Sunday, August 29, 2010

एक जरूरी उपन्यास जिसे हर पाठक को अवश्य पढना चाहिए

अभी गुजरे रविवार को बैठक की संगोष्ठी में उपन्यास को लेकर काफी बातें हुई थीं. आज जब मैंने दोपहर को प्रतिष्ठित साहित्यकार पंकज बिष्ट का हाल ही में राजकमल से प्रकाशित उपन्यास पंख वाली नाव पूरा किया तो स्तब्ध रह गया. एक चुनौतीपूर्ण विषय को जितनी सहजता के साथ पंकज जी ने प्रस्तुत किया उससे महसूस हुआ क़ि अगर चीजों को ख़ूबसूरती के साथ लाया जाए तो वह न केवल पसंद क़ि जाएगी बल्कि अन्य लोगों को भी उसे देखने-पढ़ने के लिए उत्साहित करेगी. जो लोग यह कहते हैं अब तो केवल कहानी और कविता पढ़ी जा रही है, उपन्यास से बचा जा रहा है, वे गलत हैं. अगर उपन्यास में दम होगा तो वह भी पढ़ा जायेगा. पंख वाली नाव के साथ ऐसा हो रहा है क्योंकि उसे बुना ही ऐसे गया है. अन्य पाठकों के बारे मै नहीं कह सकता पर मेरे साथ शायद यह पहली बार हुआ क़ि जैसे-जैसे उपन्यास ख़त्म होने को हो रहा था, इस बात को लेकर तकलीफ हो रही थी क़ि इत्नानी जल्दी क्यों ख़त्म हो रहा है. अगर कुछ और होता तो जिआदा अच्छा होता. यह अनायास था भी नहीं. उपन्यास पाठक को ऐसी जगह ले जाकर छोड़ता है जहाँ से वह उससे आसानी से छूट नहीं पाता. हिंदी के पाठकों के साथ यह सुविधा आमतौर पर होती है क़ि उन्हें समझने या दिमाग लगाने क़ि बहुत जरूरत नहीं होती क्योंकि लेखक खुद सब कुछ कह देता है. शायद इसीलिए मेरे मन में यह बात कई बार आई है क़ि हिंदी का लेखक यह मानकर चलता है क़ि उसका पाठक बहुत समझदार नहीं होता इसलिए उसे सब कुछ साफ-साफ बता देना चाहिए. जिन कारणों से इस उपन्यास ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह यह क़ि अंत में लेखक अपनी ओर से कुछ नहीं कहता, पाठक के लिए ऐसा बहुत कुछ छोडकर चला जाता है जिसमे उलझे रहने का अपना आनंद है. जिस मुख्य विषय और चरित्र को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखा गया है वह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं रहा. उसे साधना अपने आप में बहुत कठिन काम हो सकता था लेकिन इसे लेखक क़ि चमत्कारिक दक्चता का कमल ही कहा जाना क़ि बिना किसी तरह क़ि जुगुप्सा जगाए उस विषय को सात्विक बनाए रखा. दर असल यह हम भारतीओं खासकर हिंदी लेखकों-पाठकों के साथ यह बड़ी समस्या है क़ि वे खुद ही तय कर लेते हैं क़ि उन्हें क्या चाहिए. इसका परिणाम यह होता है क़ि मनगढ़ंत चीजें थोपी जाने लगती हैं. आप चीजों को व्यापक स्तर पर क्यों नहीं देखते. यह क्यों नहीं सोचते क़ि जिसे आप अकथ्य, अपठनिया मान रहे उसे अच्छी तरह से कहा जा सकता हो और जिआदा बेहतर तरीके से समझा जा सकता हो. यह उपन्यास इस मामले में काबिलेतारीफ है क़ि जिस विषय पर आम भारतीया सोचने और बात करने से बचना चाहता हो, उसे पूरे सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया जाए क़ि कहीं से भी घृणा या वितृष्णा न पैदा हो बल्कि उस समस्या को ज्यादा व्यापकता में समझने क़ि कोशिश क़ि जाए. असल में यह उपन्यास एक गे को केंद्र में रखकर लिखा गया जो अपने आप में एक बड़ी चुनौतीवाला है, उससे भी बड़ी बात यह क़ि इसमें कहीं भी रंचमात्र क़ि अश्लीलता नहीं है. इसके विपरीत इस समस्या को अधिक गंभीरता के समझने क़ि सफल कोशिश की गई लगती है. संभवतः येही कारण रहा होगा की शुरू में ऐसा लगा क़ि उपन्यास में लेखक उस चरित्र के खिलाफ डंडा लेकर खड़ा हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि जैसे-जैसे कहानी बढती गई वैसे-वैसे वह शायद थोड़े-मोड़े किन्तु-परन्तु के साथ सामंजस्य बिठाने लायक होता गया. इसे लेखकीय कला का प्रशंशनीय पक्छ माना जाना चाहिए. पूरा उपन्यास और उसके हरेक चरित्र इस तरह बुना गया है क़ि हर कोई अपनी विशिष्ट छाप के साथ उपस्थित होता है. बिना किसी अनावश्यक विस्तार के और बिना अपनी ओर से कुछ कहे परिस्थिओं के जरिए अपनी बात को मजबूती के साथ कहने क़ि जैसी कला पंकज जी में देखने को मिली वह विरले ही मिलती है. कमसेकम मेरे जैसे पाठक के लिए तो यह चमत्कारिक कर देने वाला लगा. अलग-अलग कारणों से आप बालकृष्ण भट्ट, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रेनू, श्रीलाल शुक्ल, गोर्की, तालस्ताय और प्रेमचंद आदि कई नाम ले सकते हैं. लेकिन हाल के कुछ वर्षों में जो कुछ उपन्यास मैंने पढ़े उनमे पंख वाली नाव का कोई जोड़ नहीं.मैं तो अभिभूत हूँ. इसलिए मैं यह भी चाहता हूँ क़ि जिनकी पढने में थोड़ी भी रूचि हो उसे यह उपन्यास अवश्य ही पढना चाहिए. उन लोगों को तो जरूर ही पढना चाहिए जो यह मानकर चल रहे हों क़ि आजकल हिंदी में अच्छे उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं. मैं कह सकता हूँ क़ि यह बहुत अच्छा उपन्यास है.

2 comments:

सोतड़ू said...

कुछ वक्त पहले कृष्ण जी ने भी इस उपन्यास की तारीफ़ की थी..... अब लग रहा है कि पढ़ना ही पड़ेगा.... आखिर आपकी बात टाली नहीं जा सकती।

Ek ziddi dhun said...

aur ye apki post pankaj bisht ko bhi padhva di hai.