Tuesday, June 7, 2011

आधी रात के बाद का हमला


जब भारत को आजादी मिल रही थी तब देश के पहले प्रधानमंत्री (जिनको लेकर भारतीयों में बहुत सारे सपने पल रहे थे) ने कुछ इस तरह कहा था, जब पूरी दुनिया नींद के आगोश में होगी, हम एक नए भारत में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें सब को पूरी आजादी होगी। चार जून की आधी रात के बाद रामलीला मैदान में जो कुछ सरकार और प्रशासन की ओर से किया गया, उससे नेहरू की बात गलत साबित होती है क्योंकि इसे आजादी कतई नहीं कहा जा सकता। वहां सरकार और प्रशासन की ओर से जिस तरह के हालात पैदा किए गए उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता बल्कि उसकी जितनी निंदा की जाए कम होगी। जो लोग पुलिसिया जुर्म को जायज ठहराने की मुंहजोरी कर रहे हैं उन्हें तो दंडित किया ही जाना चाहिए पर जिन लोगों के साथ जुर्म किया गया है उन्हें भी यह समझ जाना चाहिए कि पुलिस और सरकार का असली चेहरा क्या होता है। रविवार को सुशासन के लिए नाम कमा रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब बाबा रामदेव के साथ की गई कार्रवाई की निंदा कर रहे थे तब बिहार के ही वे चार किसान और उनके परिवार के लोग याद आ रहे थे जिन्हें अभी दो दिन पहले पुलिस ने फायरिंग कर मौत के घाट उतार दिया था। यह लोग शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। वहां मामला एक फैक्टरी को दी गई जमीन से जुड़ा था। शनिवार को ही दिन में कुछ न्यूज चैनल वह तस्वीर प्रसारित कर रहे थे जिसमें जमीन पर पड़े एक बेहोश व्यक्ति के ऊपर एक पुलिस वाला कूद रहा था। अब नीतीश जी कह सकते हैं पूरे मामले की जांच की जा रही है और जो भी दोषी पाया जाएगा उसे बख्शा नहीं जाएगा। हालांकि बर्बर पुलिसकर्मी गिरफ्तार कर लिया गया है पर यह कोई समाधान नहीं हुआ। सवाल यह है कि पुलिस को इस तरह की कार्रवाई करने की छूट किसने दे रखी है। क्या इसी तरह की कार्रवाई पुलिस किसी बड़े आदमी के साथ कर सकती है, नहीं। लेकिन उनसे कोई यह क्यों नहीं पूछता कि आखिर पुलिस को यह छूट किसने दे रखी है। हमारी विपक्ष की सम्मानित नेता बहुत तेजतर्रार तरीके से कह रही हैं कि जिस व्यक्ति की आगवानी करने के लिए सरकार के चार-चार वरिष्ठ मंत्री हवाई पहुंच जाते हैं और पांचसितारा होटल में जिस व्यक्ति के साथ बातचीत की जाती है उसी व्यक्ति के खिलाफ आधी रात में जब रामलीला मैदान में बहुतायत लोग सो रहे हों, पुलिसिया कार्रवाई की अचानक जरूरत क्यों पड़ गई। किसी को कतई यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि मैं इस कार्रवाई का किसी तरह से समर्थक हूं बल्कि मैं तो ऐसा करने और करवाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किए जाने की इच्छा रखता हूं लेकिन इसके साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि यह कोई जलियांवाला बाग में ही नहीं हुआ था और न ही आपातकाल के दौरान। आधी रात को पुलिस द्वारा किसी को भी किसी के घर से उठा ले जाना और किसी के भी परिजनों पर लाठियां और गोलियां चलाना इस देश में आम घटनाएं हैं। किसी भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन अथवा आंदोलन को हिंसक बताकर उस पर जुल्म करना यहां आम बात है लेकिन तब उनकी बात नहीं सुनी जाती और न कही जाती है। तब यही लोग सरकार और प्रशासन की भाषा बोलते हैं क्योंकि उसमें कोई बाबा रामदेव नहीं होता बल्कि वे आम किसान, मजदूर, छात्र और महिलाएं होती हैं। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमों में फंसाना, कुख्यात अपराधी, आतंकवादी और नक्सली बताकर किसी को भी घर से आधी रात को घर से उठाकर ले जाना और मुठभेड़ में मार गिराना, किसी भी आंदोलन को अराजक और अशांति फैलाने वाला बताकर उसका दमन करना अथवा रोक देना, हर सरकारों (कम्युनिस्ट कही जाने वाली सरकारों का भी) का काम हो गया है। सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार और कुछ अन्य राज्यों में भी सरकारों ने बहुत बार ऐसा किया है अथवा कर रही हैं। इनमें उनकी भी सरकारें रही हैं जिन्हें आज आपातकाल का भोगा हुआ यथार्थ याद आ रहा है और जो रामलीला मैदान की कार्रवाई को जलियांवाला बाग से भी ज्यादा बर्बर बताते नहीं थक रहे हैं और कार्रवाई को लोकतंत्र के नाम पर कलंक बता रहे हैं। निश्चित