Thursday, December 2, 2010

नीतीश की जीत का मतलब

गतांक से आगे
बिहार के चुनाव परिणामों को लेकर जो निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं वे एकांगी लगते हैं। निश्चित रूप से लगता है कि कुछ बहुत कुछ अप्रत्याशित और चमत्कारिक है। जितनी ज्यादा सीटें राजग गठबंधन को मिलीं उसका अनुमान कुछेक लोगों को छोड़ दिया जाए तो किसी को नहीं था। एक तरह से विपक्ष का सफाया ही हो गया है। इससे हमारे संसदीय लोकतंत्र को लेकर भी चिंताएं होनी चाहिए थीं कि अगर जनता किसी एक व्यक्ति और पार्टी को इस तरह स्वीकार करने लगेगी तो कैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इसके विपरीत इस पर खुशी का इजहार किया जा रहा है कि विपक्ष का कोरम ही नहीं हो पा रहा है और दोनों की भूमिका नीतीश कुमार को ही निभानी पड़ेगी। जरा सोचिए कि अगर आने वाले चुनावों में (जैसा कि बिहार में इस बार हुआ है) बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को सभी सीटों पर जिता दिया तो क्या होगा। यहीं से इस सवाल पर विचार करने की जरूरत पैदा होती है कि जिस जनादेश की बातें हमारी राजनीतिक पार्टियां और हमारे नेता करते हैं, उसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए। इस संदर्भ में सबसे पहली बात यह है कि राजनीतिक चिंतकों को यह देखना चाहिए कि जनता को राजनीतिक रूप से कितना शिक्षित और प्रशिक्षित किया गया है। हमारा मानना है कि इस दिशा में भारत में रंच मात्र भी काम नहीं हुआ है। इसके विपरीत जनता को राजनीतिक विचारशीलता के लिहाज से काफी पीछे छोड़ दिया गया है। कोई कितना भी कहे कि आम मतदाता चुनाव के परंपरागत मानदंडों (जाति, धर्म, बाहुबल, धनबल और परिवारवाद) आदि से ऊपर अब विकास और अन्य मुद्दों पर अपने नेताओं का चयन करने लगा है, यह बात सहज रूप में गले के नीचे उतरने वाली नहीं लगती। कहा जा सकता है कि आम मतदाता अभी भी इन सबसे ऊपर नहीं उठ पाया है और वह आस्थाओं और अंधविश्वासों के आधार पर ही अपने जनप्रतिनिधियों का चयन कर रहा है। बिहार में इसका उदाहरण साफ देखा जा सकता है।
चुनाव के तरीकों को लेकर लंबे समय से कई तरह के सुझाव और कई शिकायतें आती रही हैं। कुछ तब्दीलियां भी समय-समय पर की गई हैं लेकिन अभी भी बहुत सारे सवाल अनसुलझे हैं। एक बड़ा सवाल यह रह गया है कि अभी भी करीब आधे मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते। इसे एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए लेकिन इसकी लगातार अनदेखी की जा रही है। मतदान आवश्यक करने का भी एक सुझाव आता रहता है पर यह न तो व्यावहारिक लगता है और न ही इसे जबरदस्ती थोपना उचित लगता है। इसके बावजूद यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि आखिर इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है। इस समस्या का समाधान इसलिए जरूरी लगता है कि कई बार बहुत कम लोगों के मतदान करने के बावजूद जनप्रतिनिधियों का चयन हो जाता है जो सार्थक नहीं लगता। इसी तरह प्रत्याशियों और पार्टियों को मिला मत प्रतिशत भी एक सवाल है। कई बार देखा गया है कि कम मत प्रतिशत हासिल करने वाले प्रत्याशी अथवा पार्टी विजयी हो जाती है और ज्यादा मत प्रतिशत वाले पराजित हो जाया करते हैं। इससे प्रत्याशी और पार्टी की जनता के बीच स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता का सही आकलन कर पाना मुश्किल काम होता है। प्रत्याशी चयन में परिवारवाद, बाहुबल, धनबल, जातीय समीकरण आदि भी कई ऐसे सवाल हैं जो अनुत्तरित रह गए हैं। महिलाओं और युवाओं का सवाल भी आजकल चुनाव में काफी उछाला जाता है लेकिन क्या उनका उचित प्रतिनिधित्व हो पा रहा है। बिहार के चुनाव के संदर्भ में भी इन सबको ध्यान में रखकर ही उचित विश्लेषण किया जा सकता है लेकिन बहुत कम लोगों के इसके मद्देनजर चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया है। माना जा रहा है कि बिहार में महिलाओं ने काफी बढ़ चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया और उनमें बहुतायत ने राजग के पक्ष में वोट दिया। इसके पीछे अन्य कारणों के अलावा महिला आरक्षण के सवाल पर नीतीश कुमार के दृष्टिकोण को भी माना जा रहा है। यहां पहला सवाल यह उठता है कि क्या उन्होंने अपनी सोच के मुताबिक प्रत्याशी चयन में महिलाओं को उनके अनुपात में टिकट दिया। इसका जवाब न में ही मिलेगा। कहा जा सकता है कि चुनाव जीतने के लिए लड़ा जाता है और इसीलिए प्रत्याशी भी जीतने वाले ही उतारे जाते हैं पर क्या इससे लगता नहीं कि विचार और व्यवहार में बुनियादी अंतर है। अगर हम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की वकालत करते हैं तो पार्टियों में इसे क्यों नहीं लागू किया जा सकता। अगर ऐसा नहीं किया जा रहा है तो समझिए कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। नीतीश कुमार ने भी वोटों की खातिर पार्टी लाइन के विपरीत लाइन ली। जब संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर बहस चल रही थी तब वह बिहार में अपने अध्यक्ष शरद यादव के खिलाफ खड़े थे। इसे ही दोतरफा राजनीति कहते हैं। यही हाल उनका सांप्रदायिकता के सवाल पर भी रहा है। खुद को लोकनायक जयप्रकाश नारायण का असली वारिस कहलाना पसंद करने वाले नीतीश ने उसे पार्टी के साथ गठबंधन कर रखा है जिसे पूरे देश में सांप्रदायिक पार्टी के रूप में जाना जाता है। ऐसे में उसके एक नेता या कहें एक राज्य के मुख्यमंत्री के विरोध का क्या मतलब निकाला जाना चाहिए। क्या इसे सिर्फ इस रूप में नहीं लिया जाना चाहिए कि वोट और सत्ता की खातिर नीतीश कुमार वह सब कुछ करने तो तैयार नहीं हैं जो अनुचित है। यही हाल बाहुबल और जातीयता को लेकर भी रहा है। सत्ता की खातिर ही ऐसे लोगों को जदयू द्वारा टिकट दिया गया जिन्हें दागी के रूप में बिहार में जाना और पहचाना जाता है। जातीय समीकरण को भी पूरी तरह अंगीकार किया गया तो सिर्फ इसीलिए कि चुनाव एन केन प्रकारेण जीतना है। बिहार के चुनाव में भी इन सब को अच्छी तरह आजमाया गया और चुनाव जीतने के लिए वे सारे हथकंडे अपनाए गए जो किसी भी चुनाव में हर राजनीतिक पार्टी द्वारा अपनाए जाते हैं। पूरे पांच साल तक अन्य कार्यों के अलावा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अन्य लोकप्रियता प्रदान करने वाले कार्यों के अलावा जिस बात पर सर्वाधिक ध्यान दिया वह यह कि कैसे अगला चुनाव जीता जा सकता है। इसके लिए जातीय समीकरण साधने के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (जिसे वह खुद उचित नहीं मानते) करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अतिपिछड़ा और महादलित के नाम पर जातीयता को और मजबूत करने तथा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार के लिए न आने के उनके चुनावी तरीकों को इसी रूप मे देखा जाना चाहिए।
इस सब के बीच चुनाव जीतना एक बात है लेकिन असलियत तो सामने आ ही जाती है भले ही जनता इस सब को बिना ध्यान दिए किसी को भी सत्ता सौंप दे। यहीं से यह सवाल एक बार फिर मजबूती से खड़ा हो जाता है कि अगर मतदाता राजनीतिक रूप से जागरूक और परिपक्व हो तो ऐसा कतई नहीं कर सकता। शायद इसीलिए जो लोग विभिन्न कारणों से चुनाव का बहिष्कार करते हैं अथवा अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते उनमें से बहुतायत की यही धारणा होती है कि अगर इन्हीं में से एक को चुनना है तो बेहतर अपना वोट किसी को न दिया जाए। इसी तरह जो लोग वोट करने जाते हैं उनमें यह तर्क काम करता है जो प्रदत्त परिस्थितियों में जो बेहतर बता दिया जाता है उसे वे वोट दे देते हैं। नीतीश कुमार भी प्रदत्त परिस्थितियों में बेहतर विकल्प थे, सो मतदाताओं ने उन्हें वोट दिया होगा लेकिन जिस विकास और सुशासन के नाम पर उन्हें इस तरह का भारी बहुमत मिला है वह विकास और सुशासन ऊपरी दिखावा ज्यादा लगता है। बल्कि इस तरह कहा जाए कि इसका प्रचार ज्यादा किया गया है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि अगर यह दोनों चीजें बिहार में नीतीश कुमार कुमार के गठबंधन को उनके नाम पर इतनी ज्यादा सीटें दिला सकती हैं तो गुजरात में नरेंद्र मोदी को क्यों नहीं दिला सकीं। गुजरात तो पूरी दुनिया में इस बात के लिए प्रसिद्धि पा चुका है कि वह एक विकसित राज्य है और इसका श्रेय भाजपा नरेंद्र मोदी को देती है, इसके बावजूद वहां का मतदाता मोदी को जिताता जरूर है लेकिन इतनी तादाद में सीटें नहीं देता जितनी बिहार में नीतीश कुमार को देता है। यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि मोदी विकास के लिए उतना नहीं जाने जाते जितना वह गोधरा के कारण पूरी दुनिया में ख्यातिलब्ध हैं। यहीं से यह सवाल भी उठता है कि क्या इन दोनों राज्यों में और पूरे देश में विपक्ष नाम की कोई चीज रह गई है अथवा विपक्ष की असली भूमिका कोई पार्टी निभा रही है। कहना होगा नहीं क्योंकि गठबंधन राजनीति के इस दौर में हर स्तरीय पार्टी कहीं न कहीं सत्ता में है अथवा रह चुकी है या आशान्वित है कि उसे सत्ता मिल जाएगी। संभवतः कहीं न कहीं पार्टियों और नेताओं में यह धारणा भी बन गई है कि सत्ता के लिए सिर्फ बहुमत जरूरी नहीं है। झारखंड हाल का ऐसा सबसे बड़ा उदाहरण है जहां ऐसी सरकार बन गई है जिसकी कोई संभावना नहीं लग रही थी। इससे यह स्पष्ट है कि सत्ता अन्य कारणों की बदौलत भी हासिल की जा सकती है। तब क्या जरूरत है किसी का विरोध करने अथवा आंदोलन आदि करने की क्योंकि उसमें तो लाठियां भी खानी पड़ सकती है और जेल भी जाना पड़ सकता है। भूख हड़ताल भी करनी पड़ सकती है। जब जनता बिना यह सब किए ही सत्ता का स्वाद चखा सकती है तो क्या जरूरत है यह सब करने की। क्या कोई यह बता सकता है कि जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के नारे और इमर्जेंसी के खिलाफ चलाए गए संघर्षों के बाद कोई यह बता सकता है कि इस देश में कोई राजनीतिक आंदोलन हुआ है। अगर नहीं तो इससे कम से कम दो चीजें साफ होती हैं कि आज या तो देश में ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है जिसके खिलाफ आंदोलन चलाने की जरूरत है या फिर जब सत्ता ऐसे ही मिल जानी है तो क्या जरूरत है यह सब कुछ करने की। जरा सोचिए अगर बिहार और गुजरात में विपक्षी पार्टियों ने अपनी भूमिका निभाई होती तो जरूर परिस्थितियां कुछ भिन्न होतीं। उत्तर प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव इस बात है उदाहरण रहा है कि मायावती ने मुलायम सरकार के खिलाफ काफी हद तक संघर्ष चलाया था जिससे वहां के मतदाताओं में एक उम्मीद जगी थी कि मायावती ही अपराधियों से लड़ सकती हैं और उन्हें मतदाताओं ने वोट किया था। यह अलग बात है कि आज एक बार फिर उत्तर प्रदेश में कमोबेश उसी तरह के हालात हैं जैसे मुलायम से शासन के दौरान थे। बिहार में भी यह नीतीश कुमार ही थे जिन्होंने लालू यादव के कुशासन के खिलाफ संघर्ष किया था और उसका फल उन्हें पिछले चुनाव में मिला था। लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में मुख्यधारा की पार्टियों कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने जनता के पक्ष में कुछ भी नहीं किया और उसका खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ रहा है। देश की आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस तो वैसे भी मतदाताओं को अपना कर्जदार मानती है और यह तय मानकर चलती है कि मतदाता उसे पंडित जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी के नाम पर वैसे ही जिता देगी। वह यह भूल जाती है कि दुनिया अब काफी आगे निकल चुकी है और उसका भी अब वह जमाना नहीं रह गया जो कभी हुआ करता था। लेकिन हेकड़ी है कि जाती नहीं। बिहार चुनाव में भी कांग्रेसी यह मानकर चल रहे थे कि उन्हें तो राहुल गांधी को भोली छवि देखकर मतदाता वोट कर देगा पर न ऐसा होना था न हुआ। इसी तरह के व्यामोह में वे कम्युनिस्ट भी फंसे रह गए कि जनता उन्हें इसलिए वोट कर देगी क्योंकि उन्होंने अतीत में बड़े आंदोलन चलाए हैं। वे यह समझ ही नहीं पाते कि अगर मतदाता को राजनीतिक रूप से तैयार नहीं करेंगे तो जूलूसों और सभाओं में तो जा सकते हैं लेकिन वोट भी कर देंगे, ऐसा नहीं होगा।
जब आप उनके लिए कुछ करोगे ही नहीं तो आपको सिर्फ इसलिए वोट नहीं कर देंगे कि कभी आप उनके लिए लड़े थे। इसी बिहार में कभी भाकपा माले की करीब दस सीटें हुआ करती थीं। भाकपा और माकपा भी वहां एक मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप मे जानी जाती थीं लेकिन धीरे-धीरे उनका इस कदर ह्रास हुआ कि यह दोनों पार्टियां तो सिरे से गायब ही हो गई थीं, इस चुनाव में भाकपा माले का भी पूरी तरह सफाया हो गया जबकि कुछ लोग (यह पार्टियां भी) यह मानकर चल रहे थे कि लंबे समय बाद तीनों पार्टियों के मिलकर चुनाव लड़ने का कुछ फायदा इन्हें अवश्य मिल सकेगा पर परिणाम आने के बाद इनकी असलियत भी सामने आ गई। पता नहीं कैसे भाकपा को एक सीट मिल गई। यहां इसका उल्लेख भी जरूरी है कि भाकपा माले की संसदीय राजनीति का एक उदाहरण तब भी सामने आया था जब उसके कई विधायकों को लालू यादव ने तोड़ लिया था। यहां बसपा की उस सोशल इंजीनियरिंग की पोल भी खुल गई जिसकी उत्तर प्रदेश के चुनावों के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने बड़ी तारीफ की थी। वह सोशल इंजीनियरिंग बिहार में काम नहीं आई और वहां नीतीश की विकास इंजीनियरिंग काम कर गई। अब वही राजनीतिक विश्लेषक नीतीश की राजनीति के कसीदे पढ़ने में जुट गए हैं। वे राजनीतिक असलियत से पता नहीं क्यों इतनी जल्दी परदा कर लेते हैं। वे हर किसी सत्ताधारी का इस कदर गुणगान करने लग जाते हैं जैसे उसने उन पर कोई जादू कर दिया हो। जैसे बिहार में चुनाव परिणाम आने के साथ ही यह कहा जाने लगा है कि मतदाता अब जात पांत से ऊपर उठ चुका है। अब विकास की जरूरत है। इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा आदि न जाने क्या-क्या? उत्तर प्रदेश में बसपा को मिले बहुमत के बाद और फिर कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के बाद गठबंधन और एक पार्टी की सरकार को लेकर भविष्यवाणियां की जाने लगीं। अब एक बार फिर यह कहा जाने लगा है कि बिहार के परिणाम का व्यापक प्रभाव केंद्र की राजनीति पर भी पड़ेगा। मुझे लगता है कि इस तरह के निष्कर्ष निकालना बहुत जल्दबाजी होगी। बहुत फूल कर गुप्पा होने की जरूरत नहीं है। जरा याद करिए जब लालू यादव की सरकार बनी थी तब भी लोग उनका बहुत गुणगान करते थे । लालू के रेल मंत्री रहते हुए उनके रेल मंत्रालय के काम की पूरी दुनिया में कितनी सराहना की गई थी। मीडिया और राजनीतिक विश्वेषक भी तारीफ के पुल बांध रहे थे। बिल गेट्स तक लालू से पढ़ने का लालायित थे। मेरा यह मानना है कि जब किसी को सब कुछ सकारात्मक दिखने लगे तो समझिए कुछ गड़बड़ है। मनमोहन सिंह की भी लोग कोई कम तारीफ नहीं करते थे। लेकिन देखिए करीब छह साल में क्या-क्या सामने आने लगा है। मुझे याद है जब मीडिया में पहली इस तरह का विचार सामने आया था कि अब लोग नकारात्मक खबरें नहीं पढ़ना और देखना चाहते तभी मुझे यह शक हुआ था कि इस सकारात्मकता में सारी नकारात्मकता को छिपाने की कोशिश तो नहीं हो रही है। अब फिर यह खतरा बढ़ने लगा है। इसीलिए मेरा कहना है कि बिहार को लेकर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। कोई एक व्यक्ति पूरी व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकता। वह कुछ लोकलुभावन जरूर कर सकता है बुनियादी तौर पर कोई बदलाव नहीं ला सकता। बिहार में भी कोई बुनियादी बदलाव नहीं हो गया है पांच साल में और यह भी मानकर चलिए कि अगले पांच साल में आम लोगों का जीवन कोई सुखमय नहीं होने जा रहा है। जरूरत व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की है बिना इसके चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन लोगों का मोहभंग भी बहुत जल्द होता है। देखना यह होगा कि लालू ने करीब पंद्रह साल लगाया, नीतीश कितने साल लगाते हैं?

