Thursday, December 2, 2010

नीतीश की जीत का मतलब

गतांक से आगे
बिहार के चुनाव परिणामों को लेकर जो निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं वे एकांगी लगते हैं। निश्चित रूप से लगता है कि कुछ बहुत कुछ अप्रत्याशित और चमत्कारिक है। जितनी ज्यादा सीटें राजग गठबंधन को मिलीं उसका अनुमान कुछेक लोगों को छोड़ दिया जाए तो किसी को नहीं था। एक तरह से विपक्ष का सफाया ही हो गया है। इससे हमारे संसदीय लोकतंत्र को लेकर भी चिंताएं होनी चाहिए थीं कि अगर जनता किसी एक व्यक्ति और पार्टी को इस तरह स्वीकार करने लगेगी तो कैसी स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। इसके विपरीत इस पर खुशी का इजहार किया जा रहा है कि विपक्ष का कोरम ही नहीं हो पा रहा है और दोनों की भूमिका नीतीश कुमार को ही निभानी पड़ेगी। जरा सोचिए कि अगर आने वाले चुनावों में (जैसा कि बिहार में इस बार हुआ है) बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को सभी सीटों पर जिता दिया तो क्या होगा। यहीं से इस सवाल पर विचार करने की जरूरत पैदा होती है कि जिस जनादेश की बातें हमारी राजनीतिक पार्टियां और हमारे नेता करते हैं, उसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए। इस संदर्भ में सबसे पहली बात यह है कि राजनीतिक चिंतकों को यह देखना चाहिए कि जनता को राजनीतिक रूप से कितना शिक्षित और प्रशिक्षित किया गया है। हमारा मानना है कि इस दिशा में भारत में रंच मात्र भी काम नहीं हुआ है। इसके विपरीत जनता को राजनीतिक विचारशीलता के लिहाज से काफी पीछे छोड़ दिया गया है। कोई कितना भी कहे कि आम मतदाता चुनाव के परंपरागत मानदंडों (जाति, धर्म, बाहुबल, धनबल और परिवारवाद) आदि से ऊपर अब विकास और अन्य मुद्दों पर अपने नेताओं का चयन करने लगा है, यह बात सहज रूप में गले के नीचे उतरने वाली नहीं लगती। कहा जा सकता है कि आम मतदाता अभी भी इन सबसे ऊपर नहीं उठ पाया है और वह आस्थाओं और अंधविश्वासों के आधार पर ही अपने जनप्रतिनिधियों का चयन कर रहा है। बिहार में इसका उदाहरण साफ देखा जा सकता है।
चुनाव के तरीकों को लेकर लंबे समय से कई तरह के सुझाव और कई शिकायतें आती रही हैं। कुछ तब्दीलियां भी समय-समय पर की गई हैं लेकिन अभी भी बहुत सारे सवाल अनसुलझे हैं। एक बड़ा सवाल यह रह गया है कि अभी भी करीब आधे मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते। इसे एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जाना चाहिए लेकिन इसकी लगातार अनदेखी की जा रही है। मतदान आवश्यक करने का भी एक सुझाव आता रहता है पर यह न तो व्यावहारिक लगता है और न ही इसे जबरदस्ती थोपना उचित लगता है। इसके बावजूद यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि आखिर इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है। इस समस्या का समाधान इसलिए जरूरी लगता है कि कई बार बहुत कम लोगों के मतदान करने के बावजूद जनप्रतिनिधियों का चयन हो जाता है जो सार्थक नहीं लगता। इसी तरह प्रत्याशियों और पार्टियों को मिला मत प्रतिशत भी एक सवाल है। कई बार देखा गया है कि कम मत प्रतिशत हासिल करने वाले प्रत्याशी अथवा पार्टी विजयी हो जाती है और ज्यादा मत प्रतिशत वाले पराजित हो जाया करते हैं। इससे प्रत्याशी और पार्टी की जनता के बीच स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता का सही आकलन कर पाना मुश्किल काम होता है। प्रत्याशी चयन में परिवारवाद, बाहुबल, धनबल, जातीय समीकरण आदि भी कई ऐसे सवाल हैं जो अनुत्तरित रह गए हैं। महिलाओं और युवाओं का सवाल भी आजकल चुनाव में काफी उछाला