Sunday, March 8, 2015

टूटते घर में मोक्ष की तलाश

अभी फिर जब छोटे भाई ने यह जानकारी दी कि उसके घर का अगला हिस्सा गिरने वाला है, तो शायद उसके मन में यह रहा होगा कि मैं उस पर कोई राय दूंगा। ऐसा नहीं है कि यह जानकारी कोई पहली बार उसने दी है। पहले भी इस पर कई बार बात हो चुकी है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं निकला। मुझे लगा कि अब नए सिरे से फिर उन्हीं बातों का कोई मतलब नहीं है, इसलिए चुप्पी साधे रहा। बाद में लगा कि चुप्पी एक तरीका हो सकता है लेकिन किसी समस्या का समाधान तो नहीं हो सकती। फिर दूसरा सवाल दिमाग में आया कि बोलना भी तो कई बार किसी समस्या  का समाधान नहीं बल्कि समस्या को और उलझाना ही हो जाता है। एकालाप भी कोई रास्ता हो सकता है, इसका जवाब हां में मिलता दिखा।
इसलिए एकालाप को लेखन के माध्यम से व्यक्त करना मुफीद लगा। बहुत बार लगता है कि क्या बने-बनाए ढर्रे पर ही सोचा अथवा काम किया जा सकता है। क्या यह नहीं हो सकता है कि आउट आफ बाक्स भी सोचा जा सकता है। किसी विषय पर एकदम विपरीत दिशा में क्यों नहीं विचार किया जा सकता। व्यक्तिगत रूप से कई बार इसका जवाब हां में मिलता है। इसके पीछे सबसे तर्क यह समझ में आता है कि अगर आप रूढ़ तरीके से ही सोचते रहेंगे तो वहीं खड़े रहेंगे अथवा समय की गति से कहीं काफी पीछे छूट जाएंगे। अगर समय के साथ अथवा समय से भी आगे की सोचेंगे तो संभव है कोई दिशा-दशा मिल ही जाए। लेकिन जैसे ही कोई ऐसा सोचने लगता है, लोगों को लगता है भयानक अनिष्ट हो जाएगा। अरे, ऐसा कभी कहीं होता है अथवा कोई करता है। परिणाम यह होगा कि आप मूर्ख घोषित कर दिए जाएंगे। कहे जाएंगे कि आपका इतना पढ़ना-लिखना सब व्यर्थ चला गया। छोटी सी बात समझ में नहीं आती।
अब यह छोटी सी बात क्या है। इस छोटी सी बात को समझने के लिए हमारे सामाजिक ताने-बाने को समझना होगा। जिन सज्जन का घर गिरने वाला है बताया जाता है कि यह उन्हें तब घर वालों की तरफ से खरीद कर दिया गया था जब उन्होंने धमकी दी थी कि अगर उनके लिए एक घर नहीं दिया गया तो जान दे देंगे। तब से लेकर अब तक करीब बीस सालों में उसकी देखरेख की कोई कोशिश की गई। दिमाग में यह तर्क काम कर रहा था कि पता नहीं भविष्य में यह उनका होगा या नहीं। कारण यह था कि जब कभी भी बटवारा होगा तो यह पता नहीं किसको मिले। इसी तर्क के आधार पर तीन घर ऐसे हैं जिनमें भाई लोग रह तो रहे हैं लेकिन उन्हें ठीक रखने के लिए कुछ भी नहीं करते। घरों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया है। घर भी ध्वस्त होने को अभिशप्त हैं।
जब भी इनके गिर जाने की बातें की गईं, मेरा सुझाव होता था कि या तो उन्हें ठीक कराया जाना चाहिए या छोड़ दिया जाना चाहिए। मेरी अपनी सोच है कि किसी भी नौजवान को बटवारे के लिए मार करनी चाहिए बल्कि खुद ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि उसे दूसरों के ऊपर निर्भर नहीं रहना चाहिए। आखिर माता-पिता ने भी तो उद्यम कर जमीन और मकान बनाया होगा। अगर उनके पास कुछ न होता तो किस बटवारे के लिए मार की जाती। यह भी कि अगर एक निश्चित संपत्ति का ही बटवारा होता रहेगा तो आने वाली पीढ़ियों के लिए तो कुछ बचेगा ही। ऐसे में अगर हर कोई खुद ही कमाने और खाने लगेगा, अपना घर और जमीन बनाने लगेगा तो एक तो बटवारे की समस्या से मुक्ति मिल सकती है। दूसरे इस बटवारे को लेकर आपस में जो जानलेवा दुश्मनी बढ़ती है, उसके विपरीत रिश्तों में भी थोड़ी मिठास बढ़ सकती है।
