Sunday, February 28, 2010

अनिल दुबे की कहानी का पाठ

रविवार २८ फरवरी को वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा के महागुन (इंदिरापुरम) स्थित आवास पर करीब १५ की तादात में मौजूद बुधिजीविओं ने एक गोष्ठी में साहित्यक और सांस्कृतिक संस्था बैठक का गठन किया गया . यह भी तय किया गया कि इसका एक ब्लॉग बनाया जायेगा जिसका जिम्मा चित्रकार लाल रत्नाकर को सौंपा गया . अभी संस्था के पदाधिकारी नहीं चुने गए हैं . संभव है आगे इसकी जरूरत महसूस हो तो ऐसा कर लिया जाए . इसी गोष्ठी में पत्रकार और कहानीकार अनिल दुबे कि कहानी नारायणी का पाठ किया गया . इसके बाद कहानी पर विस्तार से बातचीत भी हुई जिसमे सभी लोगों ने काफी उत्साह से लिया . कुछ लोगों ने कम्जोरियन भी बताई और संपादन कि जरूरत को रेखांकित किया . हालाँकि कई लोगों ने एक मजबूत विषय भ्रूद हत्या के बहाने एक पति -पत्नी के बीच का द्वन्द्वा को काफी प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करने के लिए कहानीकार कि तारीफ भी की . इस गोष्ठी की सबसे बड़ी बात यह रही कि सभी लोगों ने खुलकर अपनी बात रखी और विस्तार से बिना किसी लागलपेट के कहानी के विभिन्न पक्षों पर टिप्पणी की . अंत में तय किया गया कि एक पखवारे बाद १४ मार्च को लाल रत्नाकर के आवास पर अगली गोष्ठी होगी जिसमे प्रसिध फोटोग्राफर जगदीश द्वारा खिची गई फोटोज को देखा जायेगा और उन पर बातचीत कि जाएगी .
असल में यह आयोजन अलग -अलग विचारों का ऐसे एकीकरण का परिणाम है जिसे कई लिखने -पढने वाले लोग अपने -अपने तरीके से सोच रहे थे . इसे जब एक दूसरे के साथ बातचीत में उठाया गया तो यह सोचा गया कि किओं न ऐसे लोग एक साथ बैठें और बातचीत करें . यह माना गया कि रचनाओं का देश, समाज और व्यक्ति के लिए बहुत महत्व होता है . तो किओं न उस पर बातचीत किया जाए . इसी कोशिश के तहत पिछले रविवार २१ फ़रवरी को वसुंधरा (गाजिअबाद ) स्थित अनिल दुबे के घर करीब १५ प्रबुद्ध जन मिले थे . इस बार कि गोष्ठी की एक उपलब्धि यह भी रही कि इसमें करीब पांच नए लोगों ने शिरकत की और वे सभी भी बहुत उम्मीद लेकर गए . अभी शुरू की इन दो गोष्ठिओं की सफलता से सभी इस बात को लेकर आशान्वित दिखे की आने वाले दिनों में यह प्रयास अपनी सार्थकता साबित कर सकेगा . २८ फ़रवरी की गोष्ठी में जिन महानुभाओं ने शिरकत की उनमे वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार तरित कुमार, वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा, राम शिरोमणि शुक्ल, अनिल दुबे, प्रसिध फोटोग्राफर जगदीश, कृष्ण सिंह, केवल तिवारी, पार्थिव, प्रकाश, सुदीप, श्रवन, अमरनाथ झा आदि थे . गोष्ठी की शुरुआत में पार्थिव ने उएनाई की बिक्री के खिलाफ कर्मचारिओं द्वारा पहली लड़ाई जीतने के बारे में विस्तार से जानकारी दी. सभी उपस्थित लोगों ने कर्मचारिओं के संघर्ष को अपना समर्थन दिया .

