Saturday, February 6, 2010

अपना रूट नहीं भूलना चाहिए

कल द वीक का नया अंक देखा। इसमें कवर स्टोरी वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह पर जो पिछली दो फरवरी को 95 साल के हो गए। ऐसे समय में जब समाचार पत्र और पत्रिकाएं बाजार को ध्यान में रखकर अपने अंक प्लान कर रहे हों और जो सिर्फ वे विषय चुन रहे हों जिन्हें बेचा जा सके, द वीक ने खुशवंत सिंह पर अंक निकालकर अच्छा काम किया है। अभी कुछ दिनों पहले मुझे उपेंद्र नाथ अश्क याद आए थे जिन्हें अब कोई याद नहीं करता। मुझे लंबे समय से यह खतरा महसूस हो रहा था कि जानबूझकर गुजरे समय के लोगों को भुला देने की सायास कोशिश चल रही है। यह अलग बात है कि अभी भी कुछ अखबारों में खुशवंत सिंह और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों के कालम प्रकाशित होते हैं लेकिन उन्हें जिस तरह से याद किया जाना चाहिए वह नहीं हो रहा है। मुझे याद आता है जब हम बच्चे हुआ करते थे और बड़े हो रहे थे तब कुछ पत्रिकाएं बहुत से आदर से देखी जाती थीं। माना जाता था कि अगर वह किसी विद्यार्थी के कमरे में नहीं है अथवा किसी के घर में उपलब्ध नहीं है तो वह पढ़ता नहीं है। दिनमान, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और इलस्ट्रेटेड वीकली। तब खुशवंत सिंह इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक हुआ करते थे। अब यह सारी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। इनके बंद होने के कारणों पर अलग से बात की जानी चाहिए और आज के पाठकों को यह समझने का मौका मिलना चाहिए। फिलहाल यह कि आज की पीढ़ी शायद ही इन महान पत्रकारों के बारे में जानती हो और अगर ऐसा है तो यह पत्रकारिता की भी जरूरत है कि हम उन्हें लोगों के बीच बेहतर तरीके से ले जाते रहें। यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि जो लोग इन जैसे लेखकों को पीछे छोड़कर आज की बाजार की जरूरतों के अनुरूप नए प्रतिमान गढ़ने की कोशिश में जुटे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी नई जरूरतों के हिसाब से भुलाए जा सकते हैं। इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि आने वाली पीढ़ी को आप इसलिए नहीं याद रह जाएंगे कि आपने कोई ऐसा अच्छा काम नहीं किया जिससे आपको याद रखा जा सके। इस बारे में एक वाकया याद आता है जिसका उल्लेख करना यहां समीचीन होगा। कुछ दिनों पहले कुछ मित्रों के साथ एक समाचार माध्यम में हुए साक्षात्कार को लेकर चर्चा चल रही थी जिसमें अभ्यर्थियों से संपादक कई सवालों के बीच एक सवाल यह भी पूछा था कि वर्तमान दौर के पांच संपादकों के नाम बताइए। तकरीबन सभी अभ्यर्थी एक-दो संपादकों के नाम ही बता पाए थे। बाद में पता चला कि सिर्फ इसी तर्क पर उनमें से किसी का चयन किया गया कि जब इन्हें संपादकों के नाम ही नहीं पता तो ये पत्रकारिता क्या करेंगे। मेरे दिमाग में एक बात उठी कि क्या इस मुद्दे पर इस लिहाज से भी नहीं सोचा जाना चाहिए कि हमारे हाल के किसी संपादक ने क्या ऐसी कोई पत्रकारिता की है जिससे उन्हें याद रखा जाना चाहिए। निश्चित तौर पर पत्रकारिता के विद्यार्थी के लिए बतौर सामान्य ज्ञान इतना तो पता होना ही चाहिए कि किस अखबार और पत्रिका का कौन संपादक है अथवा रहा है लेकिन जरा सोचिए जब हम अपने बड़े संपादकों-पत्रकारों को भुलाते रहेंगे। पद्मश्री और पद्म विभूषण सम्मान प्राप्त दिल्ली और ट्रेन टू पाकिस्तान जैसी कृतियों के रचनाकार खुशवंत सिंह के लिखे को आज भी पढ़ना अपने आप में बड़ी बात होती है। बिना किसी लागलपेट के दो टूक और सच कहने का जैसा माद्दा उनमें वह बिरलों में मिलता है। देश और दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर जिस बेबाकी और सरल तरीके से वह अपनी राय रखते हैं वह काबिलेतारीफ होती है। आप उनके विरोधी हो सकते हैं लेकिन अभी भी उनके कालम में जिस तरह की जीवंतता मिलती है वह किसी को भी झकझोर देने वाली होती है। उनको पढ़ने से लगता है कि वह किसी को भी उसकी गलती के लिए नहीं छोड़ते शायद इसीलिए कि वह किसी से नहीं डरते। आर्थिक रूप से बहुत बड़े आदमी होते हुए भी मध्यम वर्ग की जिंदगी जीने वाले और सभी से सहज ढंग से मिलने वाले खुशवंत सिंह इसलिए भी हम सब के लिए खासे महत्व के हैं कि वे उन विषयों पर भी सात्विक और वैज्ञानिक तरीके से अपनी बात रखते हैं जिन पर आमतौर पर बात करना हम भारतीयों के लिए थोड़ा कठिन होता है। कुछ उदाहरण देखिए-वह कहते हैं मैं महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य और विवाह के बारे में विचारों को नहीं मानता। उनका कहना है कि नैतिकता को थोप नहीं सकते। लोगों को खुद तय करने दीजिए कि वह क्या चाहते हैं। लेकिन वह अहिंसा के सिद्धांत के प्रशंसक हैं। नेहरू के बारे में उनका मानना है कि वह बड़े विजनरी व्यक्ति थे जिसकी मैं प्रशंसा करता हूं लेकिन उनकी अपनी कमजोरियां भी रही हैं। वह कुनबापरस्ती के शिकार रहे हैं जिससे उबर नहीं सके। इसी तरह इंदिरा गांधी के बारे में उनकी धारणा है कि वह हर उस व्यक्ति से अपने को असुरक्षित महसूस करती थीं जो सूचना संपन्न होता था। इतना ही नहीं सोनिया गांधी के भारतीय होने न होने के बारे में उनकी राय एकदम स्पष्ट है। वह कहते हैं कि सोनिया गांधी पवार, संगमा, तारिक अनवर और हमसे भी ज्यादा भारतीय हैं। वह कहते हैं कि हम तो दुर्घटनावश जन्मना भारतीय हैं लेकिन उन्होंने तो भारतीय होना स्वीकार किया है।
भारत विभाजन को मानसिक आघात पहुंचाने वाला मानते हैं। वह मानते हैं कि वह लाहौर में ही रहना चाहते थे लेकिन दंगों ने उन्हें भारत आने को मजबूर कर दिया। वह विभाजन के लिए किसी व्यक्ति और पार्टी को जिम्मेदार नहीं ठहराते । वह बटवारे के तरीके पर अवश्य सवाल उठाते हैं जो वास्तव मे बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह 84 के दंगों के बारे में उनका कहना है कि अभी भी उससे जुड़े कई सवालों का जवाब दिया जाना बाकी है। इसमें से सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसने गुंडों को सिखों को सबक सिखाने का सिगनल दिया। उनका दुख इस बात में झलकता है कि 84 के दंगों के समय मैं अपने को एिलयनेटेड महसूस कर रहा था ठीक उसी तरह जैसे 1930 में जर्मनी में ज्यूज महसूस कर रहे थे।
फिलहाल इतना ही। लेकिन अंत में उनकी यह बात अपील कर गई कि मैं अपने रूट को कभी नहीं भूलता। लाइफ कम्स फुल सर्किल। किसी को भी अपना रूट नहीं भूलना चाहिए। दुर्भाग्य से आज वे सभी लोग जिन्हें किसी कारणवश (भले ही गलती से या गलत तरीके से) कुछ मिल जाता है वे अपना रूट भूल जाते हैं।

1 comment:

वर्षा said...

अब तो अपना रूट ही नहीं रहा