गुंजाइश रह जा रही है वह अमेरिका से सीखकर उससे भी बड़े लोकतंत्र वाले हो जाएंगे। कुछ अन्य लोगों की तरह ही हम भी यह समझते हैं कि इस व्यवस्था में लोकतंत्र की गुंजाइश बहुत कम है लेकिन जो है (दिखावा ही सही) उसका निश्चित ही स्वागत किया जाना चाहिए। जो लोग लोकतंत्र की इच्छा रखते हैं और उसे मजबूत देखना चाहते हैं (आस्था रखने वाले नहीं) वे स्वागत योग्य हैं। लेकिन केवल लोकतंत्र के स्वागत करने से चीजें बहुत ठीक होने वाली नहीं हैं। इसमें क्या कमियां हैं और उन्हें कैसे दुरुस्त किया जा सकता है, इस पर लगातार काम करना होगा। कुछ अखबारों में इस बारे में लिख देने अथवा टीवी या संगोष्ठियों-बैठकों में इस पर आदर्श बतिया लेने से भी बहुत कुछ नहीं होने वाला है। हम असल में अपनी अच्छाइयों पर इतने मंत्रमुग्ध होने वाले लोग हैं कि उसी में डूबते उतराते रहते हैं। अब जैसे जेसिका लाल हत्याकांड और अयोध्या पर आए फैसले हैं। हम इस बात पर फूले नहीं समाते कि देर से ही सही, न्याय मिलता हैं। लेकिन इस देर में कितना कुछ नष्ट होता है और क्या हर कोई इतना झेल पाने की कुवत रखता है, इस बारे में भी सोचा जाना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसी जेसिका एक ही होती है। इस देश में न जाने कितनी ऐसी जेसिका होंगी जिन्हें कोई नहीं जान सकता। अभी कुछ दिनों पहले मेरी अपने एक मित्र के साथ बात हो रही थी जिसमें उसका कहना था कि एक बिनायक क्यों । उन हजारों बिनायकों के बारे में क्या कोई जानता है जो ऐसे ही फर्जी आरोपों में कई जेलों में वर्षों से सजा भुगत रहे हैं। मानिए या न मानिए उन्हें कभी न्याय नहीं मिलेगा क्योंकि उन्हें न्याय दिलाने वाला कोई है ही नहीं। हम इस बात पर खुश हो सकते हैं और होना भी चाहिए कि कम से कम यह तय हो पाया कि जेसिका लाल की हत्या की गई थी और किसी ने उसकी हत्या की थी अन्यथा हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था ने तो यह तय कर दिया था कि उसकी हत्या किसी ने नहीं की। यही हमारा चमत्कारिक कर देने वाला लोकतंत्र है जिस पर हम मंत्र मुग्ध होते रहते हैं। जरा सोचिए अगर वह किसी गरीब किसान अथवा मजदूर की बेटी होती तो क्या होता? यही हाल अयोध्या को लेकर हुआ। संभव है सुप्रीम कोर्ट कोई व्यवस्था दे ही दे लेकिन हाईकोर्ट ने जो फैसला दिया उसे क्या कहेंगे। उसने तो उस रामलला को भी जमीन देने का आदेश दे दिया जिसका कोई भौतिक अस्तित्व ही नहीं है। रही बात आस्था की तो उसके बारे में कहा जाता है कि उस पर कोई तर्क वितर्क नहीं किया जा सकता, वह अंधी होती है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हाईकोर्ट में जितने भी पक्ष गए थे उनमें से किसी ने बटवारे की अपील नहीं की थी, सभी मालिकाना हक के लिए गए थे और हाईकोर्ट ने सभी को कुछ न कुछ देने का आदेश दे दिया। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फैसले पर भी बहुतायत आस्थावान बेहद खुश थे। यहीं यह सवाल उठता है कि हमारे देश की जनता लोकतंत्र और न्याय जैसे शब्दों और इन अवधारणाओं के बारे में कितना कुछ जानती-समझती है और जिस देश के लोगों की समझ इस तरह की हो उस देश के लोकतंत्र के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
