Wednesday, May 25, 2011

अनशन का फंक्शन

------अन्ना हजारे के अनशन की समाप्ति के बाद यह लेख लिखने की शुरुआत की गई थी। लेकिन पूरा नहीं हो सका था। इसलिए अलग रख दिया था। लगा कि ज्यादा अच्छा होगा जैसा है वैसा ही प्रस्तुत कर दिया जाए। सो, आज पेश कर दे रहा हूं।-----

हमारा देश बहुत महान है और इससे भी महान हमारे देश के हम जैसे नागरिक हैं। अभी कुछ दिनों पहले जब विश्व कप क्रिकेट चल रहा था तब हमारे महान नागरिकों की देशभक्ति देखते ही बनती थी। क्रिकेट और धोनी-सचिन के खिलाफ कोई सात्विक टिप्पणी करने वाला भी क्षणमात्र में देश विरोधी कर दिया जा रहा था। हमारे महान देश के महान देशभक्तों ने ऐसी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी जिसमें क्रिकेट को लेकर किसी तरह का शकसुबहा कोई कर सके, भले ही विजेता टीम को नकली ट्राफी दे दी जाए, उसे भी देशप्रेम ही माना गया। हिंदुस्तान के ताजा इतिहासों में अयोध्या में राम मंदिर के लिए जब जत्थे चढ़ाई में जुटे थे वह समय याद कीजिए। तब यह स्थापित कर दिया गया था अगर आप मंदिर के पक्ष में नहीं हैं तो रामभक्त और देशभक्त नहीं हैं। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हाल के वर्षों में मिल जाएंगे। अब ताजा उदाहरण जन लोकपाल बिल का है। आप को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया है कि अगर इसके पक्ष में नहीं हैं तो भ्रष्टाचारी हैं और तब अगर साथ हैं तो जाहिर ईमानदार और देशभक्त। भारत माता की जय और वंदेमातरम जैसे नारों के बीच जंतर मंतर पर चला अनशन का फंक्शन ऐसी बहती गंगा थी जिसमें अगर आपने हाथ नहीं धोया तो तय मानिए आपके साथ यह संकट खड़ा हुआ है कि आप पापी घोषित कर दिए जाएंगे। आस्थाओं के मुरीद हमारे देश के महान नागरिकों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि गणेशजी दूध पी रहे हों और वह न पिला पाएं। यह वही महान देश और उसके महान नागरिक हैं जो सचिन को भगवान और अमिताभ को महानायक घोषित कर पूजने लगते हैं। अब कुछ इसी तरह अन्ना हजारे को लेकर स्थितियां बन रही (बनाई जा रही) हैं। यह मेरी अपनी कमजोरी हो सकती है कि मैं किसी को भी आसानी से भगवान नहीं मान पाता और क्योंकि यह तो चलिए किसी तरह माना जा सकता है कि कभी कोई भगवान रहा होगा जिसे हमने नहीं देखा लेकिन उसके बारे में भी लोग तरह-तरह की टिप्पणियां करते रहते हैं। मुझे लगता है कि कैसा भी हो लेकिन अगर सर्वशक्ति संपन्न भगवान है तो वह काफी है। अब अगर उससे आपका काम नहीं चल रहा है तो तय मानिए बहुत सारे भगवान बना लेने से भी आपका काम चलने वाला नहीं है। भ्रम भले ही पाल लीजिए, क्योंकि सचिन को अपने क्रिकेट और अमिताभ को अपनी फिल्म और इससे उन्हें जो हासिल होता है, उससे ज्यादा उन्हें कुछ भी प्रिय नहीं है। न देश न समाज और न लोगों की समस्याएं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लाखों किसान आत्महत्या करते रहें, इन्हें इससे कोई लेना-देना नहीं होता। देश के विभिन्न राज्यों में अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता पुलिस की गोलियों से मारी जाती रहे, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। पूरे देश में खासकर देश की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार होता रहे, ये इसके खिलाफ कुछ नहीं बोलते और करते। वे पता नहीं यह सब क्यों नहीं सोचते पर मुझे यह सब सोचते हुए एक बड़ा संकट दिखने लगता है कि कहीं मुझे भी देश विरोधी न घोषित कर दिया क्योंकि इसमें लोग जरा भी देर नहीं करते।