जाता है लेकिन क्या उनका उचित प्रतिनिधित्व हो पा रहा है। बिहार के चुनाव के संदर्भ में भी इन सबको ध्यान में रखकर ही उचित विश्लेषण किया जा सकता है लेकिन बहुत कम लोगों के इसके मद्देनजर चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया है। माना जा रहा है कि बिहार में महिलाओं ने काफी बढ़ चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया और उनमें बहुतायत ने राजग के पक्ष में वोट दिया। इसके पीछे अन्य कारणों के अलावा महिला आरक्षण के सवाल पर नीतीश कुमार के दृष्टिकोण को भी माना जा रहा है। यहां पहला सवाल यह उठता है कि क्या उन्होंने अपनी सोच के मुताबिक प्रत्याशी चयन में महिलाओं को उनके अनुपात में टिकट दिया। इसका जवाब न में ही मिलेगा। कहा जा सकता है कि चुनाव जीतने के लिए लड़ा जाता है और इसीलिए प्रत्याशी भी जीतने वाले ही उतारे जाते हैं पर क्या इससे लगता नहीं कि विचार और व्यवहार में बुनियादी अंतर है। अगर हम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने की वकालत करते हैं तो पार्टियों में इसे क्यों नहीं लागू किया जा सकता। अगर ऐसा नहीं किया जा रहा है तो समझिए कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। नीतीश कुमार ने भी वोटों की खातिर पार्टी लाइन के विपरीत लाइन ली। जब संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर बहस चल रही थी तब वह बिहार में अपने अध्यक्ष शरद यादव के खिलाफ खड़े थे। इसे ही दोतरफा राजनीति कहते हैं। यही हाल उनका सांप्रदायिकता के सवाल पर भी रहा है। खुद को लोकनायक जयप्रकाश नारायण का असली वारिस कहलाना पसंद करने वाले नीतीश ने उसे पार्टी के साथ गठबंधन कर रखा है जिसे पूरे देश में सांप्रदायिक पार्टी के रूप में जाना जाता है। ऐसे में उसके एक नेता या कहें एक राज्य के मुख्यमंत्री के विरोध का क्या मतलब निकाला जाना चाहिए। क्या इसे सिर्फ इस रूप में नहीं लिया जाना चाहिए कि वोट और सत्ता की खातिर नीतीश कुमार वह सब कुछ करने तो तैयार नहीं हैं जो अनुचित है। यही हाल बाहुबल और जातीयता को लेकर भी रहा है। सत्ता की खातिर ही ऐसे लोगों को जदयू द्वारा टिकट दिया गया जिन्हें दागी के रूप में बिहार में जाना और पहचाना जाता है। जातीय समीकरण को भी पूरी तरह अंगीकार किया गया तो सिर्फ इसीलिए कि चुनाव एन केन प्रकारेण जीतना है। बिहार के चुनाव में भी इन सब को अच्छी तरह आजमाया गया और चुनाव जीतने के लिए वे सारे हथकंडे अपनाए गए जो किसी भी चुनाव में हर राजनीतिक पार्टी द्वारा अपनाए जाते हैं। पूरे पांच साल तक अन्य कार्यों के अलावा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अन्य लोकप्रियता प्रदान करने वाले कार्यों के अलावा जिस बात पर सर्वाधिक ध्यान दिया वह यह कि कैसे अगला चुनाव जीता जा सकता है। इसके लिए जातीय समीकरण साधने के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (जिसे वह खुद उचित नहीं मानते) करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अतिपिछड़ा और महादलित के नाम पर जातीयता को और मजबूत करने तथा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार के लिए न आने के उनके चुनावी तरीकों को इसी रूप मे देखा जाना चाहिए।