आज ही कुछ बातें दिमाग में चल रही थीं। पहले भी चल रही थीं। कनिमोझी की गिरफ्तारी के बाद करुणानिधि बहुत द्रवित हुए। करुणानिधि कनिमोझी के पिता हैं। पूछने पर उन्होंने कहा कि अगर आपकी बेटी के साथ ऐसा होता तब जो आपको जैसा महसूस होता वैसा ही मुझे हो रहा है। मेरे दिमाग में एक सवाल उठा कि क्या करुणानिधि ने कभी यह भी सोचा कि जो उनकी बेटी नहीं हैं वे भी किसी की बेटी हैं। तमिलनाडु विधानसभा और लोकसभा में द्रमुक सदस्यों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि करुणानिधि का पूरा खानदान (कुछ को छोड़कर) वहां मौजूद है। मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्री तक उनके परिवार से हैं। वे इस लायक हैं तो उन्हें भी विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री, मंत्री बनना और बनाया ही जाना चाहिए तब भी पूरा खानदान सत्ता में होना कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। अब लोग कहते ही हैं कि आप भी चुनाव लड़ो और जीतो, कौन रोकता है। अवश्य कोई नहीं रोकता तो क्या इससे तय हो जाता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अब एक बार फिर हम इस पर खुश हो सकते हैं कि जो गलत करेगा उसे जनता पांच साल बाद सत्ता से बाहर कर देगी, जनता ने कर भी दिया। लेकिन हुआ क्या? यही न कि करुणानिधि की जगह जयललिता आ गईं वही जयललिता जिसे पिछले चुनाव में जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया था। तमिलनाडु में यही क्रम चल रहा है। जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। इन्हीं में से चुनना है। कहते हैं तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार ने काफी भ्रष्टाचार किया है। कुछ लोग कहते हैं परिवारवाद से जनता आजिज आ चुकी थी। जयललिता के साथ परिवारवाद की बात तो नहीं की जा सकती लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में जयललिता और करुणानिधि में जैसे आगे निकलने की प्रतिद्वंद्विता है कि कौन किससे बड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में वह भी भ्रष्टाचार के कारण ही हारी थीं। इस बार करुणानिधि हार गए। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अगले विधानसभा चुनाव में करुणानिध की पार्टी फिर चुनाव जीत जाए और कोई स्टालिन मुख्यमंत्री बन जाएं। यही है हमारा लोकतंत्र, महान लोकतंत्र।
संभव है कनिमोझी निर्दोष हों और उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया हो। बाद में लालू और आडवाणी की तरह वे भी बरी हो जाएं। तब भी कुछ सवाल तो उठते ही हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो किसी को भी समय-समय पर फर्जी तरीके से फंसाते और छुड़ाते रहते हैं। अगर इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई है तो हमें अपने लोकतंत्र के बारे में क्या नए तरीके से सोचने समझने की जरूरत नहीं है। इस पर भी कुछ लोगों का यह कहना होता है कि अब दुनिया एकदम से पाक साफ नहीं हो सकती। अभी कुछ दिनों पहले जब बिहार में नीतीश कुमार भारी बहुमत के साथ चुनाव जीते थे तब भी एक सहकर्मी से बात हो रही थी। उसका कहना था कि बिहार अपराध मुक्त हो गया है और सारे अपराधी जेल में जा चुके हैं। अब वहां बड़ी शांति है। मेरा कहना था ऐसा नहीं है। कुछ कमी जरूर आई है और कुछ अपराधी भी जेल में हैं पर बहुत कुछ अभी भी वैसा ही चल रहा है। अभी भी वहां