नीतीश की जीत का मतलब

पहले (चुनाव के दौरान) लगता था विकास का मतलब सड़कें बनना होता है। अगर कुछ सड़कें बन गई हैं तो समझिए विकास हो चुका है। चुनाव माने बिहार विधानसभा का चुनाव। जिस दिन मतदान का छठां यानि अंतिम चरण बीता, उसके अगले दिन घूम-घूमकर बतियाने वाले एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने विकास की नई परिभाषा गढ़ दी जिसे पढ़-सुनकर कोई भी तर्कहीन व्यक्ति मंत्रमुग्ध हुए बिना रही सकेगा। उन्होंने गीता की तरह का उपदेश दिया कि अगर किसी देशकाल को समझना है तो सड़क मार्ग से होकर गुजरिए और उन्होंने गुजरते हुए देखा कि बिहार की सड़कों के दोनों ओर अंडरगार्मेंट्स के विज्ञापन काफी तादाद में दिख जाएंगे। वे इस तथ्य को नए सिरे से स्थापित कर रहे थे कि बिहार का काफी विकास हो चुका है। यह और इसी तरह के कितने ही पत्रकार वह चाहे टीवी के हों अथवा प्रिंट के पिछले करीब पांच साल से यह बताते थक नहीं रहे थे कि बिहार काफी विकास करता जा रहा है। ऐसा कहते-बताते हुए वे रस, छंद अलंकार, संधि और समास समेत अभिधा, लक्षणा और व्यंजना कुछ भी छोड़ नहीं रहे थे। इसे सरल शब्दों में कहें तो ऐसा लगता था कि वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गुणगान में कलम तोड़ दे रहे थे। टीवी वाले भी कुछ ऐसा ही अपनी भाषा में तो़ड रहे थे। अब तो जनादेश ने भी साबित कर दिया कि वाकई बिहार विकसित हो चुका है और जो कुछ बच गया था वह अब चुटकियों का काम रह गया है। मुझे पता नहीं क्यों हमेशा यह सवाल उद्वेलित करता रहता है कि जहां एकतरफा सोच काम करती है वहां जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ होता है। बिहार और वहां के शासन-प्रशासन को लेकर भी यह लगता रहता था कि आखिर ऐसा क्या हो गया है बिहार में कुछ खराब दिखता ही नहीं। तब लगता है कि बिहार को देखने वाले शायद असली गांधीवादी हो गए हैं कि न बुरा देखना है, न बुरा सुनना है और न बुरा कहना है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि बिहार और वहां के नेता पूरे देश से अलग कैसे हो गए। वहां के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने में तो कोई बुनियादी बदलाव आया था और नेताओं में भी कोई किसी दूसरे लोक से तो नहीं टपका था।
क्रमशः

Tuesday, November 9, 2010

तालियां और खुश

प्रतीकात्मक ही सही, लेकिन जब देश की राजधानी और कई अन्य जगहों पर प्रदर्शन और धरने हो रहे थे ठीक उसी समय हमारी संसद में तालियां गड़गड़ा रही थीं। हमारे सांसद अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की हर बात पर ऐसे ताली बजा रहे थे जैसे उन्हें यह कहकर ही बुलाया गया था कि जैसे ही एक वाक्य खत्म हो, जोरदार तालियां बजाइएगा और तहेदिल से शुक्रिया अदा कीजिएगा। यह मानना अतिशयोक्ति होगी कि ऐसा कर शायद ओबामा का किसी महानायक की तरह स्वागत किया जा रहा था लेकिन इसमें किसी तरह की कोरकसर नहीं छोड़ी गई। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी व सुषमा स्वराज के अलावा शायद ही कोई ऐसा मान रहा होगा पर लगता है कि अभिभूत तो कम से कम सभी थे । पर यह सवाल अपनी जगह रह गया कि क्या कोई अमेरिकी राष्ट्रपति भारत का महानायक हो सकता है। वैसे किसी भी अतिथि का स्वागत होना ही चाहिए। ओबामा हमारे अतिथि से, इसलिए हमने भारतीय परंपरा का निर्वाह किया, ठीक किया। लेकिन ओबामा ने हमारे लिए ऐसा कुछ नहीं किया या कहा जिससे हम इतने आह्लालादित हो जाएं कि लगातार तालियां बजाते रहें। गांधी की ओबामा ने तारीफ की तो इसमें क्या। गांधी तो दुनिया के महानतम नेता रहे हैं। भला कौन ऐसा राजनीतिज्ञ होगा जो गांधी को नहीं मानेगा? यही बात सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता को लेकर है। अमेरिका ने शायद कभी इसका उल्लेखनीय विरोध नहीं किया। यहां भी वे यह तो कहते नहीं कि हम विरोध करेंगे। यह भी उल्लेखनीय है कि उसके अभी समर्थन करने से कोई भारत को यह मिलने नहीं जा रही है और जब मौका आएगा तब अमेरिका क्या करेगा, इसमें अभी कई पेंचोखम हैं। यही हाल आतंकवाद और पाकिस्तान को लेकर भी रहा। ओबामा के वक्तव्य पर ध्यान देना चाहिए कि उन्होंने कहा कि हम पाकिस्तान के साथ मिलकर आतंकवाद का खात्मा करेंगे। हम इसे सुनकर खुश हो सकते हैं लेकिन जरा सोचिए यह कितनी हास्यास्पद बात है कि जो (दुनिया जानती है ) पाकिस्तान आतंकवाद को पोस रहा है उसी के साथ मिलकर ओबामा आतंकवाद का खात्मा करने की बात कर गए और हम तालियां बजाते रहे। आउटसोर्सिंग पर भी उन्होंने केवल खुश करने वाली बात की। इस बारे में सच्चाई तो उन्होंने अमेरिका में ही कही थी और वही कर रहे हैं। इसके विपरीत वह आए और हमारे यहां से अपने यहां नौकरियां लेकर चले गए। हम इस पर भी मंत्रमुग्ध होते रहे कि ओबामा ने हमें विकसित देश माना और हमारे साथ बराबरी पर बात की। भारत अगर विकसित देश बन गया है या बन रहा है तो इसमें अमेरिका की क्या भूमिका रही है। अगर ऐसा है तो भारत अपने बल पर है। अमेरिका की यह मजबूरी है कि अब वह भारत को पहले की तरह नहीं हांक सकता। यह अलग बात है कि सब कुछ वैसा ही नहीं रहा जैसा माना और बताया जा रहा है।

क्रमशः

Monday, November 8, 2010

्ट ओबामा की भारत यात्रा

ऐसे समय जब वैचारिक क्षुद्रता बढ़ती जा रही हो और गंभीर तथा वैज्ञानिक चिंतन का सर्वथा संकट दिख रहा हो, तब बैठक की बैठकों में समसामयिक विषयों पर हो रही विचारोत्तेजक बहसें चीजों को बेहतर तरीके से समझने के लिए किसी के लिए भी मददगार हो सकती हैं। हाल के समय में प्रायः यह माना जाने लगा है कि अब किसी विषय पर समग्र रूप से चिंतन-मनन वाले मंच बहुत कम बचे हैं। कभी ऐसा दौर हुआ करता था जब राजनीतिक और सामाजिक संगठन इस काम को किया करते थे और उसका प्रभाव भी समाज और देश पर दिखाई पड़ता था। तमाम राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन इसके उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा आज के दौर में यह काम कोई नहीं कर रहा है। इसके उलट अब तो चीजों को गड्ड मड्ड करने की जैसे सुनियोजित कोशिश की जा रही है। बुराइयों को महिमामंडित करने और समस्याओं को उलझाने की सायास प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे वक्त इस बात की बेहद जरूरत है कि किसी विषय पर समग्र रूप से और मानवीय दृष्टिकोण के साथ विचार-विमर्श किया जाए। यह भी इसके लिए हमेशा उन कुछ लोगों की तरफ ही न देखने को मजबूर रहा जाए जो अपने विषयों के प्रकांड पंडित माने जाते हैं बल्कि खुद के उन अपनों से भी कुछ सीखने समझने की कोशिश की जानी चाहिए कहीं ज्यादा बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से सोचते हैं और जिनकी सोच देश और समाज के लिए ज्यादा अहमियत हो सकती है। कहना होगा कि यह काम अपने छोटे से प्रयास में बैठक की ओर से बेहद संजीदगी के साथ किया जा रहा है। कश्मीर समस्या और अयोध्या मामले पर हुई इसकी पिछली दो गोष्ठियां किसी के लिए भी उत्साहित करने वाली हो सकती होंगी जिन्होंने इसमें शिरकत होगी या इसकी रिपोर्ट जिसने पढ़ी होगी। हमें यह बताते हुए अच्छा लग रहा है कि यह एक गंभीर और सकारात्मक प्रयास है जिससे हर उस व्यक्ति को लाभ होगा जो किसी विषय को समग्र रूप से जानना-समझना चाहता होगा।
इसी क्रम में रविवार सात नवंबर को कृष्ण भवन में बैठक की गोष्ठी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा पर संगोष्ठी हुई जिसमें विभिन्न वक्ताओं ने अनेकानेक पक्षों पर भारत-अमेरिका संबधों पर विस्तार से बातचीत की। शुरुआत विनोद वर्मा ने की। उन्होंने बिल क्लिंटन और जार्ज बुश की यात्रा के संदर्भ में कहा कि बराक ओबामा के भारत आने पर उस तरह का उत्साह यहां के लोगों में नहीं दिखाई दे रहा है जैसा पूर्व में आए दोनों अमेरिकी राष्ट्रपतियों के आने के समय दिखा था और इसके पीछे शायद सबसे बड़ा कारण उनका अश्वेत होना है। उन्होंने इसका जिक्र भी किया कि कैसे बुश को छूने के लिए कई सांसद तक बिछे पड़ रहे थे। उन्होंने उस हार का जिक्र भी किया जो ओबामा अमेरिका में हुए चुनाव में झेल कर ओबामा यहां आए हैं। लेकिन उन्होंने भारत की इस मामले में तारीफ की कि अब वह अपनी आर्थिक कमजोरियों से लगातार उबर रहा है और यह पहला मौका है जब अमेरिका के साथ बराबरी के साथ खड़ा होने की स्थिति में आ रहा है। ओबामा के साथ सौदे भी बराबरी के स्तर पर किए गए। ऐसा तब है जब अमेरिका गंभीर आर्थिक मंदी को झेल चुका है और हमारी अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत होती जा रही है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इससे पहले तक अमेरिका भारत को छोटे भाई की तरह मानता रहा है। उन्होंने हालांकि इसकी आलोचना की कि ओबामा ने मुंबई में आतंकवाद और हेडली पर स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा। इसी तरह कश्मीर पर ढुलमुल रवैया अख्तियार किया। थोड़ा विस्तार में जाते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका लाचार की तरह भारत आया है कि हमें बाजार दो। इसके बावजूद हमारी मानसिकता अभी भी याचक जैसी ही दिखती है। हम सब्सिडी उसी के कहने पर अपने यहां खत्म करते जा रहे हैं जबकि इसके उलट अमेरिका में ओबामा इसे जारी रखे हुए हैं। हम अपनी वर्कफोर्स वापस करने की स्थिति में नहीं जबकि ओबामा आउटसोर्सिंग खत्म करने पर तुले हुए हैं।
इसके बाद चर्चा को आगे बढ़ाया सुदीप ने। उनका कहना था कि ओबामा एक व्यापारी की तरह निकले हैं। इसीलिए उन स्थानों को चुना है जहां उन्हें व्यापार की संभावनाएं दिख रही हैं। लेकिन वह पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं। इसका भी एक खास संदेश है। संभवतः इस मामले पर ओबामा साफ हैं कि वे केवल अमेरिका के लिए निकले हैं। वे अपने यहां रोजगार बढ़ाना चाहते हैं। अब यह भारत को देखना था कि वह अमेरिका और ओबामा की कमजोरियों को कैसे अपने पक्ष में भुना सकते थे जो करने में भारत असफल रहा है। भारत अपनी शर्तों पर अमेरिका के साथ सौदेबाजी कर सकता था जो वह नहीं कर पाया।
शंभू भद्रा का कहना था कि यह पूरी तरह कारोबारी यात्रा है। आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका की हालत बेहद खस्ता है। कई पैकेज देने के बाद भी अमेरिका की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आ पाया है। उन्होंने इसका बहुत स्पष्ट उल्लेख किया कि रिलायंस और स्पाइस जेट खुद अमेरिका में इंट्री की कोशिश में लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिकी निवेश भारत में इंफ्रास्टक्चर में नगण्य है। वीजा और आउटसोर्सिंग नीति में बदलाव उसकी नीति का नतीजा है जिसका नुकसान भारत को उठाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि भारत का महत्व अमेरिका के लिए सिर्फ बाजार के लिए है बराबरी का नहीं है। अमेरिका अगर किसी से डरता है वह एकमात्र चीन है।
पार्थिव ने अपनी बात की शुरुआत एक अखबार में छपे उस कार्टून से की जिसमे प्रधानमंत्री को एक तख्ती लिए बहुत छोटे कद का दिखाया गया है। उनका कहना था कि उस कार्टून के माध्यम के यह समझा जा सकता है कि भारत की अमेरिका के सामने क्या औकात है। उनका कहना था कि ओबामा के रूप मे अमेरिका कोई लोटा लेकर भारत नहीं आया है बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह आया है। हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि स्पष्ट होना चाहिए कि वह शासनतत्र पर कब्जा करने के लिए आया है। उनका यह भी कहना था कि ओबामा को अश्वेत डेमोक्रेट के रूप में नहीं देखना चाहिए सिर्फ अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को भोपाल का भी जिक्र करना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया।
लाल रत्नाकर का कहना था कि ओबामा को खास रिश्तेदार की तरह बुलाया गया है। अब बुलाया गया है तो कोई तो बात होगी। उनका कहना था कि रंगभेद की नीति अभी खत्म नहीं हुई है। अमेरिका में भी अश्वेत का मुद्दा है। इसके विपरीत भारत बहुरंगी देश है। उनका कहना था कि हमारी सरकार को अपने देश में रोजगार की कोई चिंता नहीं है। उनका कहना था कि अमेरिका को भारत में अभी भी दुश्मन के रूप मे देखा जाता है। अश्वेत होने से नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आ जाता, यह देखना महत्वपूर्ण है। ओबामा व्यापारी ही नहीं हैं वह विचार और ब्रांड अंबेस्डर भी हैं।
श्रवण ने कहा कि हमें सिर्फ यह मानना चाहिए कि ओबामा के रूप में सिर्फ अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। किसी कंपनी के सीईओ की तरह आया है। ओबामा सिर्फ व्यापार करने नहीं आए हैं। यह देखने वाली बात है कि वह हमारे पड़ोसियों को भड़काता है। इसके बाद भी पराकाष्ठा देखिए कि वह मुंबई में आतंकवाद का जिक्र तक नहीं करता। हमें अब यह तय करना होगा कि अमेरिका के साथ किस तरह खड़ा होना है।
तड़ित कुमार ने बहुत साफ कहा कि ओबामा नहीं अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। इसलिए इतना हायतौबा मची है। अभी कुछ समय पहले जापानी नेता आया था तब किसी को पता ही नहीं चला। अश्वेत राष्ट्रपति के मसले पर उनका कहना था कि अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने का मतलब था। ओबामा की यात्रा के बाद अगर हमारे देश में गेहूं की कीमत में कोई अंतर आए तो मतलब है। हम जिस तरह उसके आगे बिछे जा रहे हैं वह हमारी गुलामी की मानसिकता का परिचायक है।
प्रकाश चौधरी ने कहा कि अमेरिका वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। उसकी चौधराहट पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। इसीलिए उसका नया हथियार आतंकवाद और पर्यावरण बन गया है। उनका कहना था कि भारत और अमेरिका की वर्तमान स्थित महत्वपूर्ण है। अमेरिका अन्य देशों को अपनी प्रापर्टी मानता है। मानसिकता का भी टकराव है। भारत के संदर्भ में उनका कहना था कि पैसा आपके पास आ भी जाए तो बहुत अंतर नहीं पड़ता। उन्होंने कहा कि सबसे दुखद यह है कि भारतीय राष्ट्र का कोई क्लैरिफिकेशन नहीं है। इस यात्रा में भारत सरकार का कोई आधिकारिक पक्ष सामने नहीं आया है। उनका कहना था कि अंबानी हमारे प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने कहा कि समझौता बराबर की शक्तियों से होता है। अमेरिका अपनी ही शर्तों पर ही समझौते कर रहा है। गोष्ठी का संचालन रामशिरोमणि शुक्ल ने किया।