आइए अब भ्रष्टाचार पर बात की जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में भ्रष्टाचार काफी बढ़ गया है। इससे भी किसी को एतराज नहीं होगा कि यह खत्म होना चाहिए। लोकपाल (जन लोकपाल) पर शायद ही किसी को एतराज हो, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मात्र इससे भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? मेरे जैसे कम समझदार को यह लगता है कि इसका जवाब नहीं में है। दरअसल, इसे खत्म करने की जिस कोशिश को बहुत क्रांतिकारी रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह अपने आप में किसी बड़े धोखे से कम नहीं है। कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार तभी खत्म हो सकता है जब जनलोकपाल बनाया जाए और उसे असीमित ताकत प्रदान की जाए। यहां तक कि वह भ्रष्टाचार के आरोपी को फांसी पर लटका सकें। सबसे पहली बात तो यह है कि फांसी को लेकर पूरी दुनिया में गंभीर बहस चल रही है कि क्या इसे सजा के तौर पर रखा जाए या नहीं। इतना ही नहीं, कई देशों में इस सजा को समाप्त तक कर दिया गया है। इसके अलावा अभी भी कई ऐसे जघन्य अपराध हैं जिनमें हमारे देश में फांसी की सजा का प्रावधान है और कई को यह सजा दी भी गई है लेकिन क्या इससे उस जैसे अपराध रोके जा सके हैं। नहीं, बल्कि उस तरह के अपराध लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल फांसी की सजा के प्रावधान से भ्ष्टाचार खत्म नहीं हो सकेगा। कुछ भले मानुस यह कहते हुए फांसी के समर्थक हैं कि इससे खत्म भले ही न हो कम जरूर हो जाएगा। मेरे दिमाग में भ्रष्टाचार को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि एक किसान और मजदूर को बिजली बिल और मालगुजारी आदि के सौ-दो सौ बकाया होने पर न केवल बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता है बल्कि जेल तक में डाल दिया जाता है। लेकिन मधु कोड़ा की संपत्ति दिन दूना रात चौगुना बढ़ती जाती है और किसी को तब तक खबर नहीं होती जब तक वह मुख्यमंत्री रहते हैं। छोटे-छोटे कर्मचारी जिनका हजार-पांच सौ रुपया इनकम टैक्स बनता है और वह जाने-अनजाने रिटर्न नहीं फाइल कर पाता, उसके खिलाफ कार्रवाई हो जाती है। लेकिन हसन अली हजारों करोड़ रुपये आयकर के छिपाता रहता है और किसी को कोई चिंता नहीं होती। ए राजा करोड़ों करोड़ के घोटाले करते रहते हैं सबको पता रहता है, तब भी किसी तरह की रोक नहीं होती। कामनवेल्थ गेम्स के नाम पर घोटाले दर घोटाले होते रहते हैं, सरकार को पता भी रहता है लेकिन देश की शान के नाम पर उसे होने दिया जाता है। देश का धन विदेश में जाता रहता है, रोकने का कोई इंतजाम नहीं किया जाता। छोटे-छोटे लोग बड़े-बड़े पूंजीपति बनते जाते हैं और दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले मरते जाते हैं, इसे कोई देखने वाला नहीं होता। किसान बेमौत मरते रहते हैं और बीज-खाद कंपनियों के मालिक धन्नासेठ बनते जाते हैं। ठेकेदारी प्रथा पर कोई अंकुश नहीं लग रहा है तो सिर्फ इसलिए इससे सभी संबंधित पक्षों और लोगों को धन पहुंच जाता है और निर्माण की ऐसी की तैसी होती रहती है। आंगनवाड़ी जैसे कितने ही विभाग हैं जिनमें किस कदर भ्रष्टाचार है, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सब चल रहा है और संस्थाबद्ध तरीके से। कुल मिलाकर कहना यह है कि भ्रष्टाचार को संस्थाबद्ध कर दिया गया है। यह पूरी तरह व्यवस्था का हिस्सा बना दिया गया है। इसलिए इसे खत्म करने या कम करने के लिए व्यवस्थागत बदलाव की जरूरत सबसे पहले है। कुछ अपने को बहुत बुद्धिमान मानने वाले लोग कहते हैं