Saturday, May 21, 2011

हम भी ना उम्मीद नहीं


कहते हैं उम्मीद पर दुनिया टिकी है। हम भी इसी दुनिया में रहते हैं सो हमें भी कोई कम उम्मीद नहीं है कि कभी हम भी शैशवावस्था से युवावस्था में पहुंच जाएंगे और तब तक हमारा लोकतंत्र अवश्य परिपक्व हो जाएगा। इसीलिए नाउम्मीदी को फटकने नहीं देते। अलग-अलग किस्म की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं को ज्यादा बेहतर समझने वाले कहते हैं कि अमेरिका में हमसे भी बड़ा और ज्यादा लोकतंत्र है। शायद इसीलिए हमारे जैसे महान लोकतंत्र के महान नेता उसकी चाटुकारिता में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। संभव है वे यह दिखाना चाहते हैं कि हमारे लोकतंत्र में जो थोड़ी-बहुत कमी की गुंजाइश रह जा रही है वह अमेरिका से सीखकर उससे भी बड़े लोकतंत्र वाले हो जाएंगे। कुछ अन्य लोगों की तरह ही हम भी यह समझते हैं कि इस व्यवस्था में लोकतंत्र की गुंजाइश बहुत कम है लेकिन जो है (दिखावा ही सही) उसका निश्चित ही स्वागत किया जाना चाहिए। जो लोग लोकतंत्र की इच्छा रखते हैं और उसे मजबूत देखना चाहते हैं (आस्था रखने वाले नहीं) वे स्वागत योग्य हैं। लेकिन केवल लोकतंत्र के स्वागत करने से चीजें बहुत ठीक होने वाली नहीं हैं। इसमें क्या कमियां हैं और उन्हें कैसे दुरुस्त किया जा सकता है, इस पर लगातार काम करना होगा। कुछ अखबारों में इस बारे में लिख देने अथवा टीवी या संगोष्ठियों-बैठकों में इस पर आदर्श बतिया लेने से भी बहुत कुछ नहीं होने वाला है। हम असल में अपनी अच्छाइयों पर इतने मंत्रमुग्ध होने वाले लोग हैं कि उसी में डूबते उतराते रहते हैं। अब जैसे जेसिका लाल हत्याकांड और अयोध्या पर आए फैसले हैं। हम इस बात पर फूले नहीं समाते कि देर से ही सही, न्याय मिलता हैं। लेकिन इस देर में कितना कुछ नष्ट होता है और क्या हर कोई इतना झेल पाने की कुवत रखता है, इस बारे में भी सोचा जाना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसी जेसिका एक ही होती है। इस देश में न जाने कितनी ऐसी जेसिका होंगी जिन्हें कोई नहीं जान सकता। अभी कुछ दिनों पहले मेरी अपने एक मित्र के साथ बात हो रही थी जिसमें उसका कहना था कि एक बिनायक क्यों । उन हजारों बिनायकों के बारे में क्या कोई जानता है जो ऐसे ही फर्जी आरोपों में कई जेलों में वर्षों से सजा भुगत रहे हैं। मानिए या न मानिए उन्हें कभी न्याय नहीं मिलेगा क्योंकि उन्हें न्याय दिलाने वाला कोई है ही नहीं। हम इस बात पर खुश हो सकते हैं और होना भी चाहिए कि कम से कम यह तय हो पाया कि जेसिका लाल की हत्या की गई थी और किसी ने उसकी हत्या की थी अन्यथा हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था ने तो यह तय कर दिया था कि उसकी हत्या किसी ने नहीं की। यही हमारा चमत्कारिक कर देने वाला लोकतंत्र है जिस पर हम मंत्र मुग्ध होते रहते हैं। जरा सोचिए अगर वह किसी गरीब किसान अथवा मजदूर की बेटी होती तो क्या होता? यही हाल अयोध्या को लेकर हुआ। संभव है सुप्रीम कोर्ट कोई व्यवस्था दे ही दे लेकिन हाईकोर्ट ने जो फैसला दिया उसे क्या कहेंगे। उसने तो उस रामलला को भी जमीन देने का आदेश दे दिया जिसका कोई भौतिक अस्तित्व ही नहीं है। रही बात आस्था की तो उसके बारे में कहा जाता है कि उस पर कोई तर्क वितर्क नहीं किया जा सकता, वह अंधी होती है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हाईकोर्ट में जितने भी पक्ष गए थे उनमें से किसी ने बटवारे की अपील नहीं की थी, सभी मालिकाना हक के लिए गए थे और हाईकोर्ट ने सभी को कुछ न कुछ देने का आदेश दे दिया। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फैसले पर भी बहुतायत आस्थावान बेहद खुश थे। यहीं यह सवाल उठता है कि हमारे देश की जनता लोकतंत्र और न्याय जैसे शब्दों और इन अवधारणाओं के बारे में कितना कुछ जानती-समझती है और जिस देश के लोगों की समझ इस तरह की हो उस देश के लोकतंत्र के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
