Thursday, January 20, 2011

मेरे मित्र कृष्ण सिंह वैज्ञानिक चिंतन और बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं। उनके गंभीर विषयों पर लिखे लेखों से बहुत लोग परिचित होंगे पर संभवतः कम लोगों को यह पता होगा कि वे अच्छी कविताएं भी लिखने लगे हैं। उनकी रचनात्मकता के इस रूप को सामने पाकर हर उस परिचित को खुशी होगी जो चाहता होगा कि उनकी रचनात्मकता परवान चढ़े। बहुत अल्प समय के संपर्क के दौरान मैंने उनकी इस कला को समझा और उन्हें इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को सामने लाने के लिए लगातार उकसाता रहा। कह सकते हैं कि हमें (उन्हें भी) इसमें सफलता मिली और एक दिन जब चुपके से यह कविता (शायद औपचारिक रूप से पहली) लिखी और मेरे सामने रखी तो मैं फूला नहीं समाया। कड़वी सच्चाइयों को बेहद सरल तरीके से सामने रखने के बावजूद जितनी गहरी टिप्पणी इस कविता के माध्यम से कृष्ण ने एक चरित्र विशेष पर की है वह काबिलेतारीफ है। मुझे लगा कि इसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि अन्य लोग भी उनकी इस कलात्मकता का रसास्वादन कर सकें। देखिए, पढ़िये और अगर कुछ हो तो बताइए।-------------

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सिस्टम का पुर्जा
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चुप्पी से सिहर उठता है वह
सच बोलता हूं तो पाल लेता है जन्मभर की दुश्मनी
उसके हमशक्ल बैठे हैं अलग-अलग कुर्सियों पर
वह कहीं भी मिल जाता है
बंद कमरे में, गली में, चौराहे पर, राह चलते और भीड़ में
अक्सर पास बैठ हुआ।
अपनी मूर्खता और कमीनेपन का
उसे एहसास है अच्छी तरह
उसकी बातों पर चेले लगाते हैं ठहाके
मौका मिलते ही सुनाने लगता है
अपनी कमीनगी के 'चमत्कृत किस्से।
पर हमेशा रहता है परेशान कि
मैं नहीं मिलाता उसकी हां में हां
जबकि वह चाहता है सब उसके सामने खड़े रहें नतमस्तक
जैसे वह खड़ा रहता है अपने से बड़ी कुर्सी के सामने
जी हां, हां जी, जी हां,
हैं, हैं, हां, हां
अक्सर ऊंची कुर्सी वाले से खाता है खूब गालियां
लेकिन कमरे से निकलते ही
नीचे वालों पर जमाने लगता है रौब
यही सिस्टम है
और वह इस सिस्टम का एक पुर्जा।

कृष्ण सिंह


2 comments:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

hamar ird gird aise systmi purje her roj dikh jaate hain

वर्षा said...

कविता पढ़ना शुरू करते ही नौकरीपेशा लोगों के दिमाग में उनके अपने 'उस' पुर्जे की तस्वीर आंखों में जम जाती है।