कि जब हर कोई सुधर जाएगा तो भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा। ऐसे लोगों को कौन समझाए कि इस देश की बहुतायत आबादी पहले से ही सुधरी हुई है, इसीलिए उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है और जिसने न सुधरने की कसम खा रखी है वह भ्रष्टाचार के बलबूते सबसे बड़ा देशप्रेमी और विकास का वाहक बनता जा रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि जनलोकपाल बनाकर कुछ लोगों को फांसी पर लटकाया जा सकता है लेकिन भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता । यहभी चिन्हित करने की जरूरत है कि वे कौन और किस तरह के लोग हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ इतने मुखर हो चले हैं। भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा जो न अनशन करने वाले चाहते हैं और न ही व्यवस्था के पोषक । इसलिए कम से कम उन लोगों को तो किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए जो वास्तव में चाहते हैं भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि भ्रष्टाचार कोई ऐसा मुद्दा नहीं है जो पहली बार उठा है। इसके पहले भी इस पर आंदोलन हुए हैं। वीपी सिंह को भूलिए मत, जिन्होंने बोफोर्स घोटाले को उठाया लेकिन उसका परिणाम सिर्फ इस रूप में जाना जा सकता है कि वे प्रधानमंत्री बन गए। भ्रष्टाचार का क्या हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। बोफोर्स का भी क्या हुआ, सभी जानते हैं। जिस जयप्रकाश नारायण को कभी नायक के रूप में देखा गया उनके आंदोलन की शुरुआत में भी भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था। उसकी भी परिणति जनता पार्टी की सरकार बनने के रूप में हुई। इस नए आंदोलन की परिणति भी जल्दी ही सामने आ जाएगी। ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन इस सबका कतई यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए भ्रष्टाचार नहीं है या यह बड़ा मुद्दा नहीं है या इसके खिलाफ आंदोलन नहीं होना चाहिए या इसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह कोई अलाहदा समस्या नहीं है जिसे अलग से हल किया जा सकता है। यह पूरी तरह व्यवस्था से जुड़ा मामला है और इसके साथ और भी बहुत सारी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। उन्हें भी जानने और समझने की जरूरत है।
अब बात नए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की राजनीति की। राजनीतिज्ञों और राजनीतिक पार्टियों के विरोध के साथ जंतर मंतर से शुरू हुए आंदोलन की राजनीति में आमरण अनशन की भी अपनी राजनीति है जिसे नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। आखिर आमरण अनशन को कुछ लोग इस तरह से जो प्रचारित करते हैं कि यह महात्मा गांधी का ब्रह्मास्त्र था और इसी के बलबूते उन्होंने अंग्रेजों को भगा दिया और भारत को आजादी को दिला दी। हालांकि यह अलग बहस का विषय हो सकता है इसके बावजूद कि बहुत सारे लोग इस धारणा को सही नहीं मानते, इसके बावजूद लगता है कि एक बार फिर सायाश यह स्थापित करने की असफल कोशिश की जा रही है कि इस देश में अभी भी आमरण अनशन के माध्यम से छोटी से लेकर बड़ी समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं। गरीबी, भूख, इलाज, इज्जत और जीवन से भी बड़ी समस्याओं के रूप में इस देश में आतंकवाद और नक्सलवाद को बताया जाता रहता है। महंगाई कोई भ्रष्टाचार से कम भयावह समस्या नहीं है। इन समस्याओं से जो लोग जूझ रहे हैं, उनका दर्द समझने वाला कोई नहीं है। इन सब और इन जैसी