अपहरण हो रहे हैं। यह अलग बात है कि अब उन्हें उस तरह नहीं प्रचारित नहीं किया जा रहा है जैसे लालू के आसन्न पराभव के समय में किया जा रहा था। लोगों को यह भूलना नहीं चाहिए कि अभी उन्हीं के एक मंत्री को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा है कि समाचार माध्यमों ने बताया कि उक्त मंत्री भगोड़ा घोषित है। अब जरा अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के बारे में अंदाजा लगाइए कि जो व्यक्ति पूरे प्रदेश को अपराधमुक्त होने का दावा कर रहा है उसका एक मंत्री भगोड़ा घोषित है। यह भी ध्यान में रखिए कि एक दूसरे मंत्री पर भी इसी तरह की तलवार लटकने वाली है।
कनिमोझी के बारे में ही अगर एक-दो महीने पहले के अखबारों को पलटिए अथवा याद करिए तो पता चलेगा कि उनकी गिरफ्तारी अभी नहीं होगी, कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के बाद होगी। हुआ भी वही। इसके पहले भी यह सवाल किसी के भी दिमाग में आना चाहिए कि जिस कलिगनार टीवी को लेकर इतना सब कुछ हो रहा है उसके पास पैसा कहां से आ रहा है इसकी जानकारी तो पहले से ही होनी चाहिए थी। पर किसको फुरसत है। जिसे जानकारी होनी चाहिए वह तो आंख मूंदे बैठा रहता है क्योंकि उसे तब तक कुछ भी देखना-सुनना नहीं है जब तक उससे कहा न जाए। आप जरा याद करिए कलमाडी के बारे में। कामनवेल्थ गेम के दौरान भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया लगातार खबरें दे रहा था और विपक्षी पार्टियां आवाज उठा रही थीं तब सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने कुछ इस तरह कहा था कि अभी खेल हो जाने दीजिए। यह देश की इज्जत का सवाल है। खेल समाप्त होते ही सबको देख लिया जाएगा। किसी भ्रष्टाचारी को बख्शा नहीं जाएगा। यानि, खेल के नाम पर भ्रष्टाचार का खुला होने दीजिए। सवाल उठता है कि अगर पता है कि भ्रष्टाचार हो रहा है तो उसे रोका जाना चाहिए। नहीं, उसे खुलेआम होने दिया जा रहा था बल्कि उसकी पूरी छूट दी गई थी। कामनवेल्थ गेम खत्म होने के बाद भी इसकी पूरी छूट दी गई कि अपने बचाव में जो कुछ करना हो कलमाडी कर लें, उसके बाद ही उनको गिरफ्तार किया गया। ए राजा को याद करिए। यूपीए के पहले कार्यकाल में भी ए राजा पर भ्रष्टाचार और अडियलपन के कम आरोप नहीं लगे थे पर उनका कोई बाल बांका नहीं हुआ। दूसरे कार्यकाल के बारे में यहां तक प्रचारित किया जा रहा था कि मनमोहन सिंह नहीं चाहते कि उन्हें मंत्रिमंडल में रखा जाए। इसके बावजूद वे मंत्री बने और करोड़ों का भ्रष्टाचार हुआ। विपक्षी पार्टियां उन्हें हटाने की मांग करती रहीं और राजा भ्रष्टाचार करते रहे। सब कुछ हो जाने के बाद अब वे जेल में हैं। करुणानिधि उनके बारे में भी कह रहे थे कि वे निर्दोष हैं। संभव है वे भी बरी हो जाएं। हमारा महान लोकतंत्र जो है जो ऐसे ही लोगों के लिए है, उन लोगों के लिए नहीं जो कमजोर हैं।
अभी हमारे लोकतंत्र ने हमें खुश होने के लिए पश्चिम बंगाल ने बहुत बड़ा मौका दिया है। ३४ साल के लोकतांत्रिक शासन में लोकतांत्रिक बदलाव। एक इतिहास जिसे संसदीय व्यवस्था में विश्वास रखने वाली किसी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे ने रचा। यह दुनिया के पैमाने पर है। जब टीवी पर वहां के लोगों के परिवर्तन की इच्छा और उसे हकीकत बनते देख रहा था तो अच्छा लग रहा था। यह हमारे लोकतंत्र का नतीजा है। कोई पार्टी अथवा मोर्चा लगातार ३४ साल तक शासन कर सकता है। जिस दिन ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनी थी उस दिन टीवी वालों ने एक खबर निकाली और पूरे दिन बड़े उत्साह से चिल्ला-चिल्लाकर बताया कि यह वही ममता हैं जिन्हें कभी ज्योति बसु ने राइटर्स बिल्डिंग में घुसने नहीं दिया था। तब ममता ने प्रतिज्ञा की थी कि और आज वह पूरी हो रही है। हमारे लोकतंत्र में प्रतिज्ञा का क्या मतलब है मुझे नहीं मालूम पर लोकतंत्र की मूलभूत अवस्थापनाओं के बारे में जरूर जानता हूं। उनमें यह नहीं आता कि कोई राजनीतिक कार्यकर्ता किसी नेता की कार के ऊपर चढ़कर नृत्य करे। अगर टीवी वाले अपने दर्शकों को यह भी बता पाते तो कितना अच्छा होता लेकिन वे ऐसा नहीं करते, नहीं कर सकते क्योंकि किसी भी सत्ताधारी में उन्हें बुराई नहीं नजर आती। वे तो सिर्फ महिमामंडन ही जानते हैं। यह वही ममता बनर्जी हैं जिन्होंने कभी जयप्रकाश नारायण की कार के ऊपर तब चढ़कर नृत्य किया था जब जयप्रकाश नारायण इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन के क्रम में पश्चिम बंगाल गए थे। कहा जा सकता है कि तब किसी ज्यादा लोकतंत्र समर्थक पर यह एक हमले जैसा था। तब ममता युवक कांग्रेस नेता हुआ करती थीं। जिस बदलाव के लिए ममता आज पश्चिम बंगाल में लड़ रही थीं उससे कहीं ज्यादा अच्छे बदलाव के लिए तब जयप्रकाश नारायण पूरे देश में लड़ रहे थे। बात यहीं आकर रुक जाती तो भी गनीमत मान ली जाती। बताया जाता है कि १९९८ में महिला आरक्षण विधेयक को लेकर चल रहे विवाद में उन्होंने सपा सांसद दारोगा प्रसाद सरोज का कालर पकड़ लिया था। यह भी कहा जाता है कि कुछ इसी तरह का व्यवहार उन्होंने १९९७ में सपा नेता अमर सिंह के साथ भी किया था। अगर यह सब सच है तो यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं कही जा सकती। जब हमारे जनप्रतिनिधि इस तरह के होंगे तो लोकतंत्र कैसा होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यह भूलिएगा नहीं कि पश्चिम बंगाल में चुनाव समाप्त होने और तृणमूल कांग्रेस की जीत के तुरंत बाद राजनीतिक हिंसा का दौर शुरू हो गया था।
दरअसल, हमारे देश की आम जनता यह सब सहने-झेलने के लिए मजबूर है और वह भी हमारे महान लोकतंत्र के नाम पर। हम इसी से खुश हैं कि पांच या ३४ साल में ही सही हम सरकारें बदल सकते हैं और कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो उसे जेल भिजवाया जा सकता है। लेकिन इतना ही काफी नहीं है। इसे मान कर चलिए। जनता पार्टी की सरकार बनना और कांग्रेस का सत्ता से च्युत कर देना, कम्युनिस्ट राज का पश्चिम बंगाल से खात्मा तात्कालिक रूप से खुशी प्रदान कर सकता है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं। इसलिए ऐसी चीजों के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। तभी हमारा लोकतंत्र बच भी सकता है और कोशिश करने पर ज्यादा परिपक्व और मजबूत हो सकता है। कोई यह समझने की गलती न करे हम ७७ में कांग्रेस और ११ में वाममोर्चा शासन के खात्मे से दुखी या परेशान हैं। हम भी दोनों ही परिवर्तन तहेदिल से चाहते थे। लेकिन इसको लेकर ज्यादा संजीदा हैं उसके बाद क्या हुआ अथवा क्या होने वाला है? कोई कह सकता है कि ज्यादा डरने की जरूरत नहीं। हम भी ऐसा ही सोचते हैं पर आने वाले दिन लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छे नहीं दिख रहे हैं, इसे लेकर सचेत रहने की जरूरत है। इससे इनकार के बड़े खतरे हैं। यह ध्यान देकर चलिएगा।