इस सब के बीच चुनाव जीतना एक बात है लेकिन असलियत तो सामने आ ही जाती है भले ही जनता इस सब को बिना ध्यान दिए किसी को भी सत्ता सौंप दे। यहीं से यह सवाल एक बार फिर मजबूती से खड़ा हो जाता है कि अगर मतदाता राजनीतिक रूप से जागरूक और परिपक्व हो तो ऐसा कतई नहीं कर सकता। शायद इसीलिए जो लोग विभिन्न कारणों से चुनाव का बहिष्कार करते हैं अथवा अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते उनमें से बहुतायत की यही धारणा होती है कि अगर इन्हीं में से एक को चुनना है तो बेहतर अपना वोट किसी को न दिया जाए। इसी तरह जो लोग वोट करने जाते हैं उनमें यह तर्क काम करता है जो प्रदत्त परिस्थितियों में जो बेहतर बता दिया जाता है उसे वे वोट दे देते हैं। नीतीश कुमार भी प्रदत्त परिस्थितियों में बेहतर विकल्प थे, सो मतदाताओं ने उन्हें वोट दिया होगा लेकिन जिस विकास और सुशासन के नाम पर उन्हें इस तरह का भारी बहुमत मिला है वह विकास और सुशासन ऊपरी दिखावा ज्यादा लगता है। बल्कि इस तरह कहा जाए कि इसका प्रचार ज्यादा किया गया है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि अगर यह दोनों चीजें बिहार में नीतीश कुमार कुमार के गठबंधन को उनके नाम पर इतनी ज्यादा सीटें दिला सकती हैं तो गुजरात में नरेंद्र मोदी को क्यों नहीं दिला सकीं। गुजरात तो पूरी दुनिया में इस बात के लिए प्रसिद्धि पा चुका है कि वह एक विकसित राज्य है और इसका श्रेय भाजपा नरेंद्र मोदी को देती है, इसके बावजूद वहां का मतदाता मोदी को जिताता जरूर है लेकिन इतनी तादाद में सीटें नहीं देता जितनी बिहार में नीतीश कुमार को देता है। यहां यह भूलना नहीं चाहिए कि मोदी विकास के लिए उतना नहीं जाने जाते जितना वह गोधरा के कारण पूरी दुनिया में ख्यातिलब्ध हैं। यहीं से यह सवाल भी उठता है कि क्या इन दोनों राज्यों में और पूरे देश में विपक्ष नाम की कोई चीज रह गई है अथवा विपक्ष की असली भूमिका कोई पार्टी निभा रही है। कहना होगा नहीं क्योंकि गठबंधन राजनीति के इस दौर में हर स्तरीय पार्टी कहीं न कहीं सत्ता में है अथवा रह चुकी है या आशान्वित है कि उसे सत्ता मिल जाएगी। संभवतः कहीं न कहीं पार्टियों और नेताओं में यह धारणा भी बन गई है कि सत्ता के लिए सिर्फ बहुमत जरूरी नहीं है। झारखंड हाल का ऐसा सबसे बड़ा उदाहरण है जहां ऐसी सरकार बन गई है जिसकी कोई संभावना नहीं लग रही थी। इससे यह स्पष्ट है कि सत्ता अन्य कारणों की बदौलत भी हासिल की जा सकती है। तब क्या जरूरत है किसी का विरोध करने अथवा आंदोलन आदि करने की क्योंकि उसमें तो लाठियां भी खानी पड़ सकती है और जेल भी जाना पड़ सकता है। भूख हड़ताल भी करनी पड़ सकती है। जब जनता बिना यह सब किए ही सत्ता का स्वाद चखा सकती है तो क्या जरूरत है यह सब करने की। क्या कोई यह बता सकता है कि जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के नारे और इमर्जेंसी के खिलाफ चलाए गए संघर्षों के बाद कोई यह बता सकता है कि इस देश में कोई राजनीतिक आंदोलन हुआ है। अगर नहीं तो इससे कम से कम दो चीजें साफ होती हैं कि आज या तो देश में ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है जिसके खिलाफ आंदोलन चलाने की जरूरत है या फिर जब सत्ता ऐसे ही मिल जानी है तो क्या जरूरत है यह सब कुछ करने की। जरा सोचिए अगर बिहार और गुजरात में विपक्षी पार्टियों ने अपनी भूमिका निभाई होती तो जरूर परिस्थितियां कुछ भिन्न होतीं। उत्तर प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव इस बात है उदाहरण रहा है कि मायावती ने मुलायम सरकार के खिलाफ काफी हद तक संघर्ष चलाया था जिससे वहां के मतदाताओं में एक उम्मीद जगी थी कि मायावती ही अपराधियों से लड़ सकती हैं और उन्हें मतदाताओं ने वोट किया था। यह अलग बात है कि आज एक बार फिर उत्तर प्रदेश में कमोबेश उसी तरह के हालात हैं जैसे मुलायम से शासन के दौरान थे। बिहार में भी यह नीतीश कुमार ही थे जिन्होंने लालू यादव के कुशासन के खिलाफ संघर्ष किया था और उसका फल उन्हें पिछले चुनाव में मिला था। लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में मुख्यधारा की पार्टियों कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने जनता के पक्ष में कुछ भी नहीं किया और उसका खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ रहा है। देश की आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस तो वैसे भी मतदाताओं को अपना कर्जदार मानती है और यह तय मानकर चलती है कि मतदाता उसे पंडित जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी के नाम पर वैसे ही जिता देगी। वह यह भूल जाती है कि दुनिया अब काफी आगे निकल चुकी है और उसका भी अब वह जमाना नहीं रह गया जो कभी हुआ करता था। लेकिन हेकड़ी है कि जाती नहीं। बिहार चुनाव में भी कांग्रेसी यह मानकर चल रहे थे कि उन्हें तो राहुल गांधी को भोली छवि देखकर मतदाता वोट कर देगा पर न ऐसा होना था न हुआ। इसी तरह के व्यामोह में वे कम्युनिस्ट भी फंसे रह गए कि जनता उन्हें इसलिए वोट कर देगी क्योंकि उन्होंने अतीत में बड़े आंदोलन चलाए हैं। वे यह समझ ही नहीं पाते कि अगर मतदाता को राजनीतिक रूप से तैयार नहीं करेंगे तो जूलूसों और सभाओं में तो जा सकते हैं लेकिन वोट भी कर देंगे, ऐसा नहीं होगा।
जब आप उनके लिए कुछ करोगे ही नहीं तो आपको सिर्फ इसलिए वोट नहीं कर देंगे कि कभी आप उनके लिए लड़े थे। इसी बिहार में कभी भाकपा माले की करीब दस सीटें हुआ करती थीं। भाकपा और माकपा भी वहां एक मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप मे जानी जाती थीं लेकिन धीरे-धीरे उनका इस कदर ह्रास हुआ कि यह दोनों पार्टियां तो सिरे से गायब ही हो गई थीं, इस चुनाव में भाकपा माले का भी पूरी तरह सफाया हो गया जबकि कुछ लोग (यह पार्टियां भी) यह मानकर चल रहे थे कि लंबे समय बाद तीनों पार्टियों के मिलकर चुनाव लड़ने का कुछ फायदा इन्हें अवश्य मिल सकेगा पर परिणाम आने के बाद इनकी असलियत भी सामने आ गई। पता नहीं कैसे भाकपा को एक सीट मिल गई। यहां इसका उल्लेख भी जरूरी है कि भाकपा माले की संसदीय राजनीति का एक उदाहरण तब भी सामने आया था जब उसके कई विधायकों को लालू यादव ने तोड़ लिया था। यहां बसपा की उस सोशल इंजीनियरिंग की पोल भी खुल गई जिसकी उत्तर प्रदेश के चुनावों के बाद राजनीतिक विश्लेषकों ने बड़ी तारीफ की थी। वह सोशल इंजीनियरिंग बिहार में काम नहीं आई और वहां नीतीश की विकास इंजीनियरिंग काम कर गई। अब वही राजनीतिक विश्लेषक नीतीश की राजनीति के कसीदे पढ़ने में जुट गए हैं। वे राजनीतिक असलियत से पता नहीं क्यों इतनी जल्दी परदा कर लेते हैं। वे हर किसी सत्ताधारी का इस कदर गुणगान करने लग जाते हैं जैसे उसने उन पर कोई जादू कर दिया हो। जैसे बिहार में चुनाव परिणाम आने के साथ ही यह कहा जाने लगा है कि मतदाता अब जात पांत से ऊपर उठ चुका है। अब विकास की जरूरत है। इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा आदि न जाने क्या-क्या? उत्तर प्रदेश में बसपा को मिले बहुमत के बाद और फिर कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के बाद गठबंधन और एक पार्टी की सरकार को लेकर भविष्यवाणियां की जाने लगीं। अब एक बार फिर यह कहा जाने लगा है कि बिहार के परिणाम का व्यापक प्रभाव केंद्र की राजनीति पर भी पड़ेगा। मुझे लगता है कि इस तरह के निष्कर्ष निकालना बहुत जल्दबाजी होगी। बहुत फूल कर गुप्पा होने की जरूरत नहीं है। जरा याद करिए जब लालू यादव की सरकार बनी थी तब भी लोग उनका बहुत गुणगान करते थे । लालू के रेल मंत्री रहते हुए उनके रेल मंत्रालय के काम की पूरी दुनिया में कितनी सराहना की गई थी। मीडिया और राजनीतिक