Wednesday, November 3, 2010

राहुल का गरीब प्रेम

आज दिनांक दो नवंबर २०१० को नई दिल्ली में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पार्टी महासचिव राहुल गांधी का भाषण सुनते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कुछ नई जानकारियां मिल रही हैं। उनके भाषण के दौरान इतनी तालियां बज रही थीं कि लग रहा था जैसे अधिवेशन में शामिल पार्टी नेताओं को अमृत वचन सुनाई दे रहा था। वैसे उनके लिए तो ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि इसके अलावा वे और कुछ कर भी नहीं सकते। राहुल उनके नेता जो हैं और नेता जो कहेगा वही तो उनके लिए अंतिम सत्य होगा। राहुल गांधी ने एक आप्त वचन पेश किया-अब दो हिंदुस्तान बन गए हैं। मुझे अचानक ऐसा लगा जैसे यह अपने आप हो गया। जाहिर है दो हिंदुस्तान अपने आप तो नहीं बन सकता। कोई न कोई तो उसे बना रहा होगा? और वह आखिर कौन होगा। जिसके हाथ में सत्ता होगी, वही तो ऐसा कर सकेगा। सत्ता उन्हीं की पार्टी कांग्रेस के हाथों में है। पिछले कई सालों से है और इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि ऐसा हो रहा है या हो गया है तो इसका श्रेय भी कांग्रेस को ही जाता है। इस लिहाज से माना जाए तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस अपने उद्देश्य में सफल हो रही है। शायद इसीलिए राहुल गांधी के साथ अधिवेशन मे शामिल सभी कांग्रेसी गदगद थे कि उनका और उनके नेता का अथक प्रयास कारगर साबित हो रहा है। वे इस मुगालते में भी होंगे कि देश की जनता (जो उनके शब्दों में गरीब है) भी इसके लिए उनका शुक्रिया अदा कर रही होगी। शायद इसीलिए वे बात को आगे बढ़ाते हैं कि एक हिंदुस्तान तेजी से बढ़ रहा है लेकिन दूसरा जो गरीबों का है, वह बंद पड़ा है। अब यह बंद पड़ा है तो फिर सवाल उठता है कि अपने आप तो नहीं बंद पड़ा है। इसे कोई न कोई तो बंद रखे हैं। यह भी सरकार और सत्ताधारी पार्टी और उसकी नीतियां ही करती हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि देश में कांग्रेस की सरकार है। जाहिर है देश की स्थिति का श्रेय भी उसी कांग्रेस को जाता है जिसके महासचिव राहुल गांधी ही हैं। निश्चित रूप से कांग्रेसी अपनी पार्टी और अपने नेता की इस बड़ी उपलब्धि पर जोरदार ताली तो बजाएंगे ही जो उन्होंने ऐसा ही किया। कांग्रेसियों के बीच देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे कांग्रेसियों के नेता राहुल गांधी यहीं तक सीमित नहीं रहे। वह और आगे बढ़ गए। दरअसल जब हर बात पर तालियां बजाने वाले श्रद्धावनत श्रोता सामने हों तो कोई भी नेता कुछ भी कह सकता है। राहुल गांधी ने भी कहा, इन दोनों हिंदुस्तान को जोड़ने का काम कांग्रेस कर रही है और आने वाले समय में यह दूसरा हिंदुस्तान, गरीबों का हिंदुस्तान, तेजी से आगे बढ़ेगा। हम गरीबों के लिए काम करेंगे। यह सब सुनते ही मुझमें एक अजीब किस्म का डर घर कर गया। किसी को पहले भी गरीबों को कोई उम्मीद नहीं थी। इससे तो साफ हो गया कि गरीबों का हिंदुस्तान तेजी से आगे बढ़ेगा। यह इसलिए कि राहुल ने आगे और स्पष्ट किया कांग्रेस ही गरीबों को आगे ले जा सकती है। उन्होंने अपना बहुमूल्य अनुभव भी बताया कि गरीब की शक्ति ही हमारी पार्टी को आगे ले जा सकती है। किसी को भी यह साफ समझ में आएगा कि कांग्रेस को आगे ले जाना है (जाहिर है सभी कांग्रेसी यह चाहते होंगे कि कांग्रेस आगे जाए) तो गरीब और गरीबी को भी आगे ले जाना होगा आखिर तभी तो कांग्रेस आगे बढ़ेगी। इसका ध्वन्यार्थ यही निकलता है कि दोनों हिंदुस्तान तेजी से बढ़ेंगे और गरीब तथा गरीबी भी अभी और आगे बढ़ेगी। इसीलिए कांग्रेसी खुश हो रहे होंगे और जोरदार तालियां बजा रहे होंगे? लेकिन गरीब तो कम से दुखी ही होगा।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि यह महज संयोग नहीं है कि जिस दिन दिल्ली में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था और राहुल गांधी गरीब और गरीबी और प्रवचन कर रहे थे उसी दिन देश की आर्थिक राजधानी मानी जाने वाली मुंबई मे आरबीआई छमाही मौद्रिक और त्रण नीति की समीक्षा प्रस्तुत कर रही थी। इसमे आरबीआई ने रेपो और रिवर्स रेपो दर में वृद्धि की घोषणा की। रेपो और रिवर्स रेपो दर वैसे भी किस गरीब को समझ में आएगी? शायद इसीलिए गरीब इसी बात पर खुश हो जाता है कि राहुल गांधी गरीबों की बातें कर रहे हैं लेकिन उनका जो बढ़ता हुआ हिंदुस्तान है उसके उद्योगपतियों ने इस बढ़त को अर्थव्यवस्था की वृद्धि के खिलाफ बताया है। रियल स्टेट कंपनियां भी इस सख्ती से खुश नहीं हैं। उनकी खुशी नाखुशी का तो दूसरे हिंदुस्तान और उसकी पार्टी कांग्रेस को मतलब होता है लेकिन दूसरे हिंदुस्तान गरीबों के लिए इसका दूसरा ही मतलब है। जानते हैं अंग्रेजी के यह अर्थशास्त्री शब्द रेपो और रिवर्स रेपो का मतलब यह होता है कि आम आदमी के छोटे-छोटे सपनों के घर सपने ही रह जा सकते हैं। इससे यह पता चलता है कि गरीब सिर्फ भाषण के लिए होते हैं, उनकी चिंता किसी को नहीं होती। रिजर्व बैंक की इस सख्ती का सर्वाधिक असर गरीबों पर ही पड़ेगा क्योंकि होम लोन महंगा हो जाएगा। किसी भ्रम में न रहिएगा कि राहुल गांधी गरीबों के लिए कुछ करने वाले हैं वे गरीबों को आगे बढ़ाने के नाम पर गरीबी को आगे बढ़ाते रहेंगे ताकि उनकी पार्टी कांग्रेस आगे बढ़ती रहे। अगर आप भी यही चाहते हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर चाहते हैं कि गरीबी खत्म हो और सभी को बराबरी का मौका मिले तो राहुल गांधी के कहे का अर्थ अच्छे से समझिए नहीं तो कांग्रेस का भविष्य तो बनता जाएगा, दूसरा हिंदुस्तान भी मजबूत होता जाएगा पर गरीबों का बंटाढार हो जाएगा।