आज ही कुछ बातें दिमाग में चल रही थीं। पहले भी चल रही थीं। कनिमोझी की गिरफ्तारी के बाद करुणानिधि बहुत द्रवित हुए। करुणानिधि कनिमोझी के पिता हैं। पूछने पर उन्होंने कहा कि अगर आपकी बेटी के साथ ऐसा होता तब जो आपको जैसा महसूस होता वैसा ही मुझे हो रहा है। मेरे दिमाग में एक सवाल उठा कि क्या करुणानिधि ने कभी यह भी सोचा कि जो उनकी बेटी नहीं हैं वे भी किसी की बेटी हैं। तमिलनाडु विधानसभा और लोकसभा में द्रमुक सदस्यों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि करुणानिधि का पूरा खानदान (कुछ को छोड़कर) वहां मौजूद है। मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्री तक उनके परिवार से हैं। वे इस लायक हैं तो उन्हें भी विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री, मंत्री बनना और बनाया ही जाना चाहिए तब भी पूरा खानदान सत्ता में होना कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है। अब लोग कहते ही हैं कि आप भी चुनाव लड़ो और जीतो, कौन रोकता है। अवश्य कोई नहीं रोकता तो क्या इससे तय हो जाता है कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अब एक बार फिर हम इस पर खुश हो सकते हैं कि जो गलत करेगा उसे जनता पांच साल बाद सत्ता से बाहर कर देगी, जनता ने कर भी दिया। लेकिन हुआ क्या? यही न कि करुणानिधि की जगह जयललिता आ गईं वही जयललिता जिसे पिछले चुनाव में जनता ने सत्ता से बाहर कर दिया था। तमिलनाडु में यही क्रम चल रहा है। जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। इन्हीं में से चुनना है। कहते हैं तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार ने काफी भ्रष्टाचार किया है। कुछ लोग कहते हैं परिवारवाद से जनता आजिज आ चुकी थी। जयललिता के साथ परिवारवाद की बात तो नहीं की जा सकती लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में जयललिता और करुणानिधि में जैसे आगे निकलने की प्रतिद्वंद्विता है कि कौन किससे बड़ा है। पिछले विधानसभा चुनाव में वह भी भ्रष्टाचार के कारण ही हारी थीं। इस बार करुणानिधि हार गए। किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अगले विधानसभा चुनाव में करुणानिध की पार्टी फिर चुनाव जीत जाए और कोई स्टालिन मुख्यमंत्री बन जाएं। यही है हमारा लोकतंत्र, महान लोकतंत्र।
संभव है कनिमोझी निर्दोष हों और उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया हो। बाद में लालू और आडवाणी की तरह वे भी बरी हो जाएं। तब भी कुछ सवाल तो उठते ही हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो किसी को भी समय-समय पर फर्जी तरीके से फंसाते और छुड़ाते रहते हैं। अगर इसमें थोड़ी सी भी सच्चाई है तो हमें अपने लोकतंत्र के बारे में क्या नए तरीके से सोचने समझने की जरूरत नहीं है। इस पर भी कुछ लोगों का यह कहना होता है कि अब दुनिया एकदम से पाक साफ नहीं हो सकती। अभी कुछ दिनों पहले जब बिहार में नीतीश कुमार भारी बहुमत के साथ चुनाव जीते थे तब भी एक सहकर्मी से बात हो रही थी। उसका कहना था कि बिहार अपराध मुक्त हो गया है और सारे अपराधी जेल में जा चुके हैं। अब वहां बड़ी शांति है। मेरा कहना था ऐसा