जबरदस्ती कि ख़ुशी

जरा सोचिए
जब आपका मन दुखी हो
आपके पास कुछ भी न हो
खुश होने के लिए
और आपसे कहा जाए
खुश होने के लिए
सिर्फ इतना ही नहीं
ख़ुशी का इजहार करने के लिए
जरा अंदाजा लगाइए
कितना तकलीफदेह होगा
इस तरह का अहसास
वे आते हैं बहाने बनाकर
कभी त्योहारों के बहाने
कभी परम्रम्पराओं के बहाने
यह अलग बात है कि
त्योहारों और परम्रम्पराओं से
नहीं होता उनका कोई लेना-देना
वे तो सिर्फ उनको दिखने के लिए
खुश होने का नाटक करते हैं
जो लगातार दुःख पहुँचाता है
वे खुद भी हमेशा अपने यवहार से
किया करते हैं प्रताड़ित
पर हम तो मजबूर हैं
उनकी प्रताड़ना सहने को
हम नहीं कर सकते
जबरदस्ती खुश करने का विरोध भी
क्यिओंकी वे कह देंगे
हम खुश नहीं हैं
इसका मतलब हम दुखी हैं
और दुखी होने का मतलब
जानते नहीं आप
यह साबित किया जा सकता है
बहुत बड़ा अपराध और
आपको भुगतनी पड़ सकती है
इसकी बहुत बड़ी सजा
अगर आप तैआर हैं इसके लिए
तभी जाहिर करिएगा अपना दुःख

Tuesday, February 23, 2010

काहे का गुस्सा

अब काहे को गुस्सा हो भाई
अब तो सरकार को सुध हो आई
भले रसोई में दाल नहीं पाक पाई
आप के घर चीनी नहीं आई
फसल को खाद नहीं मिल पाई
बेकार चली गई हो सारी दुहाई
आखिर बढ़ती महगाई पर
जब सरकार ने ही चिंता जता दी
तो अब तो खुश हो जा भाई .

Monday, February 22, 2010

कमाई

अगर बहुत राजनीति के चक्कर में न पड़ें (हालाँकि जरूर ही पड़ना चाहिए) और यह इस तरह की फिल्मों के इतिहास के पचड़े में न पड़ें तो दो बातें माई नेम इज खान देखते हुए महसूस हो रही थीं. एक तो यह क़ि सत्ता का खेल इतना खतरनाक होता है क़ि वह आदमी को कहीं का छोड़ता. सत्ता का खेल इसलिए क़ि इस फिल्म के नायक शाहरूख खान को लेकर जो राजनीतिक दल भिड़ने का नाटक खेल रहे थे वे सब सत्ता पक्छ के हैं क्योंकि फ़िलहाल देश में विपक्च है ही नहीं. इस लिहाज से क़ि किसी का भी मकसद आम आदमी के हितों की रक्चा करना नहीं रह गया है. अगर ऐसा होता तो तब या अब रजनीतिक दल एक व्यावसिक फिल्म को लेकर पूरे देश में बवाल मचाने के बजाय लगातार बढती महंगाई के खिलाफ कोई आन्दोलन करते . लेकिन उनके लिए महंगाई कोई मुद्दा नहीं होता क्योंकि इससे तो उनकी कमाई बढ़ जाती है. दूसरी बात यह कि फिल्म में बीमारी का शिकार नायक उस अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने यह बताना चाहता है कि उसका नाम खान है पर वह आतंकवादी नहीं है जो पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर उसे संरक्चन देने का ही काम करता रहा है . पाकिस्तान को दी जाने वाली भारी आर्थिक मदद इसका साफ उदहारण है . इराक , इरान और अगगानिस्तान में उसकी कर्र्वायाँ भी इसका उदहारण हैं . इसके साथ ही यह भी कि फिल्म में इस बात को स्थापित करने कि कोशिश की गई है अमेरिका के राष्ट्रपति ही यह प्रमाणपत्र दे सकते हैं कि सिर्फ खान होने से कोई आतंकवादी नहीं हो सकता. सब कुछ उन्ही कि कृपा पर निर्भर है . यह कहते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि फिल्म मुसलमानों कि समस्या और संवेदना को समझने के बजाय उसे और जटिल तथा उलझाऊ बनाती है . दरअसल आज कि फ़िल्में हमारे सपनों को भारी कीमत पर बेचती हैं . फिल्मकारों को बुनिआदी सवालों को उचित परिप्रेक्च में समझने कि जरूरत ही नहीं महसूस होती , उनकी चिंता तो सिर्फ अपनी ख्याति और कमाई होती है . इस फिल्म से शाहरूख और करन जौहर अपने इस मकसद में सफल कहे जा सकते हैं लेकिन आम लोगों खासकर मुसलमानों के साथ अन्याय करते ही प्रतीत होते हैं .

Monday, February 15, 2010

बवाल कुर्सी

भाई यह कुर्सी बड़ी बवाल है
किसी की नहीं होती यह कुर्सी
वक्त बेवक्त हिलने लगती है कुर्सी
अक्सर जमीन में धंसने लगती है कुर्सी
कई बार तो पीठ टिकने का
मौका भी नहीं देती कुर्सी
कभी गिरा भी देती है कुर्सी
पेट और पीठ का दर्द भी देती है कुर्सी
कई बार तो जानलेवा तक
साबित हो जाती कुर्सी
जाने क्यों इस सब के बावजूद
लोग नहीं त्यागना चाहते कुर्सी

Saturday, February 6, 2010

अपना रूट नहीं भूलना चाहिए

कल द वीक का नया अंक देखा। इसमें कवर स्टोरी वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह पर जो पिछली दो फरवरी को 95 साल के हो गए। ऐसे समय में जब समाचार पत्र और पत्रिकाएं बाजार को ध्यान में रखकर अपने अंक प्लान कर रहे हों और जो सिर्फ वे विषय चुन रहे हों जिन्हें बेचा जा सके, द वीक ने खुशवंत सिंह पर अंक निकालकर अच्छा काम किया है। अभी कुछ दिनों पहले मुझे उपेंद्र नाथ अश्क याद आए थे जिन्हें अब कोई याद नहीं करता। मुझे लंबे समय से यह खतरा महसूस हो रहा था कि जानबूझकर गुजरे समय के लोगों को भुला देने की सायास कोशिश चल रही है। यह अलग बात है कि अभी भी कुछ अखबारों में खुशवंत सिंह और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों के कालम प्रकाशित होते हैं लेकिन उन्हें जिस तरह से याद किया जाना चाहिए वह नहीं हो रहा है। मुझे याद आता है जब हम बच्चे हुआ करते थे और बड़े हो रहे थे तब कुछ पत्रिकाएं बहुत से आदर से देखी जाती थीं। माना जाता था कि अगर वह किसी विद्यार्थी के कमरे में नहीं है अथवा किसी के घर में उपलब्ध नहीं है तो वह पढ़ता नहीं है। दिनमान, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान और इलस्ट्रेटेड वीकली। तब खुशवंत सिंह इलस्ट्रेटेड वीकली के संपादक हुआ करते थे। अब यह सारी पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। इनके बंद होने के कारणों पर अलग से बात की जानी चाहिए और आज के पाठकों को यह समझने का मौका मिलना चाहिए। फिलहाल यह कि आज की पीढ़ी शायद ही इन महान पत्रकारों के बारे में जानती हो और अगर ऐसा है तो यह पत्रकारिता की भी जरूरत है कि हम उन्हें लोगों के बीच बेहतर तरीके से ले जाते रहें। यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि जो लोग इन जैसे लेखकों को पीछे छोड़कर आज की बाजार की जरूरतों के अनुरूप नए प्रतिमान गढ़ने की कोशिश में जुटे हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी नई जरूरतों के हिसाब से भुलाए जा सकते हैं। इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि आने वाली पीढ़ी को आप इसलिए नहीं याद रह जाएंगे कि आपने कोई ऐसा अच्छा काम नहीं किया जिससे आपको याद रखा जा सके। इस बारे में एक वाकया याद आता है जिसका उल्लेख करना यहां समीचीन होगा। कुछ दिनों पहले कुछ मित्रों के साथ एक समाचार माध्यम में हुए साक्षात्कार को लेकर चर्चा चल रही थी जिसमें अभ्यर्थियों से संपादक कई सवालों के बीच एक सवाल यह भी पूछा था कि वर्तमान दौर के पांच संपादकों के नाम बताइए। तकरीबन