और अंत में ----------आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, आज की रात न फुटपाथ पर नींद आएगी।

Thursday, January 20, 2011

मेरे मित्र कृष्ण सिंह वैज्ञानिक चिंतन और बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। उनके गंभीर विषयों पर लिखे लेखों से बहुत लोग परिचित होंगे पर संभवतः कम लोगों को यह पता होगा कि वे अच्छी कविताएं भी लिखने लगे हैं। उनकी रचनात्मकता के इस रूप को सामने पाकर हर उस परिचित को खुशी होगी जो चाहता होगा कि उनकी रचनात्मकता परवान चढ़े। बहुत अल्प समय के संपर्क के दौरान मैंने उनकी इस कला को समझा और उन्हें इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को सामने लाने के लिए लगातार उकसाता रहा। कह सकते हैं कि हमें (उन्हें भी) इसमें सफलता मिली और एक दिन जब चुपके से यह कविता (शायद औपचारिक रूप से पहली) लिखी और मेरे सामने रखी तो मैं फूला नहीं समाया। कड़वी सच्चाइयों को बेहद सरल तरीके से सामने रखने के बावजूद जितनी गहरी टिप्पणी इस कविता के माध्यम से कृष्ण ने एक चरित्र विशेष पर की है वह काबिलेतारीफ है। मुझे लगा कि इसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि अन्य लोग भी उनकी इस कलात्मकता का रसास्वादन कर सकें। देखिए, पढ़िये और अगर कुछ हो तो बताइए।-------------

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सिस्टम का पुर्जा
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चुप्पी से सिहर उठता है वह
सच बोलता हूं तो पाल लेता है जन्मभर की दुश्मनी
उसके हमशक्ल बैठे हैं अलग-अलग कुर्सियों पर
वह कहीं भी मिल जाता है
बंद कमरे में, गली में, चौराहे पर, राह चलते और भीड़ में
अक्सर पास बैठ हुआ।
अपनी मूर्खता और कमीनेपन का
उसे एहसास है अच्छी तरह
उसकी बातों पर चेले लगाते हैं ठहाके
मौका मिलते ही सुनाने लगता है
अपनी कमीनगी के 'चमत्कृत किस्से।
पर हमेशा रहता है परेशान कि
मैं नहीं मिलाता उसकी हां में हां
जबकि वह चाहता है सब उसके सामने खड़े रहें नतमस्तक
जैसे वह खड़ा रहता है अपने से बड़ी कुर्सी के सामने
जी हां, हां जी, जी हां,
हैं, हैं, हां, हां
अक्सर ऊंची कुर्सी वाले से खाता है खूब गालियां
लेकिन कमरे से निकलते ही
नीचे वालों पर जमाने लगता है रौब
यही सिस्टम है
और वह इस सिस्टम का एक पुर्जा।

कृष्ण सिंह


Sunday, January 2, 2011

दिमाग


आइए देखते हैं, कैसे होता है
बड़ी जिम्मेदारी वाला काम
और कैसे तय होती हैं चीजें
एक अधिकारी ने सहयोगी से कहा
तुमने इसे इतना छोटा क्यों कर दिया
सहयोगी ने कहा, यह इतना ही है
बाकी सब इसी का दोहराव है
अधिकारी ने कहा, जो मैंने कहा वही करो
सहयोगी अपनी बात पर अड़ा और कहा
पहले बताना चाहिए था सिफारिशी है
मैं अपनी ओर से और बड़ा कर देता
अधिकारी ने कहा, छोटा-बड़ा मत करो
जितना मैंने कहा, बस उतना
ही करो
अपना दिमाग लगाने की कोशिश मत करो
इसके बाद अधिकारी खुद से ही बतियाया
बताइए भला, ये सब समझता ही नहीं
आदेश बजाने के बजाय दिमाग लगाता है
हम क्या कभी अपना दिमाग लगाते हैं
?