Monday, October 25, 2010

अयोध्या पर चर्चा

रविवार २४ अक्टूबर को कृष्ण भवन वैशाली में हुई बैठक की बैठक में अयोध्या पर विस्तार से सारगर्भित और तथ्यपरक चर्चा की गई। शुरुआत शंभू भद्रा ने की। उन्होंने आस्था के सवाल को गैरजरूरी बताते हुए आस्था के आधार इस जिद के कोई मायने नहीं कि हम वहीं पूजा करेंगे जहां हमारा मन कहता है। इसी तरह नमाज के लिए यह जरूरी नहीं कि वह तय स्थान पर ही पढ़ी जाए। उन्होंने कहा कि पूजा और नमाज कहीं भी हो सकती है। उनका कहना था कि यह विवाद इतना बढ़ चुका है कि इसका कोई समाधान फिलहाल की परिस्थितियों के मद्देनजर निकल पाना असंभव लग रहा है। उनका यह सुझाव भी था कि उस स्थान को सरकार को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर देना चाहिए। ऐसा कर दिया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।
चर्चा को आगे बढ़ाया श्रवण गुप्ता ने। उनका मानना था कि हमें सारी चीजें सरकार पर ही नहीं छोड़ देनी चाहिए। उनका यह भी कहना था कि कई समस्याएं इसलिए भी उलझ जाती हैं कि हम सरकार पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं। जैसे ही कोई मसला राजनीतिज्ञों के जिम्मे जाता है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। राजनीतिज्ञ उससे खेलने लगते हैं। अयोध्या के साथ भी हुआ। यह मुद्दा राजनीति का खिलौना बनकर रह गया है। कभी कांग्रेस इससे खेलती है तो कभी भाजपा और उसकी जैसी राजनीतिक ताकतें इसे सत्ता के लिए भुनाने लग जाती हैं। उनका मानना था कि अगर अयोध्या के लोग खुद आगे आएं तो इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है।
तड़ित कुमार ने राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाया। उनका कहना था कि जिसका मानवीय अस्तित्व ही नहीं है वह किसी मुकदमे में पक्षकार कैसे हो सकता है। रामलला विराजमान को एक पक्ष मानने के सवाल पर उनका कहना था कि जब भी कोई व्यक्ति वकील करता है तो वह हलफनामा देता है कि उक्त वकील अदालत में उसका पक्ष रखेगा। क्या रामलला ने यह दस्तखत किया? उन्होंने कहा कि ऐसे में तो किसी दिन कोई भूत या डाइन भी पक्षकार बन जाएगी। उन्होंने सेक्युलरिज्म शब्द के धर्मनिरपेक्ष अर्थ को अनर्थ बताया। उनका कहना था कि सेक्युलरिज्म के मायने धर्मनिरपेक्षता होता ही नहीं। उन्होंने सेक्युलरिज्म आंदोलन की विस्तार से चर्चा की और कहा कि यह वह आंदोलन था जिसने नई क्रांति की थी। यह चर्च के खिलाफ डंडा लेकर खड़ा होने वाला आंदोलन था। आज इस शब्द को गलत अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है जो उचित नहीं है। उन्होंने वाल्मीकि के रामायण को महाकाव्य बताया और कहा कि उसमें भी राम को भगवान नहीं कहा गया है।
राम बली ने संक्षेप में अपनी बात रखी। उनका कहना था कि अयोध्या विवाद को सुलह से ही हल किया जा सकता है। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि सुलह का फार्मूला क्या हो सकता है। बाद में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर सुलह से नहीं हल होता तो सरकार को इसका समाधान करना चाहिए।
जगदीश यादव ने शुरुआत ही यहां से की उनके बचपन की जो यादें ताजा हैं उनके अनुसार अयोध्या तब तक कोई धार्मिक रूप से कोई पापुलर स्थान नहीं था। लोग चित्रकूट तक को जानते थे और वहां जाते थे पर अयोध्या के बारे में न कोई बात करता था न कोई वहां जाता था। उन्होंने इसका भी जिक्र किया कि एक प्रेस छायाकार होने के नाते उन्होंने लगातार अयोध्या को कवर किया। उन्होंने विस्तार से उस दिन का भी जिक्र किया जिस दिन बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। यह भी बताया कि किस तरह उन जैसे छायाकारों को किस तरह उनके कैमरे छीनकर एक जगह जबरदस्ती रोके रखे गया और तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक उसे ढहा नहीं दिया गया। उसके बाद में यह कहते हुए जाने दिया गया कि उसी रास्ते से निकलें जिससे बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों ने बताया। उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर बताया कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण में कांग्रेस की सर्वाधिक भूमिका रही। ताला खोलवाने से लेकर जमीन एक्वायर करने तक सब कुछ कांग्रेस ने किया। भाजपा तो इसमें बाद में कूदी और वह भी सत्ता की खातिर। भाजपा के लिए अयोध्या का मतलब केवल सत्ता हासिल करने तक ही सीमित था। उनका कहना था कि इस समस्या का समाधान सुलह से नहीं हो सकता। उनका कहना था कि अयोध्या के लोगों के लिए भी मंदिर कभी कोई मुद्दा नहीं रहा है। अब जरूर वहां के लोग यह सोचने लगे हैं कि अगर मंदिर जाएगा तो उनका व्यवसाय बढ़ जाएगा।
लाल रत्नाकर ने बहुत सारी कहानियों के माध्यम से इस मुद्दे को समझने और समझाने की कोशिश की। उनका कहना था कि अयोध्या एक बड़ी साजिश का हिस्सा है। मंडलाइजेशन, कमंडलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के माध्यम से उन्होंने अयोध्या विवाद को प्रस्तुत किया। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के माध्य से भाजपा के अयोध्या मुद्दे पर प्रलाप को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि जिस व्यक्ति के आराध्य देव झूले लाल उसके आराध्य राम कैसे हो गए? उन्होंने कहा कि बाबर के बाद लिखे गए रामचरित मानस के लेखक तुलसी दास को सबसे बड़ा राम भक्त माना जाता है लेकिन तुलसी दास ने कहीं भी राम के अयोध्या में जन्म का उल्लेख नहीं किया है। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि राम का जन्म अयोध्या में ही और वहीं हुआ है। उन्होंने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि आज अयोध्या ऐसी संपदा हो गई है जिस पर हर कोई अपने कब्जे में करना चाहता है। उन्होंने यह भी कहा कि आज रावण की स्वीकार्यता बढ़ रही है। उन्होंने व्यंग्य किया कि अगर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में राम का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
सुदीप ने अयोध्या विवाद को सभ्यताओं के संघर्ष के रूप मे चिन्हित किया। उनका कहना था कि अयोध्या का मसला अदालत से नहीं सुलझने वाला है। अदालत का सम्मान करते हुए उनका मानना था कि अयोध्या पर जो फैसला आया वह दरअसल फैसला था ही नहीं। इसे फैसले के प्रस्तुतिकरण में मीडिया खासकर हिंदी मीडिया की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए आलोचना की।
पार्थिव का भी यही मानना था कि अदालत से इस मामले का समाधान नहीं किया जा सकता। वार्ता से भी इसे नहीं सुलझाया जा सकता। उनका कहना था कि दरअसल कोई राजनीतिक पार्टी और सरकार नहीं चाहती कि इस समस्या का समाधान निकले। उनका मानना था कि अयोध्या में ही इसका समाधान हो सकता है। उनका तो यह भी कहना था कि हिंदू और मुसलिम दोनों ही पक्षकार अपने समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
प्रकाश चौधरी का कहना था कि अयोध्या की समस्या आम लोगों की समस्या नहीं है। यह विशुद्ध राजनीतिक मसला है। इसे बहुत सोचे-समझे तरीके से लटकाए रखा जा रहा है। हमारे देश की सरकारों को जब जरूरत पड़ी तब इसे उठाया और इसका लाभ उठाया। सरकार को न राम से मतलब है न आम जन से। उनका मानना था इस समस्या का समाधान कोर्ट से नहीं होगा। कोई जनतांत्रिक सरकार ही इसका समाधान खोज सकती है।
चर्चा में राम शिरोमणि शुक्ल और अनिल दुबे ने भी हिस्सा लिया।

Wednesday, October 20, 2010

पहचान जरूर


मैं यह देखकर दंग रह जाता हूं
कि दुनिया में कितना काम हो रहा है
बहुत सारे लोग लगे हैं
दुनिया को खूबसूरत बनाने में
जिंदगी को जीने लायक बनाने में
इसके बीच कि कुछ लोग
खूबसूरती को ही नष्ट करने में लगे हैं
बेहद जरूरी है इन दोनों बातों को जानना
पर कुछ चाहते ही नहीं कि
हर कोई सब कुछ जाने
ये कुछ लोग बहुत खतरनाक होते हैं
इन्हें पहचानना जरूरी है
और फिर नष्ट करना
क्योंकि तभी बच सकेगी खूबसूरती
तभी बन सकेगी जिंदगी जीने लायक।

जनता मिल गई

आज जनता मिल गई, वही जनता जिसकी वोट के अलावा कोई चिंता नहीं की जाती, आपस में उलझी, परेशान, दुनिया भर कि इधर-उधर कि बातों में मशगूल. मजमा लगा देख मैं भी उसमें खुद को शामिल करने से रोक नहीं सका. तब पाया कि जनता इसलिए बहुत परेशान थी कि नेताओं ने राष्ट्र हित के समय उसका ध्यान एकदम नहीं रखा. दरअसल जनता को भी राष्ट्र हित बहुत अच्छा लगता है पर यह नेता लोग हैं कि उन्हें इस काबिल मानते ही नहीं. जनता में से एक का उलाहना था कि अब देखिए गडकरी साहब भी कह रहे हैं कि हमारे पास कामनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के पुख्ता प्रमाण हैं. लेकिन हमने गेम्स के पहले कोई संवाददाता सम्मेलन इसलिए नहीं किया क्योंकि यह राष्ट्र हित में नहीं होता और हम ठहरे घोर राष्ट्रप्रेमी। इसीलिए हमने भ्रष्टाचार को तब तक होते रहने दिया जब तक कि उसे होते रहना था। आखिर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संप्रग की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने कह जो दिया था कि हम खेल हो जाने के बाद किसी को नहीं छोड़ेंगे क्योंकि यह राष्ट्र हित है। अभी तो केवल यह देखना है कि खेल हों । खेल होने से राष्ट्र का नाम दुनिया में रोशन होगा। अब देखिए दुनिया हमारा लोहा मानने लगी न। तब तक एक दूसरी जनता ने फरमाया, अरे भाई ऐसे ही होता है। कोई देश ऐसे ही महान थोड़े ही बनता है। बड़ी तपस्या करनी पड़ती है। वैसे भी भ्रष्टाचार कोई दुनिया थोड़े ही न देखती है। दुनिया को क्या पता कि एक की जगह दस लगाया और वह भी अपनों के बीच ही बांट लिया । आखिर यह सब देश का नाम ऊंचा करने के लिए ही तो किया गया। अब अगर खेल के दौरान कर्फ्यू जैसी व्यवस्था कर लोगों को घरों में कैद कर दिया गया तो इसीलिए न कि कोई राष्ट्र को ऊंचा होता हुआ देख न सके।

क्रमश

Thursday, October 7, 2010

हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं.

यह मत पूछिएगा कि मैंने क्या किया ? मैं यह बताने भी नहीं जा रहा हूँ कि मैंने क्या किया. यह जरुर बताना चाहता हूँ कि क्या हुआ. रोज क़ी तरह आज भी मेट्रो से जा रहा था अपने दो सह्कर्मिओं के साथ. मेरे सामने वाली सीट पर उस जगह पर दो लोग बैठे हुए थे जिसके उपर लिखा हुआ था केवल महिलाओं के लिए. सीट खाली थी तो बैठ गए, कोई बात नहीं. अगले स्टेशन पर डिब्बे में आई एक महिला निवेदन किया कि उसके लिए सीट खाली कर दें तो बजाए ऐसा करने उन महाशय ने बड़ी दबंगई के साथ जवाब दिया कि अब यह सीट महिलाओं के आराकचित नहीं है. अपनी बेशर्मी को उसने येही तक सीमित नहीं रखा. यह भी बकने लगा कि महिलाओं के लिए सिर्फ आगे वाला डिब्बा है. वह तो यह भी बकने से बाज नहीं आये कि महिलाओं को तो अब इन डिब्बों में आना ही नहीं चाहिए. अब ऐसे मूढों को कौन समझाएगा कि महिलाओं का वैसे भी सम्मान किया जाना चाहिए. सम्मान न भी करो तो अपमान भी नहीं करना चाहिए. कम से कम इतना तो जानना ही चाहिए कि मेट्रो में बैठने कि व्यवस्था पहले कि तरह ही लागू है. बदलाव इतना ही हुआ है कि आगे का डिब्बा महिलाओं के लिए रिजर्व कर दिया गया है. मेट्रो ने इस बारे में अख़बारों आदि के जरिए सूचना भी दे रखी है. मैं कई बार सोचता हूँ कि हम कैसे लोगों के बीच रह रहे हैं.

बहुत अच्छी होती है पुत्रिआन

जिन बेटों के लिए मरे जा रहे थे बाप
वही बेटे मार रहे हैं अपने बाप को
वो मां की भी कोई पूजा नहीं करते थे
हमेशा लूटते ही रहते थे उसकी
पेट और अपने शौक काटकर
बचाई गई जमा पूंजी को
भुनाते रहते थे मां कि ममता को
जब तक वह जिंदा थी
मरने के बाद भी उसे नहीं छोड़ते
बाप को देते रहते हैं धमकी
कहते हैं, हमने इलाज करवाया
क्रिया कर्म में धन लगाया
इसलिए मुझे चाहिए उसके वे सभी आभूषण
जो पिता के पास मां की याद के रूप में मौजूद हैं
कभी सोचा आपने, ये क्या हो रहा
हम बताते है आपको
यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है
हमेशा से येही होता आ रहा है
फिर भी किसी को समझ में नहीं आ रहा है
इस सब के बीच वो पुत्रिआन हैं
जो इन्हीं पिता को मरने वाले पुत्रों की पैदाइश के लिए
मांगती थीं मन्नतें और रखती थी व्रत
और पिता के दुःख में आंसुओं के जरिए बटती है हिस्सा
उनकी दौलत में नहीं बेटों की तरह
नहीं मांगती कोई हिस्सा
न हिस्से के लिए पिता का फोडती हैं सर
जरा सोचिए कितनी अच्छी होती हैं पुत्रियन
बहुत अच्छी होती है पुत्रिआन

Saturday, October 2, 2010

अब तुम्हारा क्या होगा

पहले भी कई बार लगा था
लगा ही नहीं
पूरा विश्वास हो गया था कि
कमजोर होगे तो भोगोगे
तब भी लगता था
कहीं न कहीं, कम से कम
सुनी तो जाएगी कमजोर कि आवाज
पर अब तो इससे भी उठने लगा है विश्वास
अब तो यह भी कह दिया जा रहा है कि
देर से आओगे तो नहीं माना जायेगा दावा
तुम्हारे दावे में भी नहीं है कोई दम
क्योंकि तुम संख्या में भी हो कम
ऐसे में तुम्हारी आस्था भी है कम
इसलिए हमें भाई उनकी आस्था
और उसी पर हो गया हमें विश्वास
हालाँकि उनका दावा भी था कमजोर
पर उनकी संख्या थी जिआदा
और उनकी आस्था भी थी जोरदार
सो उन्हें ही मान लिया असली हक़दार
ऐसे में भला बतइए हमारे लिए क्या बचा
हमारी ही नहीं बहुतायत कि आस्था थी जिसमें
उसी ने तोड़ दिया आस्था को
तब आखिर हमारे मुह से निकला
हे भगवान अब हमारा क्या होगा
या कहें अब तुम्हारा क्या होगा.

Wednesday, September 29, 2010

खेल के बहाने जगा देश प्रेम

कामनवेल्थ खेलों ने और चाहे जो भी अच्छा बुरा किया हो या न किया हो, इतना जरूर किया कि हम भारतीओं में देश प्रेम कि भावना का अजब संचार कर दिया है. लोगों में महात्मा गाँधी साक्चात घर कर गए हैं. वो न बुरा देखना चाहते हैं न बुरा कहना चाहते हैं और न बुरा सुनना चाहते हैं. इतना ही नहीं, कोई भी अगर इन तीनों में से एक भी करता मिल जा रहा है तो उसकी बखिया उधेड़ दे रहे हैं. आखिर यह देश कि इज्जत का मामला जो है. अब भले ही स्टेडिं कि उपरी दीवार टपक रही हो, कल गाँव में सांप मिल जाए, सड़क धंस जा रही हो, समय पर काम पूरे न हो रहे हों, निउक्तियो में धांधली होने समेत कितने ही आरोप लग रहे हों. खेल गाँव में करोड़ों कि लगत वाले कमरों में गन्दगी को लेकर कहा जा रहा है कि विदेशिओं के सफाई के मानक हम से अलग हैं लेकिन इसका करेंगे कि एक खिलाडी के बैठते ही बिस्तेर टूट जाता है. देश और उसकी इज्जत तो बचाने से बचेगी, लेकिन सवाल यह है कि इसकी चिंता किसको है. हर कोई खानापूर्ति में लगा हुआ है. इससे भी जिआदा कमाई में लगा हुआ है. ऐसे लोगों को देश कि चिंता कहाँ है. देश कि चिंता करने वाले तो दूसरे लोग हैं और जब वे कहते हैं कि अच्छा काम करो ताकि देश का नाम रोशन हो तो कहा जाता है कि पहले खेल हो जाने दीजिए बाद में सब ठीक हो जाएगा. जरा सोचिए बाद में क्या होता है और बचता क्या है. हमारे प्रधानमंत्री भी कह रहे है पहले खेल हो जाने दीजिए उसके बाद किसी भी अनियमितता करने वाले को बक्शा नहीं जाएगा. जरा सोचिए कि अभी खेल के नाम पर खेल करने कि छूट देने वाले बाद में क्या करेंगे, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

Monday, September 27, 2010

सब कुछ भगवान भरोसे

सुबह फ्रेश होने के बाद मैं डेंगू से पीड़ित अपने एक मित्र को देखने के लिए जाने को तैआर हो रहा था कि दरवाजा खटखटाया गया. दरवाजा खोला तो पता कि हमारे अपार्टमेन्ट के ही करीब पांच-छह लोग जिनमें कुछ वृद्ध और कई नौकरीपेशा लोग थे जिन्हें देखते ही समझ में आ गया कि यह लोग चंदा मांगने आये हैं . चंदा मांगना कोई बुरी बात नहीं होती . पंडित मदन मोहन मालविया ने चंदा मांगकर बनारस में विश्वविद्यालय बनवा दिया था . मैंने खुद भी कई बार चंदा माँगा है कई कामों के लिए . इनमें एक पत्रिका और एक पुस्तकालय के लिए चंदा भी शामिल है . शायद इसीलिए किसी सामाजिक काम के लिए चंदा देने में मुझे ख़ुशी भी होती है . लेकिन आज जो लोग जिस काम के लिए चंदा मांगने आये थे वह मुझे कतई पसंद नहीं आया. असल में वे लोग उस मंदिर के लिए चंदा मांगने आये थे जो अपार्टमेन्ट में ही बनाया जा रहा है. जब उसकी शुरुआत हुई थी तभी मेरे दिमाग में यह सवाल उठा था कि आखिर इसकी जरुरत क्या है. जाहिर है यह सवाल उन लोगों के लिए बकवास लग सकता है जो इस काम में लगे हैं इसके बावजूद क्या इसका उनके पास कोई माकूल जवाब हो सकता है कि जहाँ मूलभूत सुविधाए न हों वहां इस तरह के काम का क्या मतलब हो सकता है. यह तब और जब उसी मंदिर कि दिवार से लगा एक मंदिर पहले से ही मौजूद है. इसकी अनुपयोगिता इससे भी साबित होती है. मंदिर में पूजा ही होती है और अभी कोई इससे रोक नहीं रहा है. जरा सोचिए, अगर उतनी ही जगह में बच्चों के खेलने के लिए कुछ बनवा दिया जाता तो कितना अच्छा होता. फ़िलहाल बच्चों के खेलने के लिए कोई जगह नहीं है न ही खेल का कोई साधन . उस जगह पर एक वाचनालय बनाया जा सकता था जहाँ कुछ अच्छी पत्रिकाएं और किताबें रखी जा सकती थीं जिनकों पढने से लोगों को कुछ ज्ञान प्राप्त होता. लोग वहां बैठकर जीवन से जुडी बुनिआदी समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सकते थे जो बेहद जरुरी है और जिनके लिए अभी कोई जगह नहीं है. मुझे इस पर आश्चर्य होता है कि लोग इस तरह चीजों को क्यों नहीं देखते. और भी गम हैं ज़माने में, उनकी ओर इनका ध्यान क्यों नहीं जाता. दिल्ली में डेंगू फैला हुआ है और यह मच्चरों से होता है. मच्चार गंदगी से फैलते हैं. किसी भी समझदार आदमी के लिए यह गंभीर चिंता होनी चाहिए कि उसके आसपास गंदगी न हो लेकिन जिस अपार्टमेन्ट में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है उसके सीवर का गन्दा पानी सामने ही बहता रहता रहता है. इससे भी गंभीर चिता कि बात यह होनी चाहिए थी कि ठीक अपार्टमेन्ट के सामने बने ग्रीनपार्क में महीनों से सीवर का पानी छोड़ा जा रहा है जिसके निकलने का कोई इंतजाम न होने के कारण लगातार जमा हो रहा है जो कभी भी घटक बीमारी का कारण हो सकता है पर इसकी किसी को चिंता नहीं है . हालाँकि कोई कह सकता है कि यह काम सरकार या जीडिए का है लेकिन भाई अगर वे नहीं कर रहें हैं तो आखिर भुगतना तो हम सभी को ही पड़ेगा. संभव है कि मुझे इसकी जानकारी न हो और इन सभी मुद्दों पर हमारे यह चंदा मांगने वाले साथी काम कर रहे हों. अगर ऐसा होगा तो मुझे बहुत खुश होगी पर लगता नहीं कि बारे में सोचा भी गया होगा. दरअसल हम महान भारत देश के महान नागरिक हैं. हमें अपनी बुनिआदी समस्याओं कि कोई चिंता नहीं होती और समाज सुधार के नाम पर हम धर्म के आगे बढ़ ही नहीं पाते. येही कारण है कि उसी में उलझे रह जाते हैं. हजारों, करोड़ों लगाकर मंदिर बनाने वाले बहुत मिल जायेंगे लेकिन ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे जो यह बीड़ा उठायें कि हम ऐसा अस्पताल या ऐसा स्कुल बनवाएँगे जिसमें जरूरतमंद लोगों को मुफ्त उपचार और शिक्छा मिल सके. क्या इस तरह सोचा और किया जा सकेगा या सब कुछ भगवान भरोसे ही रहेगा.

Monday, September 20, 2010

पाश कि कविताओं का पाठ

झमाझम बारिश किसी के लिए भी बढ़िया बहाना हो सकती थी न आने के लिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं, छाते का सहारा लेने के बावजूद भीगते हुए और घुटनों तक पानी में चलकर लोग अगर गोष्ठी में पहुच गए तो इसीलिए की वे अपने कार्य के लिए सजग और प्रतिबद्ध हैं. यह गोष्ठी बैठक की थी और इसमें प्रतिष्ठित कवि पाश की कविताओं का पाठ किया जाना था. तय समय से करीब एक घंटे देर से शुरू गोष्ठी चली भी करीब एक घंटे देर तक क्योंकि पाश की कई कविताओं का पाठ तो किया ही गया, विस्तार के साथ उनके जीवन, जीवन संघर्ष, उनकी रचनाओं, अनुवाद और कविता के विभिन्न पक्छ पर विस्तार से बात हुई. पाश की कविताओं और उनके जीवन संघर्ष पर प्रकाश चौधरी ने प्रकाश डाला. बाद में उन्होंने कई कविताएँ भी पढ़ीं. कुछ कविताएँ कृष्ण सिंह, राम शिरोमणि शुक्ल और लाल रत्नाकर ने भी पढ़कर सुनाई. लाल रत्नाकर ने पाश की एक कविता का खुबसूरत पोस्टर भी प्रदर्शित किया. पार्थिव ने इस दौरान कविता से सम्बंधित कई बातें रखी. इस तरह के कार्यक्रमों का अपना विशेष महत्व होता है जिसे शिद्दत से महसूस किया गया और जिआदा विस्तारित करने पर भी विचार किया गया. एहां यह उल्लेखनिया है की सितम्बर में ही पाश का जन्म हुआ था. पाश की कविताओं को सुनते हुए ऐसा लगा की यह बहुत महत्वपूर्ण हैं जीवन को बेहतर तरीके से समझने के लिए. इसके साथ ही यह जरूरत भी महसूस की गई कि इन्हें अधिक से अधिक लोगों को पढवाया भी जाना चाहिए. इसके लिए कई सुझाव भी सामने आए जिसमे पोस्टर बनाया जाना भी शामिल था. फ़िलहाल लाल रत्नाकर के सौजन्य से एक वीडियो क्लिप यू टूब पर डाली गई जहाँ देखा और सुना जा सकता है. प्रकाश चौधरी जी से निवेदन किया गया कि वह विस्तार से पाश और उनकी कविताओं के बारे में लिखेंगे और उसे पाठकों के सामने लाया जाएगा. कुल मिलाकर एक सारगर्भित गोष्ठी रही.

Sunday, August 29, 2010

एक जरूरी उपन्यास जिसे हर पाठक को अवश्य पढना चाहिए

अभी गुजरे रविवार को बैठक की संगोष्ठी में उपन्यास को लेकर काफी बातें हुई थीं. आज जब मैंने दोपहर को प्रतिष्ठित साहित्यकार पंकज बिष्ट का हाल ही में राजकमल से प्रकाशित उपन्यास पंख वाली नाव पूरा किया तो स्तब्ध रह गया. एक चुनौतीपूर्ण विषय को जितनी सहजता के साथ पंकज जी ने प्रस्तुत किया उससे महसूस हुआ क़ि अगर चीजों को ख़ूबसूरती के साथ लाया जाए तो वह न केवल पसंद क़ि जाएगी बल्कि अन्य लोगों को भी उसे देखने-पढ़ने के लिए उत्साहित करेगी. जो लोग यह कहते हैं अब तो केवल कहानी और कविता पढ़ी जा रही है, उपन्यास से बचा जा रहा है, वे गलत हैं. अगर उपन्यास में दम होगा तो वह भी पढ़ा जायेगा. पंख वाली नाव के साथ ऐसा हो रहा है क्योंकि उसे बुना ही ऐसे गया है. अन्य पाठकों के बारे मै नहीं कह सकता पर मेरे साथ शायद यह पहली बार हुआ क़ि जैसे-जैसे उपन्यास ख़त्म होने को हो रहा था, इस बात को लेकर तकलीफ हो रही थी क़ि इत्नानी जल्दी क्यों ख़त्म हो रहा है. अगर कुछ और होता तो जिआदा अच्छा होता. यह अनायास था भी नहीं. उपन्यास पाठक को ऐसी जगह ले जाकर छोड़ता है जहाँ से वह उससे आसानी से छूट नहीं पाता. हिंदी के पाठकों के साथ यह सुविधा आमतौर पर होती है क़ि उन्हें समझने या दिमाग लगाने क़ि बहुत जरूरत नहीं होती क्योंकि लेखक खुद सब कुछ कह देता है. शायद इसीलिए मेरे मन में यह बात कई बार आई है क़ि हिंदी का लेखक यह मानकर चलता है क़ि उसका पाठक बहुत समझदार नहीं होता इसलिए उसे सब कुछ साफ-साफ बता देना चाहिए. जिन कारणों से इस उपन्यास ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह यह क़ि अंत में लेखक अपनी ओर से कुछ नहीं कहता, पाठक के लिए ऐसा बहुत कुछ छोडकर चला जाता है जिसमे उलझे रहने का अपना आनंद है. जिस मुख्य विषय और चरित्र को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखा गया है वह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा. उसे साधना अपने आप में बहुत कठिन काम हो सकता था लेकिन इसे लेखक क़ि चमत्कारिक दक्चता का कमल ही कहा जाना क़ि बिना किसी तरह क़ि जुगुप्सा जगाए उस विषय को सात्विक बनाए रखा. दर असल यह हम भारतीओं खासकर हिंदी लेखकों-पाठकों के साथ यह बड़ी समस्या है क़ि वे खुद ही तय कर लेते हैं क़ि उन्हें क्या चाहिए. इसका परिणाम यह होता है क़ि मनगढ़ंत चीजें थोपी जाने लगती हैं. आप चीजों को व्यापक स्तर पर क्यों नहीं देखते. यह क्यों नहीं सोचते क़ि जिसे आप अकथ्य, अपठनिया मान रहे उसे अच्छी तरह से कहा जा सकता हो और जिआदा बेहतर तरीके से समझा जा सकता हो. यह उपन्यास इस मामले में काबिलेतारीफ है क़ि जिस विषय पर आम भारतीया सोचने और बात करने से बचना चाहता हो, उसे पूरे सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया जाए क़ि कहीं से भी घृणा या वितृष्णा न पैदा हो बल्कि उस समस्या को ज्यादा व्यापकता में समझने क़ि कोशिश क़ि जाए. असल में यह उपन्यास एक गे को केंद्र में रखकर लिखा गया जो अपने आप में एक बड़ी चुनौतीवाला है, उससे भी बड़ी बात यह क़ि इसमें कहीं भी रंचमात्र क़ि अश्लीलता नहीं है. इसके विपरीत इस समस्या को अधिक गंभीरता के समझने क़ि सफल कोशिश की गई लगती है. संभवतः येही कारण रहा होगा की शुरू में ऐसा लगा क़ि उपन्यास में लेखक उस चरित्र के खिलाफ डंडा लेकर खड़ा हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि जैसे-जैसे कहानी बढती गई वैसे-वैसे वह शायद थोड़े-मोड़े किन्तु-परन्तु के साथ सामंजस्य बिठाने लायक होता गया. इसे लेखकीय कला का प्रशंशनीय पक्छ माना जाना चाहिए. पूरा उपन्यास और उसके हरेक चरित्र इस तरह बुना गया है क़ि हर कोई अपनी विशिष्ट छाप के साथ उपस्थित होता है. बिना किसी अनावश्यक विस्तार के और बिना अपनी ओर से कुछ कहे परिस्थिओं के जरिए अपनी बात को मजबूती के साथ कहने क़ि जैसी कला पंकज जी में देखने को मिली वह विरले ही मिलती है. कमसेकम मेरे जैसे पाठक के लिए तो यह चमत्कारिक कर देने वाला लगा. अलग-अलग कारणों से आप बालकृष्ण भट्ट, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रेनू, श्रीलाल शुक्ल, गोर्की, तालस्ताय और प्रेमचंद आदि कई नाम ले सकते हैं. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में जो कुछ उपन्यास मैंने पढ़े उनमे पंख वाली नाव का कोई जोड़ नहीं.मैं तो अभिभूत हूँ. इसलिए मैं यह भी चाहता हूँ क़ि जिनकी पढने में थोड़ी भी रूचि हो उसे यह उपन्यास अवश्य ही पढना चाहिए. उन लोगों को तो जरूर ही पढना चाहिए जो यह मानकर चल रहे हों क़ि आजकल हिंदी में अच्छे उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं. मैं कह सकता हूँ क़ि यह बहुत अच्छा उपन्यास है.

Monday, August 23, 2010

तड़ित कुमार ने अपने नए उपन्याश के एक हिस्से का पाठ किया

रविवार २२ अगस्त को बैठक की ओर से आयोजित संगोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार तड़ित कुमार ने अपने नए उपन्याश के एक हिस्से का पाठ किया . इसके बाद उस पर उपस्थित सभी सदस्यों ने अपनी बात विस्तार से रखी और कई सम्बंधित विषयों पर गंभीर बहस हुई जिससे ऐसा लगा कि जब यह छप कर आएगा तो निश्चित रूप से पाठकों को काफी पसंद आएगा . उपनिअश में जिस तरह के बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग किया गया है उसकी करीब सभी ने प्रशंसा कि . चर्चा के दौरान उपन्याश लेखन और पाठकों तक कि स्थिति पर भी लोगों ने अपनी बातें रखी. हिंदी भाषा और बोलीओं को लेकर भी बातें सामने आईं. इस पर भी प्रस्ताव आया कि भाषा को लेकर अलग से एक बार गोष्ठी कि जाए. गोष्ठी के दौरान मुझे इलाहाबाद के परिवेश संस्था के वे दिन याद आए जब रचनाएँ पढ़ी जाती थी और उन पर गंभीर बहसें हुआ करती थी . गोष्ठी में सर्वश्री विनोद वर्मा, अनिल दुबे, लाल रत्नाकर, सुदीप ठाकुर, प्रकाश चौधरी, शम्भू भद्रा, पार्थिव, श्रवण कुमार और राम शिरोमणि शुक्ल ने विचार रखे. गोष्ठी श्रवण के आवास पर हुई. अगली गोष्ठी ०५ सितम्बर को कृष्ण भवन वैशाली में ११ बजे होगी जिसमे बाबा नागार्जुन कि कविताएँ पढ़ी जाएंगी.

Sunday, April 18, 2010

वह बताते हैं

वो आते हैं और हमें बताते हैं
वो आने से पहले अंदर होते हैं
अंदर वो कुछ बोलते नहीं
सिर्फ चुपचाप सुनते हैं
अंदर जो कुछ सुनते हैं
वही बाहर आकर बोलते हैं
तब वह ब्रह्मवाक्य होता है
दूसरों के लिए आदर्श होता है
बताने वाले को सुनने से पहले
कुछ पता नहीं होता है
अंदर जाने से पहले
जब वह बाहर होता है
तब उसे कुछ पता नहीं होता है
येही उसकी सबसे बड़ी काबिलिअत है
क्या अब भी यह बताने की जरूरत है
वह कौन हैं और क्या कर रहें हैं
हाँ , मैं आपको बताता हूँ
वह सब कुछ नष्ट कर रहे हैं .

Saturday, April 17, 2010

समझना

जब कोई कहता है
उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है
मुझे लगता है
उसे इतनी समझ तो है
कि उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा
इसी से मुझे पता चलता है
वह सब कुछ समझता है
लेकिन करता रहता है
न समझने का नाटक
नाटक सिर्फ देखने और दिखाने
में ही लगता है अच्छा
उसके पीछे कि सच्चाई
बहुत कडवी होती है
जरूरत है उससे बचने की .

Monday, April 5, 2010

गौरैया

बालकनी पर आई गौरैया
ऐसा लगा जैसे
शरीर में जान आई .

Sunday, April 4, 2010

उनकी महानता

वो बहुत महान हैं
ऐसा वो बताते फिरते हैं
जबकि वास्तविकता में
वो हैं कुछ भी नहीं
सच कहें तो वो
आदमी भी नहीं हैं
अगर ऐसा होता तो
उनके अंदर आदमी का
कोई लक्चन तो होता
उन्हें मजा आता है
दूसरों को दुःख पहुँचाने में
यह अलग बात है कि
वो खुद रहते हैं बहुत दुखी
इसलिए नहीं कि
वो दूसरों को दुःख पहुंचाते हैं
बल्कि इसलिए कि
जिन्हें वो सुख पहुँचाना चाहते हैं
उनके लिए कुछ नहीं कर पाते
मैं उन्हें जानता हूँ
वो आदर्श बघारते हैं
पर करते हैं हमेशा
उसके उल्टा
वो बड़ी-बड़ी डींगें हांकते हैं
मुझे ये मिल जाता तो
मैं वो कर देता
वो मिल जाता तो वो कर देता
यह अलग बात है कि
जो उन्हें मिला है
उसमें कुछ नहीं कर पाते
असल में कुछ कर ही नहीं सकते
क्योंकि उनके पास अपना कुछ भी नहीं है
उन्होंने केवल एक चीज सीखी है
वोह है दूसरों को दुःख पहुँचाना
इसीलिए वोह महान हैं
इसी के लिए उन्हें चाहिए
असीमित अधिकार
ताकि जो कुछ बचा है अच्छा
उसे भी वोह कर सकें
पूरी तरह नष्ट
मैं बताऊँ आपको वोह कौन हैं
वो ध्रितराष्ट्र हैं
जिन्हें दुर्योधन के अलावा
कुछ नहीं दिखता
येही है उनकी महानता
इसी इके आधार पर
उन्हें दे दिया गया है
नियम बनाने और उन्हें
लागू करने का असीमित अधिकार
अब आप सोच सकते हैं
वो कैसे नियम बनायेंगें
और किन पर किस तरह लागू करेंगे ?

Friday, March 5, 2010

धर्म के नाम पर मौत

धार्मिक आस्थाओं वाला हमारा भारत देश कितना महान है कि धर्म के नाम पर अकूत कमाई करने वाले संत-महात्माओं को लोगों कि इज्जत और जान कि कोई परवाह नहीं होती और हमारा शासन और प्रशासन भी इतना असंवेदनशील है कि इनके इस तरह के कारनामों पर बहुत देर तक आँखें बंद किए रहता है . अभी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सेक्स रैकेट चलाने के आरोप में एक इच्छाधारी संत गिरफ्तार किया गया जो लम्बे समय से यह धंधा चला रहा था . इसी बीच कर्णाटक में एक अश्लील सीडी सामने आई जिसमे एक संत एक अभिनेत्री के साथ दिखा जिसके बाद वहां के लोगों ने काफी विरोध किया . अब प्रतापगढ़ में कृपालु महराज के भंडारे के दौरान हुई भगदड़ में ७१ जानें चली गईं . इसमें एक चौकाने वाला तथ्य यह है कि मृतकों में एकाध को छोडकर सभी बच्चे और महिलाऐं हैं . एक दूसरा बेहद दुखद तथ्य यह है कि दिन के साढ़े ११ बजे हुई इस दर्दनाक वारदात पर रात १२ बजे तक कोई मामला दर्ज नहीं किया गया था . आखिर इस हादसे में वे गरीब जो मरे थे जो कृपालु महराज का कटोरी -चम्मच तथा १० रूपए पाने के लिए गए थे . अंदाजा लगाइए कि इस भगदड़ में अगर उच्च्च वेर्ग के लोग या विदेशी श्रध्धालुओं कि मौत हुई होती तब भी किया हमारी सरकार और प्रशासन का यही रवैया होता . जरा सोचिए कि कृपालु महराज ने इस बारे में नहीं सोचा कि जब भारी तादात में लोग आ जाएँगे तो उन्हें कैसे संभाला जाएगा ? मतलब कृपालु ने लोगों को मरने के लिए ही बुलाया था . अगर ऐसा न होता तो उन्होंने पहले से इसका इंतजाम किया होता ताकि ऐसे हादसे से बचा जा सकता . प्रशासन ने भी यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि उसे कार्यक्रम के बारे में सूचना नहीं दी गई थी . जरा याद करी लखनऊ में एक मंत्री ने साडी वितरण का कार्यक्रम रखा था जिसमे हुई भगदड़ में कई लोगों कि जान चली गई थी . उस मामले में भी कुछ नहीं हुआ . इसमें भी मरने वालों को ही दोषी ठहरा दिया जाएगा और फिर अगले हादसे का इंतजार किया जाएगा . लगता है धर्म के नाम पर कमाई चलती ही रहेगी और लोग मरने के लिए मजबूर रहेंगे .

Sunday, February 28, 2010

अनिल दुबे की कहानी का पाठ

रविवार २८ फरवरी को वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा के महागुन (इंदिरापुरम) स्थित आवास पर करीब १५ की तादात में मौजूद बुधिजीविओं ने एक गोष्ठी में साहित्यक और सांस्कृतिक संस्था बैठक का गठन किया गया . यह भी तय किया गया कि इसका एक ब्लॉग बनाया जायेगा जिसका जिम्मा चित्रकार लाल रत्नाकर को सौंपा गया . अभी संस्था के पदाधिकारी नहीं चुने गए हैं . संभव है आगे इसकी जरूरत महसूस हो तो ऐसा कर लिया जाए . इसी गोष्ठी में पत्रकार और कहानीकार अनिल दुबे कि कहानी नारायणी का पाठ किया गया . इसके बाद कहानी पर विस्तार से बातचीत भी हुई जिसमे सभी लोगों ने काफी उत्साह से लिया . कुछ लोगों ने कम्जोरियन भी बताई और संपादन कि जरूरत को रेखांकित किया . हालाँकि कई लोगों ने एक मजबूत विषय भ्रूद हत्या के बहाने एक पति -पत्नी के बीच का द्वन्द्वा को काफी प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करने के लिए कहानीकार कि तारीफ भी की . इस गोष्ठी की सबसे बड़ी बात यह रही कि सभी लोगों ने खुलकर अपनी बात रखी और विस्तार से बिना किसी लागलपेट के कहानी के विभिन्न पक्षों पर टिप्पणी की . अंत में तय किया गया कि एक पखवारे बाद १४ मार्च को लाल रत्नाकर के आवास पर अगली गोष्ठी होगी जिसमे प्रसिध फोटोग्राफर जगदीश द्वारा खिची गई फोटोज को देखा जायेगा और उन पर बातचीत कि जाएगी .
असल में यह आयोजन अलग -अलग विचारों का ऐसे एकीकरण का परिणाम है जिसे कई लिखने -पढने वाले लोग अपने -अपने तरीके से सोच रहे थे . इसे जब एक दूसरे के साथ बातचीत में उठाया गया तो यह सोचा गया कि किओं न ऐसे लोग एक साथ बैठें और बातचीत करें . यह माना गया कि रचनाओं का देश, समाज और व्यक्ति के लिए बहुत महत्व होता है . तो किओं न उस पर बातचीत किया जाए . इसी कोशिश के तहत पिछले रविवार २१ फ़रवरी को वसुंधरा (गाजिअबाद ) स्थित अनिल दुबे के घर करीब १५ प्रबुद्ध जन मिले थे . इस बार कि गोष्ठी की एक उपलब्धि यह भी रही कि इसमें करीब पांच नए लोगों ने शिरकत की और वे सभी भी बहुत उम्मीद लेकर गए . अभी शुरू की इन दो गोष्ठिओं की सफलता से सभी इस बात को लेकर आशान्वित दिखे की आने वाले दिनों में यह प्रयास अपनी सार्थकता साबित कर सकेगा . २८ फ़रवरी की गोष्ठी में जिन महानुभाओं ने शिरकत की उनमे वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार तरित कुमार, वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा, राम शिरोमणि शुक्ल, अनिल दुबे, प्रसिध फोटोग्राफर जगदीश, कृष्ण सिंह, केवल तिवारी, पार्थिव, प्रकाश, सुदीप, श्रवन, अमरनाथ झा आदि थे . गोष्ठी की शुरुआत में पार्थिव ने उएनाई की बिक्री के खिलाफ कर्मचारिओं द्वारा पहली लड़ाई जीतने के बारे में विस्तार से जानकारी दी. सभी उपस्थित लोगों ने कर्मचारिओं के संघर्ष को अपना समर्थन दिया .

जबरदस्ती कि ख़ुशी

जरा सोचिए
जब आपका मन दुखी हो
आपके पास कुछ भी न हो
खुश होने के लिए
और आपसे कहा जाए
खुश होने के लिए
सिर्फ इतना ही नहीं
ख़ुशी का इजहार करने के लिए
जरा अंदाजा लगाइए
कितना तकलीफदेह होगा
इस तरह का अहसास
वे आते हैं बहाने बनाकर
कभी त्योहारों के बहाने
कभी परम्रम्पराओं के बहाने
यह अलग बात है कि
त्योहारों और परम्रम्पराओं से
नहीं होता उनका कोई लेना-देना
वे तो सिर्फ उनको दिखने के लिए
खुश होने का नाटक करते हैं
जो लगातार दुःख पहुँचाता है
वे खुद भी हमेशा अपने यवहार से
किया करते हैं प्रताड़ित
पर हम तो मजबूर हैं
उनकी प्रताड़ना सहने को
हम नहीं कर सकते
जबरदस्ती खुश करने का विरोध भी
क्यिओंकी वे कह देंगे
हम खुश नहीं हैं
इसका मतलब हम दुखी हैं
और दुखी होने का मतलब
जानते नहीं आप
यह साबित किया जा सकता है
बहुत बड़ा अपराध और
आपको भुगतनी पड़ सकती है
इसकी बहुत बड़ी सजा
अगर आप तैआर हैं इसके लिए
तभी जाहिर करिएगा अपना दुःख

Tuesday, February 23, 2010

काहे का गुस्सा

अब काहे को गुस्सा हो भाई
अब तो सरकार को सुध हो आई
भले रसोई में दाल नहीं पाक पाई
आप के घर चीनी नहीं आई
फसल को खाद नहीं मिल पाई
बेकार चली गई हो सारी दुहाई
आखिर बढ़ती महगाई पर
जब सरकार ने ही चिंता जता दी
तो अब तो खुश हो जा भाई .

Monday, February 22, 2010

कमाई

अगर बहुत राजनीति के चक्कर में न पड़ें (हालाँकि जरूर ही पड़ना चाहिए) और यह इस तरह की फिल्मों के इतिहास के पचड़े में न पड़ें तो दो बातें माई नेम इज खान देखते हुए महसूस हो रही थीं. एक तो यह क़ि सत्ता का खेल इतना खतरनाक होता है क़ि वह आदमी को कहीं का छोड़ता. सत्ता का खेल इसलिए क़ि इस फिल्म के नायक शाहरूख खान को लेकर जो राजनीतिक दल भिड़ने का नाटक खेल रहे थे वे सब सत्ता पक्छ के हैं क्योंकि फ़िलहाल देश में विपक्च है ही नहीं. इस लिहाज से क़ि किसी का भी मकसद आम आदमी के हितों की रक्चा करना नहीं रह गया है. अगर ऐसा होता तो तब या अब रजनीतिक दल एक व्यावसिक फिल्म को लेकर पूरे देश में बवाल मचाने के बजाय लगातार बढती महंगाई के खिलाफ कोई आन्दोलन करते . लेकिन उनके लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं होता क्योंकि इससे तो उनकी कमाई बढ़ जाती है. दूसरी बात यह कि फिल्म में बीमारी का शिकार नायक उस अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने यह बताना चाहता है कि उसका नाम खान है पर वह आतंकवादी नहीं है जो पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर उसे संरक्चन देने का ही काम करता रहा है . पाकिस्तान को दी जाने वाली भारी आर्थिक मदद इसका साफ उदहारण है . इराक , इरान और अगगानिस्तान में उसकी कर्र्वायाँ भी इसका उदहारण हैं . इसके साथ ही यह भी कि फिल्म में इस बात को स्थापित करने कि कोशिश की गई है अमेरिका के राष्ट्रपति ही यह प्रमाणपत्र दे सकते हैं कि सिर्फ खान होने से कोई आतंकवादी नहीं हो सकता. सब कुछ उन्ही कि कृपा पर निर्भर है . यह कहते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि फिल्म मुसलमानों कि समस्या और संवेदना को समझने के बजाय उसे और जटिल तथा उलझाऊ बनाती है . दरअसल आज कि फ़िल्में हमारे सपनों को भारी कीमत पर बेचती हैं . फिल्मकारों को बुनिआदी सवालों को उचित परिप्रेक्च में समझने कि जरूरत ही नहीं महसूस होती , उनकी चिंता तो सिर्फ अपनी ख्याति और कमाई होती है . इस फिल्म से शाहरूख और करन जौहर अपने इस मकसद में सफल कहे जा सकते हैं लेकिन आम लोगों खासकर मुसलमानों के साथ अन्याय करते ही प्रतीत होते हैं .

Monday, February 15, 2010

बवाल कुर्सी

भाई यह कुर्सी बड़ी बवाल है
किसी की नहीं होती यह कुर्सी
वक्त बेवक्त हिलने लगती है कुर्सी
अक्सर जमीन में धंसने लगती है कुर्सी
कई बार तो पीठ टिकने का
मौका भी नहीं देती कुर्सी
कभी गिरा भी देती है कुर्सी
पेट और पीठ का दर्द भी देती है कुर्सी
कई बार तो जानलेवा तक
साबित हो जाती कुर्सी
जाने क्यों इस सब के बावजूद
लोग नहीं त्यागना चाहते कुर्सी

Saturday, February 6, 2010

अपना रूट नहीं भूलना चाहिए

कल द वीक का नया अंक देखा। इसमें कवर स्टोरी वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह पर जो पिछली दो फरवरी को 95 साल के हो गए। ऐसे समय में जब समाचार पत्र और पत्रिकाएं बाजार को ध्यान में रखकर अपने अंक प्लान कर रहे हों और जो सिर्फ वे विषय चुन रहे हों जिन्हें बेचा जा सके, द वीक ने खुशवंत सिंह पर अंक निकालकर अच्छा काम किया है। अभी कुछ दिनों पहले मुझे उपेंद्र नाथ अश्क याद आए थे जिन्हें अब कोई याद नहीं करता। मुझे लंबे समय से यह खतरा महसूस हो रहा था कि जानबूझकर गुजरे समय के लोगों को भुला देने की सायास कोशिश चल रही है। यह अलग बात है कि अभी भी कुछ अखबारों में खुशवंत सिंह और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों के कालम प्रकाशित होते हैं लेकिन उन्हें जिस तरह से याद किया जाना चाहिए वह नहीं हो रहा है। मुझे याद आता है जब हम बच्चे हुआ करते थे और बड़े हो रहे थे तब कुछ पत्रिकाएं बहुत से आदर से देखी जाती थीं। माना जाता था कि अगर वह किसी विद्यार्थी के कमरे में नहीं है अथवा किसी के घर में उपलब्ध नहीं है तो वह पढ़ता नहीं है। दिनमान, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और इलस्ट्रेटेड वीकली। तब खुशवंत सिंह इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक हुआ करते थे। अब यह सारी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। इनके बंद होने के कारणों पर अलग से बात की जानी चाहिए और आज के पाठकों को यह समझने का मौका मिलना चाहिए। फिलहाल यह कि आज की पीढ़ी शायद ही इन महान पत्रकारों के बारे में जानती हो और अगर ऐसा है तो यह पत्रकारिता की भी जरूरत है कि हम उन्हें लोगों के बीच बेहतर तरीके से ले जाते रहें। यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि जो लोग इन जैसे लेखकों को पीछे छोड़कर आज की बाजार की जरूरतों के अनुरूप नए प्रतिमान गढ़ने की कोशिश में जुटे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी नई जरूरतों के हिसाब से भुलाए जा सकते हैं। इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि आने वाली पीढ़ी को आप इसलिए नहीं याद रह जाएंगे कि आपने कोई ऐसा अच्छा काम नहीं किया जिससे आपको याद रखा जा सके। इस बारे में एक वाकया याद आता है जिसका उल्लेख करना यहां समीचीन होगा। कुछ दिनों पहले कुछ मित्रों के साथ एक समाचार माध्यम में हुए साक्षात्कार को लेकर चर्चा चल रही थी जिसमें अभ्यर्थियों से संपादक कई सवालों के बीच एक सवाल यह भी पूछा था कि वर्तमान दौर के पांच संपादकों के नाम बताइए। तकरीबन सभी अभ्यर्थी एक-दो संपादकों के नाम ही बता पाए थे। बाद में पता चला कि सिर्फ इसी तर्क पर उनमें से किसी का चयन किया गया कि जब इन्हें संपादकों के नाम ही नहीं पता तो ये पत्रकारिता क्या करेंगे। मेरे दिमाग में एक बात उठी कि क्या इस मुद्दे पर इस लिहाज से भी नहीं सोचा जाना चाहिए कि हमारे हाल के किसी संपादक ने क्या ऐसी कोई पत्रकारिता की है जिससे उन्हें याद रखा जाना चाहिए। निश्चित तौर पर पत्रकारिता के विद्यार्थी के लिए बतौर सामान्य ज्ञान इतना तो पता होना ही चाहिए कि किस अखबार और पत्रिका का कौन संपादक है अथवा रहा है लेकिन जरा सोचिए जब हम अपने बड़े संपादकों-पत्रकारों को भुलाते रहेंगे। पद्मश्री और पद्म विभूषण सम्मान प्राप्त दिल्ली और ट्रेन टू पाकिस्तान जैसी कृतियों के रचनाकार खुशवंत सिंह के लिखे को आज भी पढ़ना अपने आप में बड़ी बात होती है। बिना किसी लागलपेट के दो टूक और सच कहने का जैसा माद्दा उनमें वह बिरलों में मिलता है। देश और दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर जिस बेबाकी और सरल तरीके से वह अपनी राय रखते हैं वह काबिलेतारीफ होती है। आप उनके विरोधी हो सकते हैं लेकिन अभी भी उनके कालम में जिस तरह की जीवंतता मिलती है वह किसी को भी झकझोर देने वाली होती है। उनको पढ़ने से लगता है कि वह किसी को भी उसकी गलती के लिए नहीं छोड़ते शायद इसीलिए कि वह किसी से नहीं डरते। आर्थिक रूप से बहुत बड़े आदमी होते हुए भी मध्यम वर्ग की जिंदगी जीने वाले और सभी से सहज ढंग से मिलने वाले खुशवंत सिंह इसलिए भी हम सब के लिए खासे महत्व के हैं कि वे उन विषयों पर भी सात्विक और वैज्ञानिक तरीके से अपनी बात रखते हैं जिन पर आमतौर पर बात करना हम भारतीयों के लिए थोड़ा कठिन होता है। कुछ उदाहरण देखिए-वह कहते हैं मैं महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य और विवाह के बारे में विचारों को नहीं मानता। उनका कहना है कि नैतिकता को थोप नहीं सकते। लोगों को खुद तय करने दीजिए कि वह क्या चाहते हैं। लेकिन वह अहिंसा के सिद्धांत के प्रशंसक हैं। नेहरू के बारे में उनका मानना है कि वह बड़े विजनरी व्यक्ति थे जिसकी मैं प्रशंसा करता हूं लेकिन उनकी अपनी कमजोरियां भी रही हैं। वह कुनबापरस्ती के शिकार रहे हैं जिससे उबर नहीं सके। इसी तरह इंदिरा गांधी के बारे में उनकी धारणा है कि वह हर उस व्यक्ति से अपने को असुरक्षित महसूस करती थीं जो सूचना संपन्न होता था। इतना ही नहीं सोनिया गांधी के भारतीय होने न होने के बारे में उनकी राय एकदम स्पष्ट है। वह कहते हैं कि सोनिया गांधी पवार, संगमा, तारिक अनवर और हमसे भी ज्यादा भारतीय हैं। वह कहते हैं कि हम तो दुर्घटनावश जन्मना भारतीय हैं लेकिन उन्होंने तो भारतीय होना स्वीकार किया है।
भारत विभाजन को मानसिक आघात पहुंचाने वाला मानते हैं। वह मानते हैं कि वह लाहौर में ही रहना चाहते थे लेकिन दंगों ने उन्हें भारत आने को मजबूर कर दिया। वह विभाजन के लिए किसी व्यक्ति और पार्टी को जिम्मेदार नहीं ठहराते । वह बटवारे के तरीके पर अवश्य सवाल उठाते हैं जो वास्तव मे बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह 84 के दंगों के बारे में उनका कहना है कि अभी भी उससे जुड़े कई सवालों का जवाब दिया जाना बाकी है। इसमें से सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसने गुंडों को सिखों को सबक सिखाने का सिगनल दिया। उनका दुख इस बात में झलकता है कि 84 के दंगों के समय मैं अपने को एिलयनेटेड महसूस कर रहा था ठीक उसी तरह जैसे 1930 में जर्मनी में ज्यूज महसूस कर रहे थे।
फिलहाल इतना ही। लेकिन अंत में उनकी यह बात अपील कर गई कि मैं अपने रूट को कभी नहीं भूलता। लाइफ कम्स फुल सर्किल। किसी को भी अपना रूट नहीं भूलना चाहिए। दुर्भाग्य से आज वे सभी लोग जिन्हें किसी कारणवश (भले ही गलती से या गलत तरीके से) कुछ मिल जाता है वे अपना रूट भूल जाते हैं।

Wednesday, February 3, 2010

सिस्टम

यह सिस्टम है
एक पूर्व आतंकवादी को पद्म सम्मान
एक पत्रिका के संपादक को जेल में मौत
इस सिस्टम के बारे में कुछ मत कहो
कविता

राम

एक टेस्ट पोस्ट

कुछ गडमड है

कुछ गडमड है
सामने रसमलाई पड़ी हो
और उसे खाने का मन न करे
क्यारी में खूबसूरत फूल खिला हो
और उसे देखने का मन न करे
प्यारा सा संगीत बज रहा हो
और सुनने का मन न करे
किसी के साथ अन्याय हो रहा हो
और उसका विरोध करने का मन न करे
बच्चा भूख के मारे रो रहा हो
और आपका मन दुखी न हो रहा हो
तो समझ लीजिए कुछ गड़बड़ है .

Tuesday, February 2, 2010

विकास का मतलब

विकास का मतलब

कुछ समय पहले तक
जो ग्रीन बेल्ट हुआ करती थी
वहां खुल गया है पेट्रोल पम्प
जहाँ पार्क था और बच्चे खेलते थे
वहां बन चूका है अपार्टमेन्ट
जिस सड़क के किनारे वाली खाली जमीन पर
गरीब लोग ठेला लगाकर
चला ले रहे थे अपनी जीविका
वहां बना दिया गया है एक मंदिर
वे कहते हैं यह विकास है
हम कहते हैं यह विनाश है
जब हरिआली नहीं होगी
बच्चे खेल नहीं पाएंगें
और गरीब भूखों मरने लगेंगें
तो कौन जाएगा पेट्रोल खरीदने
कौन खरीदेगा अपार्टमेन्ट
और कौन जाएगा मंदिर में पूजा करने
विकास का तभी मतलब होगा
गरीब को भी अमीर बनाया जाएगा
लेकिन यह करेगा कौन
कम से कम वह तो नहीं
जो अभी लगा है विकास की लूट में .

Friday, January 29, 2010

तीन कवितायं

करना और दिखना

बास ने सहयोगी से कहा
काम करना ही काफी नहीं
काम करते हुए दिखना भी चाहिए
सहयोगी ने अपनी अंधभक्ति में
इसे भी स्वीकार कर लिया
और काम करना बंद कर
सिर्फ दिखाना शुरू कर दिया
बास का कहा तो हो गया
काम तमाम हो गया
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भोंकना

यह बताने की जरूरत नहीं क़ि
जो भोंक रहा है वह कौन है
और क्यों भोंक रहा है
वह कुत्ता है गली का ही नहीं
मालिक के साथ महल में रहने वाला भी
असल में वह डरा हुआ है
खुद के अस्तित्वा से, किसी अज्ञात खतरे से
अपने उस मालिक से भी
जो उसे अपनी सुरकचा के लिए पाले हुए है
भोंकना उसकी निअति है
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अंत नहीं

चुनाव में हार के बाद
किसी के निधन के बाद
कुछ लोगों को मरवा देने के बाद
यह मत कहो या मानो क़ि
उस विचारधारा का अंत हो गया
विचारधारा बनी रहती है
उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता
जो ऐसा कहते हैं
उन्हें मूर्ख अवश्य कहा जा सकता है .

Thursday, January 28, 2010

गणतंत्र दिवस

कल एक टीवी सीरिअल को देखते हुए हम लोग अचानक एक खास विषय पर बात करने लगे जब हमारी बेटी संध्या ने कहा क़ि हाँ, सही बात है अब अच्छे कार्यक्रम कहाँ होते हैं. अपनी सोसाटी में ही देखिए गणतंत्र दिवस पर क्या हुआ. झंडा फहराया गया यह अच्छी बात है पर कोई बात नहीं की गई . देखिए नए साल पर इन्ही लोगों ने आर्केस्ट्रा रख दिया और वहां कितनी अराजकता हुई. अगर गणतंत्र दिवस पर कोई गोष्ठी ही रखी गई होती तो लोगों को कम से कम अपने नायकों के बारे में कुछ पता चलता और उनके आदर्शों से हमें कुछ सीखने को कुछ मिलता . मुझे लगा वाकई यह बहुत महत्वपूर्ण बात है . इसी के साथ मुझे यह भी लगा क़ि संभव है क़ि ऐसा जानबूझ कर किया जा रहा हो . मुझे याद आया क़ि पहले स्कूलों में गणतंत्र दिवस बहुत उत्साह से मनाया जाता था . अब तो उस दिन छुट्टी कर दी जाती है . तब इस दिन के प्रधानाचार्य के भाषण सुनकर भगत सिंह और चंद्र्शेखेर आजाद बनने का मन करता था . अब शायद लोगों को इन महापुरुषों क़ि जरूरत नहीं रह गई है .

Tuesday, January 26, 2010

उसे मरने दो

अंधरे के आगे रोवै, आपन नैना खोवै. और भैस के बीना बाजै भैस खड़ी पगुराई. यह सिर्फ कहावतें नहीं हैं . जरा सोचिए उस आदमी के बारे में जो काम करते - करते मरता रहता है और एक आदमी मजा लेता रहता है .मजा लेने वाला यह नहीं जानता है क़ि वह काम करने वाले के साथ जो अन्याय कर रहा है उसकी सजा वह भुगतेगा किसी न किसी तरह . काम करने वाले को तो काम करना ही है लेकिन काम करवाने वाले यह भूल जाते हैं इसी काम करने के दौरान वह उसके साथ अन्याय करने वाले क़ि कब्र भी खोदता रहता है . यह अलग बात है क़ि यह काम करवाने वाले को बहुत देर तक समझ में नहीं आता . जब तक उसे समझ में आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और कब्र उसके करीब आ जाती है . इसलिए हे काम करवाने वालों मेरा यह नेक सुझाव है क़ि काम करवाने वालों के श्रम और उनकी मजबूरिओं को समझो नहीं तो मुई खाल क़ि साँस सो सार भस्म होई जाए वाली कहावत ही चरितार्थ होगी .अभी भले ही आपको गलती से आपको काम करवाने का अधिकार मिल गया हो लेकिन यह आपके पास हमेशा रहने वाला नहीं है . प्रकृति का डंडा बहुत खतरनाक होता है . वह जब चलता है बड़े -बड़ों के लिए जानलेवा साबित होता है . आप किस खेत क़ि मूली हो . लेकिन ऐसा बहुत कम होता है क़ि समय रहते इतनी छोटी सी बात समझ में आ जाए . समझ में तब आती है जब बहुत देर हो चुकी होती है . तब हाथ मलने और किस्मत पर रोने के अलावा कुछ नहीं बचता . कम करने वाला तो कम करके गुजारा कर लेगा लेकिन कम करवाने वाले के सामने तो भूखों मरने क़ि नौबत आ जाएगी . फ़िलहाल उसे भूखों मरने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह इसी लायक ही . उसके प्रति किसी तरह क़ि दया नहीं दिखानी चाहिए .