समस्याओं के लिए कोई महात्मा गांधी बनने को तैयार नहीं है। अगर कोई कोशिश भी करता है तो उसे तवज्जो देने वाला कोई नहीं है। ऐसे में जनलोकपाल बिल को लेकर कोई अपनी जान देने पर उतारू हो जाए तो लगता है कि इसके पीछे कुछ न कुछ राजनीति तो जरूर है। पिछले बयालिस सालों में अगर लोकपाल बिल नहीं पारित किया गया तो ऐसा न करने वालों की मंशा पर सवाल उठाया ही जाना चाहिए लेकिन यह भी तो समझना चाहिए कि जो काम ४२ सालों में नहीं हो सका वह चार-छह महीनों में कैसे हो सकेगा और कौन करने देगा। इससे भी पहले यह भी सोचा जाना चाहिए कि जनलोकपाल के लिए आमरण अनशन की ही आवश्यकता क्यों पड़ गई। यह कहा जा सकता है कि इसके पहले भी इसके लिए कई तरह के प्रयास किए गए लेकिन वह इस आमरण अनशन जैसे तो नहीं थे। इसके पहले जुलूस निकाले जा सकते थे, सेमिनार किए जा सकते थे, प्रदर्शन हो सकते थे। कुछ दिनों तक क्रमिक अनशन हो सकते थे।
अगर यह सब नहीं किया गया और सीधे जान दे देने की धमकी दे गई तो सहज ही कुछ शंकाएं पैदा होने लगीं। उससे भी ज्यादा शंका को बल तब मिला जब सभी मांगें सरकार द्वारा मान ली गईं। समझ में नहीं आया कि कल तक जो सरकार संविधान, लोकतंत्र संसदीय मर्यादा की दुहाई दे रही थी और जो अन्ना हजारे किसी भी हालत पर प्रणव मुखर्जी को कमेटी में नहीं देखना चाहते थे , अचानक दोनों ही कैसे तैयार हो गए। इससे भी पहले यह सवाल उठा कि सरकार ने तो औपचारिक रूप से शायद किसी अन्ना हजारे या उनके प्रतिनिधि को वार्ता के लिए बुलाया नहीं था तो यह कैसे होने लगा कि इधर आमरण अनशन शुरू हुआ और उधर उनके प्रतिनिधि कपिल सिब्बल से बात करने के लिए चले गए। आम लोगों को यह पता भी चल नहीं चल पाया कि आखिर यह सब कैसे हो रहा था और उन मुलाकातों में क्या-क्या हुआ सिवाय इसके कि दोनों पक्ष सहमत हो गए। उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक यह रहा कि खुद आमरण अनशन पर बैठे अन्ना हजारे को खुद ही अनशन तोड़ना पड़ा। कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं आया कि अन्ना साहब अब तो हमने आपकी मांगें मान लीं, तोड़ दीजिए अनशन। हालांकि यह कोई जरूरी नहीं होता कि ऐसा हो, इसके भी अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब आम लोगों के हाथों अनशन तोड़ा गया हो पर यह अनशन तो खास था। लेकिन यह होता कैसे जब भ्रष्टाचार के खिलाफ दुंदुभी बजाने वाले शुरू से ही यह कह रहे हों कि हमें सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से कोई शिकायत नहीं है। भला बताइए, जिसके राज में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार हो रहा हो, उन्हीं का गुणगान और उन्हीं से उम्मीदें। कहते हैं सत्ता सर्वशक्तिमान होती है और वह बहुत सारा काम बिना कानून के भी कर सकती है। अगर यह सरकार (मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी) चाहती तो बिना कानून के भी भ्रष्टाचार रोक सकती थी (कम तो करवा ही सकती थी)। ऐसा न कर उसे और बढ़ने तथा फलने-फूलने का मौका दिया। ऐसे में इस आशंका को बल ही मिलता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी लड़ाई अगर उन्हीं के साथ मिलकर लड़ी जानी है तो उसका भविष्य क्या होगा। यह अलग बात है कि अन्ना हजारे ने मांगें पूरी न होने पर फिर से आंदोलन की चेतावनी दे चुके हैं लेकिन गेंद तो अब सरकार के ही पाले में है और ज्यादा खतरा यही है कि वह उसे जैसा चाहेगी स्विंग कराएगी। इस सबके बावजूद पता नहीं क्यों फिल्म पड़ोसन की याद आ रही है। अगर भोला को बिंदु मिल जाए तो अच्छी बात।

No comments: