Monday, February 22, 2010

कमाई

अगर बहुत राजनीति के चक्कर में न पड़ें (हालाँकि जरूर ही पड़ना चाहिए) और यह इस तरह की फिल्मों के इतिहास के पचड़े में न पड़ें तो दो बातें माई नेम इज खान देखते हुए महसूस हो रही थीं. एक तो यह क़ि सत्ता का खेल इतना खतरनाक होता है क़ि वह आदमी को कहीं का छोड़ता. सत्ता का खेल इसलिए क़ि इस फिल्म के नायक शाहरूख खान को लेकर जो राजनीतिक दल भिड़ने का नाटक खेल रहे थे वे सब सत्ता पक्छ के हैं क्योंकि फ़िलहाल देश में विपक्च है ही नहीं. इस लिहाज से क़ि किसी का भी मकसद आम आदमी के हितों की रक्चा करना नहीं रह गया है. अगर ऐसा होता तो तब या अब रजनीतिक दल एक व्यावसिक फिल्म को लेकर पूरे देश में बवाल मचाने के बजाय लगातार बढती महंगाई के खिलाफ कोई आन्दोलन करते . लेकिन उनके लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं होता क्योंकि इससे तो उनकी कमाई बढ़ जाती है. दूसरी बात यह कि फिल्म में बीमारी का शिकार नायक उस अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने यह बताना चाहता है कि उसका नाम खान है पर वह आतंकवादी नहीं है जो पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर उसे संरक्चन देने का ही काम करता रहा है . पाकिस्तान को दी जाने वाली भारी आर्थिक मदद इसका साफ उदहारण है . इराक , इरान और अगगानिस्तान में उसकी कर्र्वायाँ भी इसका उदहारण हैं . इसके साथ ही यह भी कि फिल्म में इस बात को स्थापित करने कि कोशिश की गई है अमेरिका के राष्ट्रपति ही यह प्रमाणपत्र दे सकते हैं कि सिर्फ खान होने से कोई आतंकवादी नहीं हो सकता. सब कुछ उन्ही कि कृपा पर निर्भर है . यह कहते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि फिल्म मुसलमानों कि समस्या और संवेदना को समझने के बजाय उसे और जटिल तथा उलझाऊ बनाती है . दरअसल आज कि फ़िल्में हमारे सपनों को भारी कीमत पर बेचती हैं . फिल्मकारों को बुनिआदी सवालों को उचित परिप्रेक्च में समझने कि जरूरत ही नहीं महसूस होती , उनकी चिंता तो सिर्फ अपनी ख्याति और कमाई होती है . इस फिल्म से शाहरूख और करन जौहर अपने इस मकसद में सफल कहे जा सकते हैं लेकिन आम लोगों खासकर मुसलमानों के साथ अन्याय करते ही प्रतीत होते हैं .

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