विश्वेषक भी तारीफ के पुल बांध रहे थे। बिल गेट्स तक लालू से पढ़ने का लालायित थे। मेरा यह मानना है कि जब किसी को सब कुछ सकारात्मक दिखने लगे तो समझिए कुछ गड़बड़ है। मनमोहन सिंह की भी लोग कोई कम तारीफ नहीं करते थे। लेकिन देखिए करीब छह साल में क्या-क्या सामने आने लगा है। मुझे याद है जब मीडिया में पहली इस तरह का विचार सामने आया था कि अब लोग नकारात्मक खबरें नहीं पढ़ना और देखना चाहते तभी मुझे यह शक हुआ था कि इस सकारात्मकता में सारी नकारात्मकता को छिपाने की कोशिश तो नहीं हो रही है। अब फिर यह खतरा बढ़ने लगा है। इसीलिए मेरा कहना है कि बिहार को लेकर बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। कोई एक व्यक्ति पूरी व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकता। वह कुछ लोकलुभावन जरूर कर सकता है बुनियादी तौर पर कोई बदलाव नहीं ला सकता। बिहार में भी कोई बुनियादी बदलाव नहीं हो गया है पांच साल में और यह भी मानकर चलिए कि अगले पांच साल में आम लोगों का जीवन कोई सुखमय नहीं होने जा रहा है। जरूरत व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की है बिना इसके चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन लोगों का मोहभंग भी बहुत जल्द होता है। देखना यह होगा कि लालू ने करीब पंद्रह साल लगाया, नीतीश कितने साल लगाते हैं?

नीतीश की जीत का मतलब

पहले (चुनाव के दौरान) लगता था विकास का मतलब सड़कें बनना होता है। अगर कुछ सड़कें बन गई हैं तो समझिए विकास हो चुका है। चुनाव माने बिहार विधानसभा का चुनाव। जिस दिन मतदान का छठां यानि अंतिम चरण बीता, उसके अगले दिन घूम-घूमकर बतियाने वाले एक अंग्रेजी अखबार के संपादक ने विकास की नई परिभाषा गढ़ दी जिसे पढ़-सुनकर कोई भी तर्कहीन व्यक्ति मंत्रमुग्ध हुए बिना रही सकेगा। उन्होंने गीता की तरह का उपदेश दिया कि अगर किसी देशकाल को समझना है तो सड़क मार्ग से होकर गुजरिए और उन्होंने गुजरते हुए देखा कि बिहार की सड़कों के दोनों ओर अंडरगार्मेंट्स के विज्ञापन काफी तादाद में दिख जाएंगे। वे इस तथ्य को नए सिरे से स्थापित कर रहे थे कि बिहार का काफी विकास हो चुका है। यह और इसी तरह के कितने ही पत्रकार वह चाहे टीवी के हों अथवा प्रिंट के पिछले करीब पांच साल से यह बताते थक नहीं रहे थे कि बिहार काफी विकास करता जा रहा है। ऐसा कहते-बताते हुए वे रस, छंद अलंकार, संधि और समास समेत अभिधा, लक्षणा और व्यंजना कुछ भी छोड़ नहीं रहे थे। इसे सरल शब्दों में कहें तो ऐसा लगता था कि वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गुणगान में कलम तोड़ दे रहे थे। टीवी वाले भी कुछ ऐसा ही अपनी भाषा में तो़ड रहे थे। अब तो जनादेश ने भी साबित कर दिया कि वाकई बिहार विकसित हो चुका है और जो कुछ बच गया था वह अब चुटकियों का काम रह गया है। मुझे पता नहीं क्यों हमेशा यह सवाल उद्वेलित करता रहता है कि जहां एकतरफा सोच काम करती है वहां जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ होता है। बिहार और वहां के शासन-प्रशासन को लेकर भी यह लगता रहता था कि आखिर ऐसा क्या हो गया है बिहार में कुछ खराब दिखता ही नहीं। तब लगता है कि बिहार को देखने वाले शायद असली गांधीवादी हो गए हैं कि न बुरा देखना है, न बुरा सुनना है और न बुरा कहना है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि बिहार और वहां के नेता पूरे देश से अलग कैसे हो गए। वहां के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने में तो कोई बुनियादी बदलाव आया था और नेताओं में भी कोई किसी दूसरे लोक से तो नहीं टपका था।
क्रमशः