नहीं है। कुछ कमी जरूर आई है और कुछ अपराधी भी जेल में हैं पर बहुत कुछ अभी भी वैसा ही चल रहा है। अभी भी वहां अपहरण हो रहे हैं। यह अलग बात है कि अब उन्हें उस तरह नहीं प्रचारित नहीं किया जा रहा है जैसे लालू के आसन्न पराभव के समय में किया जा रहा था। लोगों को यह भूलना नहीं चाहिए कि अभी उन्हीं के एक मंत्री को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा है कि समाचार माध्यमों ने बताया कि उक्त मंत्री भगोड़ा घोषित है। अब जरा अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के बारे में अंदाजा लगाइए कि जो व्यक्ति पूरे प्रदेश को अपराधमुक्त होने का दावा कर रहा है उसका एक मंत्री भगोड़ा घोषित है। यह भी ध्यान में रखिए कि एक दूसरे मंत्री पर भी इसी तरह की तलवार लटकने वाली है।
कनिमोझी के बारे में ही अगर एक-दो महीने पहले के अखबारों को पलटिए अथवा याद करिए तो पता चलेगा कि उनकी गिरफ्तारी अभी नहीं होगी, कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के बाद होगी। हुआ भी वही। इसके पहले भी यह सवाल किसी के भी दिमाग में आना चाहिए कि जिस कलिगनार टीवी को लेकर इतना सब कुछ हो रहा है उसके पास पैसा कहां से आ रहा है इसकी जानकारी तो पहले से ही होनी चाहिए थी। पर किसको फुरसत है। जिसे जानकारी होनी चाहिए वह तो आंख मूंदे बैठा रहता है क्योंकि उसे तब तक कुछ भी देखना-सुनना नहीं है जब तक उससे कहा न जाए। आप जरा याद करिए कलमाडी के बारे में। कामनवेल्थ गेम के दौरान भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया लगातार खबरें दे रहा था और विपक्षी पार्टियां आवाज उठा रही थीं तब सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने कुछ इस तरह कहा था कि अभी खेल हो जाने दीजिए। यह देश की इज्जत का सवाल है। खेल समाप्त होते ही सबको देख लिया जाएगा। किसी भ्रष्टाचारी को बख्शा नहीं जाएगा। यानि, खेल के नाम पर भ्रष्टाचार का खुला होने दीजिए। सवाल उठता है कि अगर पता है कि भ्रष्टाचार हो रहा है तो उसे रोका जाना चाहिए। नहीं, उसे खुलेआम होने दिया जा रहा था बल्कि उसकी पूरी छूट दी गई थी। कामनवेल्थ गेम खत्म होने के बाद भी इसकी पूरी छूट दी गई कि अपने बचाव में जो कुछ करना हो कलमाडी कर लें, उसके बाद ही उनको गिरफ्तार किया गया। ए राजा को याद करिए। यूपीए के पहले कार्यकाल में भी ए राजा पर भ्रष्टाचार और अडियलपन के कम आरोप नहीं लगे थे पर उनका कोई बाल बांका नहीं हुआ। दूसरे कार्यकाल के बारे में यहां तक प्रचारित किया जा रहा था कि मनमोहन सिंह नहीं चाहते कि उन्हें मंत्रिमंडल में रखा जाए। इसके बावजूद वे मंत्री बने और करोड़ों का भ्रष्टाचार हुआ। विपक्षी पार्टियां उन्हें हटाने की मांग करती रहीं और राजा भ्रष्टाचार करते रहे। सब कुछ हो जाने के बाद अब वे जेल में हैं। करुणानिधि उनके बारे में भी कह रहे थे कि वे निर्दोष हैं। संभव है वे भी बरी हो जाएं। हमारा महान लोकतंत्र जो है जो ऐसे ही लोगों के लिए है, उन लोगों के लिए नहीं जो कमजोर हैं।
अभी हमारे लोकतंत्र ने हमें खुश होने के लिए पश्चिम बंगाल ने बहुत बड़ा मौका दिया है। ३४ साल के लोकतांत्रिक शासन में लोकतांत्रिक बदलाव। एक इतिहास जिसे संसदीय व्यवस्था में विश्वास रखने वाली किसी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे ने रचा। यह दुनिया के पैमाने पर है। जब टीवी पर वहां के लोगों के परिवर्तन की इच्छा और उसे हकीकत बनते देख रहा था तो अच्छा लग रहा था। यह हमारे लोकतंत्र का नतीजा है। कोई पार्टी अथवा मोर्चा लगातार ३४ साल तक शासन कर सकता है। जिस दिन ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेनी थी उस दिन टीवी वालों ने एक खबर निकाली और पूरे दिन बड़े उत्साह से चिल्ला-चिल्लाकर बताया कि यह वही ममता हैं जिन्हें कभी ज्योति बसु ने राइटर्स बिल्डिंग में घुसने नहीं दिया था। तब ममता ने प्रतिज्ञा की थी कि और आज वह पूरी हो रही है। हमारे लोकतंत्र में प्रतिज्ञा का क्या मतलब है मुझे नहीं मालूम पर लोकतंत्र की मूलभूत अवस्थापनाओं के बारे में जरूर जानता हूं। उनमें यह नहीं आता कि कोई राजनीतिक कार्यकर्ता किसी नेता की कार के ऊपर चढ़कर नृत्य करे। अगर टीवी वाले अपने दर्शकों को यह भी बता पाते तो कितना अच्छा होता लेकिन वे ऐसा नहीं करते, नहीं कर सकते क्योंकि किसी भी सत्ताधारी में उन्हें बुराई नहीं नजर आती। वे तो सिर्फ महिमामंडन ही जानते हैं। यह वही ममता बनर्जी हैं जिन्होंने कभी जयप्रकाश नारायण की कार के ऊपर तब चढ़कर नृत्य किया था जब जयप्रकाश नारायण इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन के क्रम में पश्चिम बंगाल गए थे। कहा जा सकता है कि तब किसी ज्यादा लोकतंत्र समर्थक पर यह एक हमले जैसा था। तब ममता युवक कांग्रेस नेता हुआ करती थीं। जिस बदलाव के लिए ममता आज पश्चिम बंगाल में लड़ रही थीं उससे कहीं ज्यादा अच्छे बदलाव के लिए तब जयप्रकाश नारायण पूरे देश में लड़ रहे थे। बात यहीं आकर रुक जाती तो भी गनीमत मान ली जाती। बताया जाता है कि १९९८ में महिला आरक्षण विधेयक को लेकर चल रहे विवाद में उन्होंने सपा सांसद दारोगा प्रसाद सरोज का कालर पकड़ लिया था। यह भी कहा जाता है कि कुछ इसी तरह का व्यवहार उन्होंने १९९७ में सपा नेता अमर सिंह के साथ भी किया था। अगर यह सब सच है तो यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं कही जा सकती। जब हमारे जनप्रतिनिधि इस तरह के होंगे तो लोकतंत्र कैसा होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यह भूलिएगा नहीं कि पश्चिम बंगाल में चुनाव समाप्त होने और तृणमूल कांग्रेस की जीत के तुरंत बाद राजनीतिक हिंसा का दौर शुरू हो गया था।
दरअसल, हमारे देश की आम जनता यह सब सहने-झेलने के लिए मजबूर है और वह भी हमारे महान लोकतंत्र के नाम पर। हम इसी से खुश हैं कि पांच या ३४ साल में ही सही हम सरकारें बदल सकते हैं और कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो उसे जेल भिजवाया जा सकता है। लेकिन इतना ही काफी नहीं है। इसे मान कर चलिए। जनता पार्टी की सरकार बनना और कांग्रेस का सत्ता से च्युत कर देना, कम्युनिस्ट राज का पश्चिम बंगाल से खात्मा तात्कालिक रूप से खुशी प्रदान कर सकता है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं। इसलिए ऐसी चीजों के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। तभी हमारा लोकतंत्र बच भी सकता है और कोशिश करने पर ज्यादा परिपक्व और मजबूत हो सकता है। कोई यह समझने की गलती न करे हम ७७ में कांग्रेस और ११ में वाममोर्चा शासन के खात्मे से दुखी या परेशान हैं। हम भी दोनों ही परिवर्तन तहेदिल से चाहते थे। लेकिन इसको लेकर ज्यादा संजीदा हैं उसके बाद क्या हुआ अथवा क्या होने वाला है? कोई कह सकता है कि ज्यादा डरने की जरूरत नहीं। हम भी ऐसा ही सोचते हैं पर आने वाले दिन लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छे नहीं दिख रहे हैं, इसे लेकर सचेत रहने की जरूरत है। इससे इनकार के बड़े खतरे हैं। यह ध्यान देकर चलिएगा।
और अंत में ----------आज की रात बड़ी गर्म हवा चलती है, आज की रात न फुटपाथ पर नींद आएगी।

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