देखने की बात यह है कि इस तरह के तर्क कैसे एक ही वार से धूल-धूसरित हो जाते हैं और आप मूर्ख घोषित हो जाते हैं। अरे यह कैसे संभव हो सकता है। आखिर पुरखों की जमीन को ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं। उसे हासिल करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भले ही भूखों रहें, घर की छत भले ही बच्चों के ऊपर गिर जाए लेकिन पुश्तैनी घर छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। मुझे लगता है कि अगर इसके विपरीत सोचा और काम किया जाता तो संभव है इन बीस-पचीस सालों में कहीं ज्यादा अच्छा जमीन या मकान बनाया जा सकता था। लेकिन जब सारा दिमाग और सारी ऊर्जा सिर्फ इसमें खर्च की जाती रहेगी कि नहीं जी जीना यहीं मरना यहीं तो ऐसी स्थितियां तो आएंगी ही। इससे भी आगे यह होगा कि नई पीढ़ी भी उसी में उलझी रहेगी। ऐसा इसलिए कि वह न पढ़ पाएगी न कोई उसे कोई रोजगार मिल पाएगा और न ही वह अपना कोई उद्यम अथवा व्यवसाय कर पाएगी। वह भी आगे चलकर अपने बाप-दादा की तरह सोचती व करती रहेगी। उसी बने-बनाए दायरे में उलझी रहेगी।
मुझे याद आते हैं गौतम बुद्ध। कैसे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई होगी। कैसे उन्होंने घर-बार छोड़ा होगा और दुनिया के सबसे महान लोगों में शामिल हो गए होंगे। कई बार यह भी लगता है कि अगर महात्मा गांधी अपने माता-पिता के भरोसे रहते और पुरखों की जमीन व घर के बटवारे के लिए लड़ते रहते तो क्या बापू हो पाते और भारत को आजादी मिल पाती। हमारे पूर्वांचल के कितने गिरमिटिया मजदूर जीविकोपार्जन के लिए विदेशों में गए और उन्हीं में से कई प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और सांसद आदि भी बने। यह तो मात्र कुछ उदाहरण हैं। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि चलते रहेंगे तो कहीं पहुंचेंगे। एक जगह स्थिर रहेंगे तो तालाब के पानी की तरह हो जाएंगे जो सड़ने के लिए ही अभिशप्त होगा। समझ में नहीं आता कि लोगों को अपने अतीत से इतना प्रेम कैसे होता है कि वे बंदरिया की तरह अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से चिपकाए रहती है। प्रेम बहुत अच्छी चीज होती है। इससे इनकार नहीं लेकिन यह भी देखना चाहिए वह किसके साथ है। प्रेम पुष्पित-पल्लवित होता है। वह मरने के लिए नहीं होता। लेकिन क्या करेंगे उस कहावत का कि दिल लगा गधी से तो परी किस काम की। घर गिर जाने की आशंका में जी रहे लोग अगर कुछ देखना, सुनना और समझना नहीं चाहते तो लगता है कि जिस भगवान की वह हर बात में दुहाई देते हैं वह भी उनका कुछ नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, जिस लगातार सड़ रहे समाज की शान में वे कसीदे पढ़ते रहते हैं, वह समाज भी उन्हें मरने के लिए ही मजबूर करता है। इसके बाद भी उन्हें अगर वही अच्छा लगता है तो कोई क्या कर सकता है।
उक्त जानकारी पर एकबारगी मन हुआ कि फिर कहें कि उस घर को छोड़कर कहीं नया घर बसाइए। लेकिन लगा कि यह तो किसी को मंजूर नहीं। आश्चर्य तो इस पर ज्यादा होता है कि बाहर गए लोग भी कैसे उसी टूट रहे घर और घृणित रूप से विभक्त हो रहे समाज में ही लौट जाने के लिए उतावले हो रहे हैं। इस तर्क पर की पुरखों की जमीन को कैसे छोड़ेंगे और उसी में जिएंगे-मरेंगे तभी मोक्ष मिलेगा। अब यह सभी को अपने-अपने तरीके से तय करना पड़ेगा कि उन्हें कैसा मोक्ष चाहिए अथवा मोक्ष चाहिए भी कि नहीं। मुझे लगता है कि जो जीवन मिला है, उसे तो पहले कुछ मोक्षदायक बनाने की कोशिश कीजिए। बाद में शायद इसी के जरिये मोक्ष भी मिल जाए। जब आपसी और खून के रिश्तों में इतनी कटुता रहेगी तो मोक्ष मिल भी जाए तो किस का काम का रहेगा। 