हम तो सिर्फ वही करते हैं जो कहा जाता है
इसीलिए हम अधिकारी
हैं और तुम कर्मचारी
इस ब्रह्मवाक्य को समझने की कोशिश करो
बच्चा देश ऐसे ही चलता है।

कनाट प्लेस में ३१ दिसंबर २०१० की रात

पिछले साल भी यही हुआ था लेकिन तब दिमाग यहां तक नहीं गया था। इस साल भी न जाता अगर मेरे साथी ने जिद की होती कि आइए चलें दमघोंटू माहौल से बाहर निकल बाहर की खुली हवा में सांस लें। यह जानते हुए भी कि सड़क पर किसी को भी निकलने नहीं दिया जा रहा है। सैकड़ों की तादाद में पुलिसकर्मी किसी भी आने-जाने वाले आम आदमी को लौट जाने की हिदायत दे रहे थे। यह ३१ दिसंबर २०१० की दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस की रात थी। कोई दस बजा रहा होगा जब हम दोनों घुड़सवार पुलिसवालों की धमाचौकड़ी और वज्र वाहनों के बीच से गुजरने की जुर्रत करने की कोशिश कर रहे थे केवल खुली हवा में सांस लेने के लिए पर बाहर तो इमरजेंसी और कर्फ्यू जैसे हालात थे। इसके पहले भी एक बार करीब सात बजे के हम लोग निकले थे आइसक्रीम और पान खाने के लिए। तब देखा था कि दस-दस, बीस-बीस की संख्या में पुलिस वाले किसी भी खोंमचे वाले या आम आदमी को तत्काल कनाट प्लेस छोड़ देने के लिए सख्ती से हिदायतें दे रहे थे और ज्यादा नहीं करीब आधे घंटे के भीतर कनाट प्लेस को खाली करवा लेने में सफल भी रहे थे। रात दस बजे एकदम सन्नाटा। तब इक्कादुक्का लोग आ जा रहे थे और हम लोग भी हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ते रहे। जैसे-जैसे आगे बढ़ते रहे, वैसे-वैसे नए-नए मंजर सामने आने लगे। मैक्डोनाल्ड खुला हुआ था और उसमें काफी भीड़ मौजूद थी, रोडियो में भी जश्न चल रहा था, एक अंग्रेजी नाम वाले रेस्टोरेंट कम बार में तेज आवाज में पाश्चात्य संगीत बाहर तक सुनाई दे रहा था जिससे साफ लग रहा था कि अंदर नए साल का कैसा जश्न मनाया जा रहा है, कैसल लाइन तक पहुंचते-पहुंचते सारा भ्रम दूर हो गया और अचानक महसूस हुआ कि आखिर कर्फ्यू जैसे हालात क्यों पैदा किए गए थे। वैसे तो कहने को इसके पीछे सुरक्षा का कारण बताया गया था और उसके पहले से आतंकी खतरे की आशंका जाहिर की गई थी लेकिन लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इन कुछ पैसे वालों को जश्न मनाने में किसी तरह की दिक्कत न पेश आए, इसलिए आम आदमी को दूर कर दिया गया हो। यह सवाल अपने आप आया कि अगर इन महंगे होटलों में देर रात तक सब कुछ चल सकता है तो गुब्बारे, सरककंदी, पान और आईसक्रीम आदि बेचने वालों को क्योंकर भगा दिया गया। तो क्या यह सब कुछ उन खास लोगों की खुशामदी के लिए किया गया? तो क्या वाकई सुरक्षा व्यवस्था को खतरा खोंमचे वालों और गरीबों से था? इस तरह के सवाल उठते ही हमारे सहकर्मी ने सहज ढंग से बताया कि यह कोई कठिन सवाल नहीं है बल्कि बहुत सामान्य सी बात है कि हमारे उदारवादी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री किसके हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं। उनके लिए गरीबों और आम आदमी का कोई मतलब नहीं है। वह तो इस खाई को लगातार चौड़ी करने में लगातार सफल भी हो रहे हैं। संभव है कि वाकई कोई आतंकी खतरा रहा हो, और अगर ऐसा हो तो उससे निपटने की पुख्ता व्यवस्था की ही जानी चाहिए लेकिन क्या गरीब और आम आदमी को पूरी दुनिया से काटकर ही ऐसा किया जा सकता है? अगर नहीं तो कुछ गिनती के लोगों के ऐशो आराम के लिए ही क्या यह सब किया जाना नैतिक है? नहीं है, पर हो तो यही रहा है। गरीबों के लिए नए साल का क्या मतलब? मतलब तो उनके लिए है जिनके पास अकूत पैसा और अकूत ताकत है। आखिर वही आदमी जो हैं और उन्हें ही है खुश होने का अधिकार है। बड़े-बड़े होटलों में खुशियां मनाने के सारे इंतजाम थे, हमें तो न आइसक्रीम मिली न पान ही मिल सका फिर भी हमें करना पड़ा नए साल का स्वागत क्योंकि यह उनका मौन व्यावसाइक आदेश था कि हमें भी नए साल पर लाख दुखों के बावजूद खुश होन होगा सो होना पड़ा। अच्छे लोगों को तो मुबारकबाद देनी ही थी, उन लोगों को भी देनी पड़ी जिनके प्रति शुभकामना का भाव रखना ही अपने आप में कष्टकारी होना चाहिए।