Wednesday, September 29, 2010

खेल के बहाने जगा देश प्रेम

कामनवेल्थ खेलों ने और चाहे जो भी अच्छा बुरा किया हो या न किया हो, इतना जरूर किया कि हम भारतीओं में देश प्रेम कि भावना का अजब संचार कर दिया है. लोगों में महात्मा गाँधी साक्चात घर कर गए हैं. वो न बुरा देखना चाहते हैं न बुरा कहना चाहते हैं और न बुरा सुनना चाहते हैं. इतना ही नहीं, कोई भी अगर इन तीनों में से एक भी करता मिल जा रहा है तो उसकी बखिया उधेड़ दे रहे हैं. आखिर यह देश कि इज्जत का मामला जो है. अब भले ही स्टेडिं कि उपरी दीवार टपक रही हो, कल गाँव में सांप मिल जाए, सड़क धंस जा रही हो, समय पर काम पूरे न हो रहे हों, निउक्तियो में धांधली होने समेत कितने ही आरोप लग रहे हों. खेल गाँव में करोड़ों कि लगत वाले कमरों में गन्दगी को लेकर कहा जा रहा है कि विदेशिओं के सफाई के मानक हम से अलग हैं लेकिन इसका करेंगे कि एक खिलाडी के बैठते ही बिस्तेर टूट जाता है. देश और उसकी इज्जत तो बचाने से बचेगी, लेकिन सवाल यह है कि इसकी चिंता किसको है. हर कोई खानापूर्ति में लगा हुआ है. इससे भी जिआदा कमाई में लगा हुआ है. ऐसे लोगों को देश कि चिंता कहाँ है. देश कि चिंता करने वाले तो दूसरे लोग हैं और जब वे कहते हैं कि अच्छा काम करो ताकि देश का नाम रोशन हो तो कहा जाता है कि पहले खेल हो जाने दीजिए बाद में सब ठीक हो जाएगा. जरा सोचिए बाद में क्या होता है और बचता क्या है. हमारे प्रधानमंत्री भी कह रहे है पहले खेल हो जाने दीजिए उसके बाद किसी भी अनियमितता करने वाले को बक्शा नहीं जाएगा. जरा सोचिए कि अभी खेल के नाम पर खेल करने कि छूट देने वाले बाद में क्या करेंगे, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

Monday, September 27, 2010

सब कुछ भगवान भरोसे

सुबह फ्रेश होने के बाद मैं डेंगू से पीड़ित अपने एक मित्र को देखने के लिए जाने को तैआर हो रहा था कि दरवाजा खटखटाया गया. दरवाजा खोला तो पता कि हमारे अपार्टमेन्ट के ही करीब पांच-छह लोग जिनमें कुछ वृद्ध और कई नौकरीपेशा लोग थे जिन्हें देखते ही समझ में आ गया कि यह लोग चंदा मांगने आये हैं . चंदा मांगना कोई बुरी बात नहीं होती . पंडित मदन मोहन मालविया ने चंदा मांगकर बनारस में विश्वविद्यालय बनवा दिया था . मैंने खुद भी कई बार चंदा माँगा है कई कामों के लिए . इनमें एक पत्रिका और एक पुस्तकालय के लिए चंदा भी शामिल है . शायद इसीलिए किसी सामाजिक काम के लिए चंदा देने में मुझे ख़ुशी भी होती है . लेकिन आज जो लोग जिस काम के लिए चंदा मांगने आये थे वह मुझे कतई पसंद नहीं आया. असल में वे लोग उस मंदिर के लिए चंदा मांगने आये थे जो अपार्टमेन्ट में ही बनाया जा रहा है. जब उसकी शुरुआत हुई थी तभी मेरे दिमाग में यह सवाल उठा था कि आखिर इसकी जरुरत क्या है. जाहिर है यह सवाल उन लोगों के लिए बकवास लग सकता है जो इस काम में लगे हैं इसके बावजूद क्या इसका उनके पास कोई माकूल जवाब हो सकता है कि जहाँ मूलभूत सुविधाए न हों वहां इस तरह के काम का क्या मतलब हो सकता है. यह तब और जब उसी मंदिर कि दिवार से लगा एक मंदिर पहले से ही मौजूद है. इसकी अनुपयोगिता इससे भी साबित होती है. मंदिर में पूजा ही होती है और अभी कोई इससे रोक नहीं रहा है. जरा सोचिए, अगर उतनी ही जगह में बच्चों के खेलने के लिए कुछ बनवा दिया जाता तो कितना अच्छा होता. फ़िलहाल बच्चों के खेलने के लिए कोई जगह नहीं है न ही खेल का कोई साधन . उस जगह पर एक वाचनालय बनाया जा सकता था जहाँ कुछ अच्छी पत्रिकाएं और किताबें रखी जा सकती थीं जिनकों पढने से लोगों को कुछ ज्ञान प्राप्त होता. लोग वहां बैठकर जीवन से जुडी बुनिआदी समस्याओं पर विचार-विमर्श कर सकते थे जो बेहद जरुरी है और जिनके लिए अभी कोई जगह नहीं है. मुझे इस पर आश्चर्य होता है कि लोग इस तरह चीजों को क्यों नहीं देखते. और भी गम हैं ज़माने में, उनकी ओर इनका ध्यान क्यों नहीं जाता. दिल्ली में डेंगू फैला हुआ है और यह मच्चरों से होता है. मच्चार गंदगी से फैलते हैं. किसी भी समझदार आदमी के लिए यह गंभीर चिंता होनी चाहिए कि उसके आसपास गंदगी न हो लेकिन जिस अपार्टमेन्ट में भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है उसके सीवर का गन्दा पानी सामने ही बहता रहता रहता है. इससे भी गंभीर चिता कि बात यह होनी चाहिए थी कि ठीक अपार्टमेन्ट के सामने बने ग्रीनपार्क में महीनों से सीवर का पानी छोड़ा जा रहा है जिसके निकलने का कोई इंतजाम न होने के कारण लगातार जमा हो रहा है जो कभी भी घटक बीमारी का कारण हो सकता है पर इसकी किसी को चिंता नहीं है . हालाँकि कोई कह सकता है कि यह काम सरकार या जीडिए का है लेकिन भाई अगर वे नहीं कर रहें हैं तो आखिर भुगतना तो हम सभी को ही पड़ेगा. संभव है कि मुझे इसकी जानकारी न हो और इन सभी मुद्दों पर हमारे यह चंदा मांगने वाले साथी काम कर रहे हों. अगर ऐसा होगा तो मुझे बहुत खुश होगी पर लगता नहीं कि बारे में सोचा भी गया होगा. दरअसल हम महान भारत देश के महान नागरिक हैं. हमें अपनी बुनिआदी समस्याओं कि कोई चिंता नहीं होती और समाज सुधार के नाम पर हम धर्म के आगे बढ़ ही नहीं पाते. येही कारण है कि उसी में उलझे रह जाते हैं. हजारों, करोड़ों लगाकर मंदिर बनाने वाले बहुत मिल जायेंगे लेकिन ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे जो यह बीड़ा उठायें कि हम ऐसा अस्पताल या ऐसा स्कुल बनवाएँगे जिसमें जरूरतमंद लोगों को मुफ्त उपचार और शिक्छा मिल सके. क्या इस तरह सोचा और किया जा सकेगा या सब कुछ भगवान भरोसे ही रहेगा.