Tuesday, March 3, 2015

किसान ने की आत्महत्या


अभी एक खबर मिली है कि उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के एक किसान ने अपने ही खेत में आत्महत्या कर ली। यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि इस समय बेमौसम की बरसात हो रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि ठीक इसी समय में संसद में और उसके बाहर भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर बहस चल रही है। सरकार कह रही है कि उसकी चिंता में गरीब और किसान हैं। विपक्ष कह रहा है कि यह सरकार हर काम गरीब और किसान-मजदूर विरोधी कर रही है। पता नहीं कौन सच बोल रहा है लेकिन परिणाम इस दुखद रूप में सामने आ रहा है कि किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अभी हमारे एक मित्र पूर्वांचल के अपने गांव से दिल्ली लौटे हैं। मिले तो बहुत परेशान दिखे। पूछने पर बताने लगे कि इस बार आलू की पैदावार बहुत अच्छी हुई थी लेकिन वह इतने सस्ते में बिक रही है कि उसे बेचने पर लागत भी नहीं निकल पाएगी। सोचा था ठीक से बिक जाएगी तो कुछ कर्ज कम कर लिया जा सकेगा लेकिन अब तो इसकी चिंता है कि इस आलू को करें तो करें। इससे भी बड़ी चिंता यह है कि इस बारिश से तो गेहूं और सरसो आदि की फसल भी बरबाद हो जाएगी। ऐसा हो गया तो खाने के लाले पड़ जाएंगे। इस सबके बीच करीब एक साल से बेरोजगार पत्रकार का कहना था कि वह कई दिनों से यह सोच रहे थे कि अब दिल्ली में गुजारा नहीं हो रहा है तो गांव चलेंगे और वहीं कम से कम खाने भर का तो उत्पादन कर ही लेंगे। लेकिन अब लग रहा है कि अगर मौसम की मार इसी तरह पड़ेगी और सरकार जमीन भी ले लेगी और किसानों को कोई सुविधा नहीं देगी तो वहां भी जीवन दूभर हो जाएगा। सवाल यह है कि आखिर आदमी जाए तो कहां जाए। क्या वह मरने के लिए ही मजबूर है। पता नहीं सरकार इस पर क्या कहेगी।

Sunday, March 1, 2015

बेमौसम की बारीश

बसंत के मौसम में आप सोए हों और अलसुबह कोई यह कहते हुए जगाए कि अरे उठिए बारिश हो रही है तो कैसा लगेगा। सबको पता नहीं पर मुझे लगा कि छोड़ो नींद को और खिड़की-दरवाजे खोलो। सब कुछ सुहाना लगेगा। धूल कहीं बह चुकी होगी और पौधों की पत्तियां हरी-भरी होंगी। मन मचलने लगा और मैं बाहर आ गया। रिमझिम बारिश। लेकिन अचानक मन में कुछ शंकाएं और खतरे भी उठने लगे। पहला यह कि यह बेमौसम की बारिश बीमार भी कर सकती है। दूसरा यह कि इससे किसानों की फसलों का क्या होगा। कहीं वे नष्ट तो नहीं हो जाएंगी। तीसरा यह कि गांवों में मां, बहनें और भाभियां जो चिप्स बना रही थीं उनका क्या होगा। इससे भी ज्यादा इसको लेकर भी होने लगी कि चार दिन बाद होने वाली होली का क्या होगा। ठंड में होली कौन खेलेगा और कौन रंगों से सराबोर करेगा। कहीं रंगों में सराबोर हो जाने का सुख छीना तो नहीं जाएगा।