रूप से इस कार्रवाई से जलियांवाला बाग, आपातकाल की यादें ताजा होती हैं और इससे लोकतंत्र कलंकित होता है लेकिन जब आम और निरीह-निर्दोष लोगों के साथ यही सब किया जाता है तब क्यों नहीं जलियांवाला बाग और आपातकाल याद आता और लोकतंत्र कलंकित होता। अपने को सबसे बड़ा समाजवादी बताते न थकने वाले मुलायम सिंह यादव शायद रामपुर तिराहा कांड भूल गए हैं। वह भूल सकते हैं पर वहां के लोग और इस देश की जनता कभी नहीं भूलेगी। वे यह भी भूल गए कि किन कारणों से पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जबर्दस्त हार हुई थी। उसी तरह बड़ी-बड़ी बातें करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने अपने राज्य में एक समुदाय विशेष के लोगों के साथ जो कुछ किया-करवाया उसके लिए उन्हीं की पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने शर्मिंदगी महसूस की थी। यह तो मात्र दो नाम हैं। कितने नवीन पटनायक और कितने रमन सिंह इसी तरह के हैं जिनके कोप का शिकार आम लोगों को लगातार होना पड़ रहा है पर किसी को लोकतंत्र और जलियांवाला बाग याद नहीं आता, क्यों। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संप्रग सरकार द्वारा की गई कार्रवाई जायज है। ऐसी किसी भी कार्रवाई का व्यापक स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए लेकिन वह भी दिखावे वाला नहीं होना चाहिए न किसी को बरगलाने के लिए जैसा संघ और भाजपा की ओर से बाबा के बहाने किया जा रहा है। किसी को यह भूलना नहीं चाहिए कि इन दोनों ने राम मंदिर के नाम पर पूरे देश में क्या-क्या किया लेकिन जब सरकार बनी तो उसी मुद्दे को किनारे कर दिया जिसकी बैसाखी के सहारे सरकार में आए थे। साध्वी ऋतंभरा को मंच पर बैठाने से पहले बाबा रामदेव को यह बात समझनी चाहिए थी। अन्ना ने शायद इसे कुछ हद तक समझा था शायद इसीलिए उन्होंने उमा भारती को फटकने नहीं दिया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह जिस भाषा में बाबा रामदेव के बारे में बातें कह रहे हैं उसे शिष्ट और सभ्य नहीं कहा जा सकता लेकिन भोपाल में उनके बंगले पर किए गए पथराव के संकेत भी कोई कम खतरनाक नहीं हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पथराव करने वाले कौन लोग हो सकते हैं और यह लोग एक बार फिर किस तरह का दौर लाने की तैयारियां कर रहे हैं।
बहरहाल, आज सरकार, प्रशासन और बाबा रामदेव व उनके समर्थक चाहे जो आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों, एक बार फिर यह साबित हो गया कि देश में आजादी नाम की कोई चीज नहीं है। जो कुछ है सिर्फ कहने के लिए और उन कुछ लोगों के लिए है जो सर्वशक्तिसंपन्न हैं। बाबा और अन्ना को भी यह पहले से समझना चाहिए था लेकिन वे इसलिए नहीं समझ पा रहे थे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि वे इतना बड़ा काम कर रहे हैं जिसे शायद महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण भी नहीं पाए। उन्हें आभास हो गया कि देश के काफी लोग उनके साथ जुड़ गए हैं इसीलिए मुगालता भी हो गया था कि सरकार उन्हें पूजेगी। अपनी आदत के मुताबिक सरकार ने भ्रम फैलाने के लिए ऐसा किया भी। देश के विभिन्न हिस्सों में देश और जनता से जुड़े कई मुद्दों पर बहुत बड़े-बड़े आंदोलन चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके साथ जनसमर्थन नहीं है (जैसा कि अन्ना और बाबा के बारे में लाखों में आंकड़े बताए जा रहे हैं)। उनके साथ भी हजारों-लाखों समर्थक हैं पर सरकार उनकी बात तक नहीं सुनती, बातचीत करने को कौन कहे जबकि इन संत और बाबा के साथ अनशन शुरू करने के पहले से ही सरकार नतमस्तक हो जाती है। यहां इसका उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि महात्मा गांधी के बाद अनशन का असल प्रयोग इरोम शर्मिला ने किया लेकिन उनकी बात न सरकार सुन रही है न सुनना चाहती है। क्या अनशन को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले, लोकतंत्र को बचाने के लिए सदैव चिंतित रहने वाले हमारे नेतागण इस पर कुछ नहीं कहना चाहेंगे। जो लोग व्यवस्था परिवर्तन का राग अलाप रहे हैं उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इरोम का क्या कसूर है। क्या गांधी के बताए अनशन का अधिकार सिर्फ संतों और बाबाओं को है, आम आदमी के लिए नहीं।