पहले (चुनाव के दौरान) लगता था विकास का मतलब सड़कें बनना होता है। अगर कुछ सड़कें बन गई हैं तो समझिए विकास हो चुका है। चुनाव माने बिहार विधानसभा का चुनाव। जिस दिन मतदान का छठां यानि अंतिम चरण बीता, उसके अगले दिन घूम-घूमकर बतियाने वाले एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने विकास की नई परिभाषा गढ़ दी जिसे पढ़-सुनकर कोई भी तर्कहीन व्यक्ति मंत्रमुग्ध हुए बिना रही सकेगा। उन्होंने गीता की तरह का उपदेश दिया कि अगर किसी देशकाल को समझना है तो सड़क मार्ग से होकर गुजरिए और उन्होंने गुजरते हुए देखा कि बिहार की सड़कों के दोनों ओर अंडरगार्मेंट्स के विज्ञापन काफी तादाद में दिख जाएंगे। वे इस तथ्य को नए सिरे से स्थापित कर रहे थे कि बिहार का काफी विकास हो चुका है। यह और इसी तरह के कितने ही पत्रकार वह चाहे टीवी के हों अथवा प्रिंट के पिछले करीब पांच साल से यह बताते थक नहीं रहे थे कि बिहार काफी विकास करता जा रहा है। ऐसा कहते-बताते हुए वे रस, छंद अलंकार, संधि और समास समेत अभिधा, लक्षणा और व्यंजना कुछ भी छोड़ नहीं रहे थे। इसे सरल शब्दों में कहें तो ऐसा लगता था कि वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गुणगान में कलम तोड़ दे रहे थे। टीवी वाले भी कुछ ऐसा ही अपनी भाषा में तो़ड रहे थे। अब तो जनादेश ने भी साबित कर दिया कि वाकई बिहार विकसित हो चुका है और जो कुछ बच गया था वह अब चुटकियों का काम रह गया है। मुझे पता नहीं क्यों हमेशा यह सवाल उद्वेलित करता रहता है कि जहां एकतरफा सोच काम करती है वहां जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ होता है। बिहार और वहां के शासन-प्रशासन को लेकर भी यह लगता रहता था कि आखिर ऐसा क्या हो गया है बिहार में कुछ खराब दिखता ही नहीं। तब लगता है कि बिहार को देखने वाले शायद असली गांधीवादी हो गए हैं कि न बुरा देखना है, न बुरा सुनना है और न बुरा कहना है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि बिहार और वहां के नेता पूरे देश से अलग कैसे हो गए। वहां के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने में तो कोई बुनियादी बदलाव आया था और नेताओं में भी कोई किसी दूसरे लोक से तो नहीं टपका था।
क्रमशः
Thursday, December 2, 2010
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