Monday, January 25, 2010

कविता

ख़ुशी
ख़ुशी नाम है एक लड़की का
बमुश्किल होगी वह पांच साल कि
हमेशा खुश रहती है
हमें और हमारे परिजनों को भी
खुश रखती है अपनी बोली से
वह अक्सर फुसफुसा कर बोलती है
कहती है मैं खाना खाऊंगा, गाना गूंगा
अगर आप नहीं जानते कि वह लड़की है
तो यही मानेंगे कि वह लड़का है
किसी को लग सकता है कि
उसे ठीक से बोलना नहीं सिखाया गया
मुझे लगता है इसमें कोई बुराई नहीं
जो स्वाभाविक है वही होना चाहिए
यह नहीं कि वह लड़की है
इसलिए उसे लड़की कि तरह बोलना चाहिए

Sunday, January 24, 2010

कोशिश

आज बहुत देर से इस कोशिश में लगा था कि अपने ब्लॉग पैर कैसे हिंदी में लिख सकता हूँ पैर तमाम कोशिशों के बावजूद सफलता नहीं मिल रही थी. आखिर एक उपाय सूझा कि क्यों न जीमेल पर जाकर देखा जाए कि वहां हो सकता है कि नहीं . वहां मुझे सफलता मिल गई . फिर उसे कापी करके ब्लॉग पर ले आया कि देखूं प्रकाशित हो सकता है या नहीं .

Friday, January 22, 2010

al is not wel

film ke bare akser kaha jata hai ki yeh keval manoranjan ke lie hoti hain per main isse sahmat nahi ho pata. filmen agar keval manoranjan hoti to ek jamane me log sadhana kut bal ke divane na hote. devanand ki tarah safed shirt aur kali pant, amitabh bachan ki tarah gale me shal lapetane ka faishan nahi chalta. filmi tarj per apradh ki ghatnayen nahi hoti. yeha tak ki bachche spiderman nahi bante aur chatra atmhatayen nahi karte. iska matlab yeh hua ki filmen manoranjan se bhi jyada bahut kuch hoti hain. manoranjan bhi kai tarah ka hota hai. inme se ek hota hai swasth manoranjan. manoranjan ke nam per vidrupta ya ashleelta, jugupsa adi ko badhawa dene ko kisi bhi tarah se manoranjan nahi kahna chahie. yeh sab baten mujhe kal rat three idiats film dekhte hue mahsoos ho rahi thi. is film ko leker pichale kafi samay se bahut sari baten sunai de rahi thi aur her nai bat ke bad lagta tha ki ise dekhana chahie. tare jameen per ki majboot kahani ke bad amir khan ko kafi sohrat mili thi. kaha ja raha tha ki yeh uske age ki film hai. amir khud rahasyamay tarike se desh bhar me ghoom-ghoom ker iska prachar ker rahe the. film ne ek saptah ke bad hi rikard kamai ker li, ise bhi bahut pracharit kia gaya. iske chatron dwara atmhatyaon ki khabren ane lagi. isi beech film ke kahanikar chetan bhagat ka vivad bhi tv chanlon per kafi dikhaya gaya. kahe ka matlab yeh ki logon ko yeh film dekhne ko majboor ker dia gaya aur achchi kamai ka poora bandobast. yeh film dekhate hue ab se kuch samay pahle ki do baten dhyan me aa rahi thi. ek manoj wajpey ka yeh kahna ki ab filmen darshak nahi taya karte. dusra jab lafter chalenj aa raha tha tab mere dimag me yeh sawal ata tha ki hamare pas koi nayak nahi hai so her koi apne tareeke se apna nayak bana raha hai. usi me raju shriwastawa jaise mashkhare laye gae aur kaha gaya yehi hasya hai. tab mujhe laga tha sharad josi ke vyangya ka kya hoga. yeh film dekhte hue bhi lag raha tha ki yeh kahna galat hai ki log jo dekhana chahte hai wahi filmon me dikhaya jata hai. ham kahna chahte hain ki log majboor hain wah sab kuch dekhne ke lie jo unhe dikhaya ja raha hai. is film me parosi gai vidrupta se man khinna ho gaya. kareeb do dashak pahle ek film dekhi thi wajood. jin logon ne dekhi hogi unhe pata hoga ki malhar (nana pateker)ne kya kurbanian di thi. wah film kai karnon se behad achchi thi (bina kisi vidrupta ke). koi bhi yeh kah sakta hai ki kisi ke dekhne me ashleelta ho sakti hai lekin jara sochie ki kya raging dikhane ke lie lain me ladkon ko nanga dikhana hi jaroori tha, padhne wale ladkon ko disterb karne ke jie kya ashllel pustken hi unke kamron me dali ja sakti thi. jab sab kuch sambhav ho ja raha hai to yeh bhi ho sakta hai ki injeeniaring ke us chatra ko balatkar ka arth na pata ho jo class me first aata raha ho lekin jis tarah balatkar ko mahimamandit kia gaya wah kya gaurwanwit hone wali bat hai ya sharm ki bat. ek sahpathi ke beemar pita aur uski ma ka jis tarah majak banaya gaya wah akchamya hai. injeeniaring ki shikcha ko leker jis tarah ka majak banaya gaya hai wah bhi adhkachara hi lagta hai. film me keval kaleg ke principal aur chatra ke pita ko dushman ki tarah pesh kia gaya hai. us sarkar ko chua bhi nahi gaya hai jo shikcha vyawastha banati hai. agar shikcha vyawastha chatron ko unki ruchi ke anuroop unka nirman karne wali banai gai hoti to principal aur pita kya dosh hota. (jri rahega)

Thursday, January 21, 2010

khladion ka kya dosh

kal ipl ke khiladion ki nilami hui. jab se khiladion ki nilami shuru hui hai tabhi se mujhe bura lag raha tha. kal ki nilami me kisi pakistani khiladi ko na lia jana bahut bura laga. pakistan vibhinna tarike se bharat ke sath anyay kerta raha hai. iska virosh kia jana chahie ya uska muhtod javab dia jana chahie lekin mere yeh samajh me nahi ata ki khiladion se kya dushmni hai. ek jumla hamesha bola jata hai. khel ko khel ki bhawna se khela jana chahie. waise yeh jumla hi apne ap me nae vishleshan ki mang karta per kam se kam itna to dhyan rakhna hi chahie. dono deshon ke log bharat aur pakistan ke logon ke beech parspric sauhard ki bat karte hain per kuch log (khasker dono deshon ki sarkaren) nahi chahte ki dosti kayam ho aur dushmani khatm ho. khiladi chahe kisi bhi desh ka ho, usko dunia ka her khel premi chahta aur samman karta hai. khiladion ne kisi ka kuch nahi bigada hai. phir unhe kyo saja mile. kahte hain na ki kare koi aur bhare koi. ipl ke lie hui nilami me pakistan ke khiladion ke sath jo hua uske bare me yehi kaha ja sakta hai aur yeh uchit nahi hai.

Sunday, January 17, 2010

shradhanjli

makpa neta jyoti basu bahut mahan the. unke bare me kuch bhi kahne ki himmat mujhme nahi honi chahie. iske bavjood main apne ko rok nahi pa raha hoon. dophar 12 baje ke kareeb maine tv ka rimot yah kahte hue uthaya tha ki lao dekhen desh ka kya hal hai. tv on hote hi dukh se bhare makapa ke varishtha neta viman bose aate dikhai die tabhi mere muh se nikla lagta hai jyoti babu nahi rahe. iske sath hi unhone yeh dukhad khabaer sunai ki jyoti basu ab hamare beech nahi rahe aur apne ko rone se rok na sake. koi bhi shriday admi is khaber ke bad dravit hue bina nahi rah sakta chahe wah kitna hi kamunist virodhi kyon na ho. jyoti basu ki jitni bhi visheshtayen hain unme se sabse badi yeh thi ki wah sab ke pria the. rajneetik virodh ke bavjood atal bihari vajpai, mamta banarji aur sidharth shanker rai ke bhi. isi beech mere dimag me ek bat aai ki kya basu bhi vajpei ki tarah sarvpria neta rahe. vajpei ke bare me aamtaur per kaha jata hai ki wah sanghi hone ke baojood sabhi ko achche lagte hain. mujhe yeh bat kabhi samajh me nahi aai ki sangh aur uski vichardhara ko bhagwan manne wala vyakti kaise sabhi ka pria ho sakta hai. yeh vajpei hi hain jinhone godhra dango ke dauran gujrat sarkar aur waha ke apni party ke mukhyamantri narendra modi ke khilaf kuch nahi kia siway unki alochana karne ke. usi tarah basu ko leker bhi leker bhi mere man me sawal uthta raha hai. ek kamunist kisi pujipati ko kaise achcha lagega. mai jab chota tha aur kuch janne samjhne laik ho raha tha tab sunta tha ki her gaon se ek na ek admi kolkata kamane ke lie jata tha. jahir hai tab waha factaria aur udyog rahe honge. ab waha aisa kuch nahi hai. yeh wahi 23-30 sal hain jab waha ke mukhyamantri jyoti basu rahe ya unki parti ke budhdev bhattacharya. kamunist partia andolan aur sajwad ke lie jani jati jati hain. mujhe yad ata ki is dauran pashchim bangal me makpa ne koi janandolan chalaya ho, naksalwadion ki hatyaen jaroor karai. bhale hi wah sidharth shanker rai ki tarah na karai ho. yeh naksli usi bhakpa ke tute hue log the jis bhakpa ke tute hue logo me makpai the. yeh sansdia rajneeti aur sashtra sangharsh ko leker vivad tha jo abhi kamunisto me chal raha hai. aise me nakslio ko dushman kaise mana ja sakta hai. sansdia rajneeti ki wakalat karne wale aur rajya me sarkar banane wale kendra me sarkar banane se kyo katrate hai. shesh age fir

Saturday, January 16, 2010

bagal me hona

jara sochie us jagah ke bare me
jo kisi tarah apko bhatee na ho
un logon kebare me sochie
jo lagatar apke bagal me baithte hon
aur jinki ek bhi harkat
ya ek bhi bat na suhati ho apko
jo lagatar karte rahte hon anargal pralap
jinka kuch bhi nahi hota apna
jo hamesha karte rahte hain
apne aka ki chatukarita
jinhen kisi ke marne per nahi hota dukh
na kisi ke paida hone per hoti hai khushi
jo na kabhi haste hain na kabhi rote hain
jo na kabhi gussa hote hain
na kabhi naraj hote hain
kaha jae ki hamesha rahte hain nirvikar
jara sochie aise damghotu mahaul ke bare me
agar iske bad bhi koi kahega
ki isme bura kya hai
to main sochuga
aisa sawal karne wala bhi
un logon se bhinna nahi hai
jo mere bagal me baithte hain
aur ant me
her kasht asahneeya hota hai
per usse bhi jyada asahneeya
hota hai ek moorkh ka bagal me hona.

trilochan ke bahane ashk

aj bachon ke sath sahitya per batcheet chal rahi thi. asal me kal rat maine apne bete ruchir ko internet per kathadesh me prakashit rajesh ka trilochan ke sath ek sakchatkar padhane ko kaha tha. usne uska wachan kia tha. aj usi ke bahane ham log (patni girija, bete ruchir, beti sandhya, bhatije ambuj) nirala, mahadevi, rahul sankrityayn, galib samet anya kvion-lekhakon ke bare me bat ker rahe the. isi dauran bete ne upendra nath ashk ka jikra aya. maine bataya ki kaise ham log allahabad me chatra jeevan ke dauran parivesh sanstha ke baner tale her sal nirala jayanti manate the. lekin usi dauran mejhe yeh khayal aya ki wahi allahabad apne jeewant lekhak ashk ko kyon nahi yad karta. unhone bahut sari rachnae dee hain. mai kah sakta hu ki unhone pura jeevan sahitya ko samarpit kar dia tha. unki rachnaon ke bare me koi kuch bhi kah sakta hai lekin unke hindi sahitya ke prati samrpan ko bhulaya nahi ja sakta. kahna chahoonga ki abhi tak nahi kia to ab to yad karna hi chaie.

Thursday, January 14, 2010

sanvedna

ise kya kahenge. samvedanheenta ya amanveeyata. jis rti ko hamara sabhya samaj badi kranti batate hue thak nahi raha hai, uske ek karyakarta ki hatya ker di jati hai aur ek apne ko padha-likha samjhdar kahne wala vyakti apne sahyogi se rat ke ek baje sarvajnik roop se besharm ki tarah kahta hai ki are vah satish shetty mar dia gya. tum jante nahi, vahi jo baderpur me rahta hai. he he he he . dhyan dene ki bat hai ki shree shetty ne kai jameen ghotalon ke bare me rti ka darwaja khatkhaya tha. ham kuch nahi kah rahe siway iske ki jara sochie ham kaise samaj me rah rahe hain.

Friday, January 8, 2010

ek aur kavita

kaise milega nyay

wah kar chalata tha
lekin kar ka malik nahi tha
wah matra chalak tha
isile karrwai usi per hui
us per nahi jisne use de thi
ma-bahan ki galian
aur dekh lene ki dhamki
uska dosh sirf itna tha ki
usne kar wahan le jane me
vyakta ker di thi asmarthta
jaha tak kar ja hi nahi sakti thi
aur bad me usne kar di thi
uski shikayat jisne use di thi galian
asal me use yah pata hi nahi tha ki
wah jis admi ko uske darwaje tak
nahi pahucha pa raha tha
wah koi aam admi nahi tha
tha us sanstha ke bade adhikari ka karibi rishtedar
jiske admi ko use ghar tak chodne ki jimmedari
tabhi to us bade adhikari ne
kisi anya saopne ke bajay
khud hi ban gaya janch adhikari
aur chala gaya shikayat ki janch karne
na kisi gavah ko suna na sakchya jutya
itna hi nahi faisla bhi turant suna dia
ki chalak ko karya mukt kar dia jae
aur naya chalak admi ke darwaje tak le jaega kar
aur phir ghar ke bheetar bhi pravesh karaega
yah wahi bada adhikari hai
jo kisi bhi shikayt ko karta rahta hai ansuna
is bar to uske adami ki ho gai thi shikayat
uske lie to kuch karna hi tha
jara sochie kisi am admi ko
kaise milega nyay

Saturday, January 2, 2010

kavita 2

kavita 2

jo sistem ki bat karte hain
vo understanding ko mante hain
darasal poora sistem hi understanding hai
understanding is bat kee ki
kaise apnon ko vah sab karne ki choot di jae
jo anaytik hai, jo sistem ko todta hai, aur fir
kaise upnon ke har aise pap ko sanrakchit kia jae
darasal yahi sistem hota hai
ab kahne ke lie chahe jitni adarsh ki baten kahi jaen
islie kisi ko is mugalte me nahi rahna chahie
ki sistem aam logon ke lie hota hai
sistem to bas khas logon ke lie hi hota hai
aur khas logon ki anaytiktaon ko chipane ke lie hota hai
isilie to sistem banane wale aur uski rakcha karne wale
apne hit me uska upyog karte hain
aur jiske lie sistem banta hai
wah to keval bhugtane ko majboor hota hai