Sunday, January 2, 2011

कनाट प्लेस में ३१ दिसंबर २०१० की रात

पिछले साल भी यही हुआ था लेकिन तब दिमाग यहां तक नहीं गया था। इस साल भी न जाता अगर मेरे साथी ने जिद की होती कि आइए चलें दमघोंटू माहौल से बाहर निकल बाहर की खुली हवा में सांस लें। यह जानते हुए भी कि सड़क पर किसी को भी निकलने नहीं दिया जा रहा है। सैकड़ों की तादाद में पुलिसकर्मी किसी भी आने-जाने वाले आम आदमी को लौट जाने की हिदायत दे रहे थे। यह ३१ दिसंबर २०१० की दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस की रात थी। कोई दस बजा रहा होगा जब हम दोनों घुड़सवार पुलिसवालों की धमाचौकड़ी और वज्र वाहनों के बीच से गुजरने की जुर्रत करने की कोशिश कर रहे थे केवल खुली हवा में सांस लेने के लिए पर बाहर तो इमरजेंसी और कर्फ्यू जैसे हालात थे। इसके पहले भी एक बार करीब सात बजे के हम लोग निकले थे आइसक्रीम और पान खाने के लिए। तब देखा था कि दस-दस, बीस-बीस की संख्या में पुलिस वाले किसी भी खोंमचे वाले या आम आदमी को तत्काल कनाट प्लेस छोड़ देने के लिए सख्ती से हिदायतें दे रहे थे और ज्यादा नहीं करीब आधे घंटे के भीतर कनाट प्लेस को खाली करवा लेने में सफल भी रहे थे। रात दस बजे एकदम सन्नाटा। तब इक्कादुक्का लोग आ जा रहे थे और हम लोग भी हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ते रहे। जैसे-जैसे आगे बढ़ते रहे, वैसे-वैसे नए-नए मंजर सामने आने लगे। मैक्डोनाल्ड खुला हुआ था और उसमें काफी भीड़ मौजूद थी, रोडियो में भी जश्न चल रहा था, एक अंग्रेजी नाम वाले रेस्टोरेंट कम बार में तेज आवाज में पाश्चात्य संगीत बाहर तक सुनाई दे रहा था जिससे साफ लग रहा था कि अंदर नए साल का कैसा जश्न मनाया जा रहा है, कैसल लाइन तक पहुंचते-पहुंचते सारा भ्रम दूर हो गया और अचानक महसूस हुआ कि आखिर कर्फ्यू जैसे हालात क्यों पैदा किए गए थे। वैसे तो कहने को इसके पीछे सुरक्षा का कारण बताया गया था और उसके पहले से आतंकी खतरे की आशंका जाहिर की गई थी लेकिन लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इन कुछ पैसे वालों को जश्न मनाने में किसी तरह की दिक्कत न पेश आए, इसलिए आम आदमी को दूर कर दिया गया हो। यह सवाल अपने आप आया कि अगर इन महंगे होटलों में देर रात तक सब कुछ चल सकता है तो गुब्बारे, सरककंदी, पान और आईसक्रीम आदि बेचने वालों को क्योंकर भगा दिया गया। तो क्या यह सब कुछ उन खास लोगों की खुशामदी के लिए किया गया? तो क्या वाकई सुरक्षा व्यवस्था को खतरा खोंमचे वालों और गरीबों से था? इस तरह के सवाल उठते ही हमारे सहकर्मी ने सहज ढंग से बताया कि यह कोई कठिन सवाल नहीं है बल्कि बहुत सामान्य सी बात है कि हमारे उदारवादी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री किसके हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं। उनके लिए गरीबों और आम आदमी का कोई मतलब नहीं है। वह तो इस खाई को लगातार चौड़ी करने में लगातार सफल भी हो रहे हैं। संभव है कि वाकई कोई आतंकी खतरा रहा हो, और अगर ऐसा हो तो उससे निपटने की पुख्ता व्यवस्था की ही जानी चाहिए लेकिन क्या गरीब और आम आदमी को पूरी दुनिया से काटकर ही ऐसा किया जा सकता है? अगर नहीं तो कुछ गिनती के लोगों के ऐशो आराम के लिए ही क्या यह सब किया जाना नैतिक है? नहीं है, पर हो तो यही रहा है। गरीबों के लिए नए साल का क्या मतलब? मतलब तो उनके लिए है जिनके पास अकूत पैसा और अकूत ताकत है। आखिर वही आदमी जो हैं और उन्हें ही है खुश होने का अधिकार है। बड़े-बड़े होटलों में खुशियां मनाने के सारे इंतजाम थे, हमें तो न आइसक्रीम मिली न पान ही मिल सका फिर भी हमें करना पड़ा नए साल का स्वागत क्योंकि यह उनका मौन व्यावसाइक आदेश था कि हमें भी नए साल पर लाख दुखों के बावजूद खुश होन होगा सो होना पड़ा। अच्छे लोगों को तो मुबारकबाद देनी ही थी, उन लोगों को भी देनी पड़ी जिनके प्रति शुभकामना का भाव रखना ही अपने आप में कष्टकारी होना चाहिए।

1 comment:

kewal tiwari केवल तिवारी said...

हमारे बुजुर्ग हमें बताते थे कि त्योहार इसलिए बनाए गए कि गरीब भी कम से कम एक दिन कुछ अच्छा बना-खा ले। लेकिन आज के समय में यह सब भ्रांति लगती है। बात जश्न की हो, मौसम का मजा लेने की, गरीबों के भाग में सिवा दुत्कार और नून-तेल के लिए भागदौड़ के कुछ लिखा ही नहीं है। फिर नए साल के जश्न में किसी ने हिम्मत दिखाई भी कि कुछ एंजॉय वह भी कर ले तो या तो लुटिया बिकेगी या फिर इज्जत।