Monday, September 20, 2010

पाश कि कविताओं का पाठ

झमाझम बारिश किसी के लिए भी बढ़िया बहाना हो सकती थी न आने के लिए लेकिन ऐसा हुआ नहीं, छाते का सहारा लेने के बावजूद भीगते हुए और घुटनों तक पानी में चलकर लोग अगर गोष्ठी में पहुच गए तो इसीलिए की वे अपने कार्य के लिए सजग और प्रतिबद्ध हैं. यह गोष्ठी बैठक की थी और इसमें प्रतिष्ठित कवि पाश की कविताओं का पाठ किया जाना था. तय समय से करीब एक घंटे देर से शुरू गोष्ठी चली भी करीब एक घंटे देर तक क्योंकि पाश की कई कविताओं का पाठ तो किया ही गया, विस्तार के साथ उनके जीवन, जीवन संघर्ष, उनकी रचनाओं, अनुवाद और कविता के विभिन्न पक्छ पर विस्तार से बात हुई. पाश की कविताओं और उनके जीवन संघर्ष पर प्रकाश चौधरी ने प्रकाश डाला. बाद में उन्होंने कई कविताएँ भी पढ़ीं. कुछ कविताएँ कृष्ण सिंह, राम शिरोमणि शुक्ल और लाल रत्नाकर ने भी पढ़कर सुनाई. लाल रत्नाकर ने पाश की एक कविता का खुबसूरत पोस्टर भी प्रदर्शित किया. पार्थिव ने इस दौरान कविता से सम्बंधित कई बातें रखी. इस तरह के कार्यक्रमों का अपना विशेष महत्व होता है जिसे शिद्दत से महसूस किया गया और जिआदा विस्तारित करने पर भी विचार किया गया. एहां यह उल्लेखनिया है की सितम्बर में ही पाश का जन्म हुआ था. पाश की कविताओं को सुनते हुए ऐसा लगा की यह बहुत महत्वपूर्ण हैं जीवन को बेहतर तरीके से समझने के लिए. इसके साथ ही यह जरूरत भी महसूस की गई कि इन्हें अधिक से अधिक लोगों को पढवाया भी जाना चाहिए. इसके लिए कई सुझाव भी सामने आए जिसमे पोस्टर बनाया जाना भी शामिल था. फ़िलहाल लाल रत्नाकर के सौजन्य से एक वीडियो क्लिप यू टूब पर डाली गई जहाँ देखा और सुना जा सकता है. प्रकाश चौधरी जी से निवेदन किया गया कि वह विस्तार से पाश और उनकी कविताओं के बारे में लिखेंगे और उसे पाठकों के सामने लाया जाएगा. कुल मिलाकर एक सारगर्भित गोष्ठी रही.