सभी अभ्यर्थी एक-दो संपादकों के नाम ही बता पाए थे। बाद में पता चला कि सिर्फ इसी तर्क पर उनमें से किसी का चयन किया गया कि जब इन्हें संपादकों के नाम ही नहीं पता तो ये पत्रकारिता क्या करेंगे। मेरे दिमाग में एक बात उठी कि क्या इस मुद्दे पर इस लिहाज से भी नहीं सोचा जाना चाहिए कि हमारे हाल के किसी संपादक ने क्या ऐसी कोई पत्रकारिता की है जिससे उन्हें याद रखा जाना चाहिए। निश्चित तौर पर पत्रकारिता के विद्यार्थी के लिए बतौर सामान्य ज्ञान इतना तो पता होना ही चाहिए कि किस अखबार और पत्रिका का कौन संपादक है अथवा रहा है लेकिन जरा सोचिए जब हम अपने बड़े संपादकों-पत्रकारों को भुलाते रहेंगे। पद्मश्री और पद्म विभूषण सम्मान प्राप्त दिल्ली और ट्रेन टू पाकिस्तान जैसी कृतियों के रचनाकार खुशवंत सिंह के लिखे को आज भी पढ़ना अपने आप में बड़ी बात होती है। बिना किसी लागलपेट के दो टूक और सच कहने का जैसा माद्दा उनमें वह बिरलों में मिलता है। देश और दुनिया की हर छोटी-बड़ी घटना पर जिस बेबाकी और सरल तरीके से वह अपनी राय रखते हैं वह काबिलेतारीफ होती है। आप उनके विरोधी हो सकते हैं लेकिन अभी भी उनके कालम में जिस तरह की जीवंतता मिलती है वह किसी को भी झकझोर देने वाली होती है। उनको पढ़ने से लगता है कि वह किसी को भी उसकी गलती के लिए नहीं छोड़ते शायद इसीलिए कि वह किसी से नहीं डरते। आर्थिक रूप से बहुत बड़े आदमी होते हुए भी मध्यम वर्ग की जिंदगी जीने वाले और सभी से सहज ढंग से मिलने वाले खुशवंत सिंह इसलिए भी हम सब के लिए खासे महत्व के हैं कि वे उन विषयों पर भी सात्विक और वैज्ञानिक तरीके से अपनी बात रखते हैं जिन पर आमतौर पर बात करना हम भारतीयों के लिए थोड़ा कठिन होता है। कुछ उदाहरण देखिए-वह कहते हैं मैं महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य और विवाह के बारे में विचारों को नहीं मानता। उनका कहना है कि नैतिकता को थोप नहीं सकते। लोगों को खुद तय करने दीजिए कि वह क्या चाहते हैं। लेकिन वह अहिंसा के सिद्धांत के प्रशंसक हैं। नेहरू के बारे में उनका मानना है कि वह बड़े विजनरी व्यक्ति थे जिसकी मैं प्रशंसा करता हूं लेकिन उनकी अपनी कमजोरियां भी रही हैं। वह कुनबापरस्ती के शिकार रहे हैं जिससे उबर नहीं सके। इसी तरह इंदिरा गांधी के बारे में उनकी धारणा है कि वह हर उस व्यक्ति से अपने को असुरक्षित महसूस करती थीं जो सूचना संपन्न होता था। इतना ही नहीं सोनिया गांधी के भारतीय होने न होने के बारे में उनकी राय एकदम स्पष्ट है। वह कहते हैं कि सोनिया गांधी पवार, संगमा, तारिक अनवर और हमसे भी ज्यादा भारतीय हैं। वह कहते हैं कि हम तो दुर्घटनावश जन्मना भारतीय हैं लेकिन उन्होंने तो भारतीय होना स्वीकार किया है।
भारत विभाजन को मानसिक आघात पहुंचाने वाला मानते हैं। वह मानते हैं कि वह लाहौर में ही रहना चाहते थे लेकिन दंगों ने उन्हें भारत आने को मजबूर कर दिया। वह विभाजन के लिए किसी व्यक्ति और पार्टी को जिम्मेदार नहीं ठहराते । वह बटवारे के तरीके पर अवश्य सवाल उठाते हैं जो वास्तव मे बहुत महत्वपूर्ण है। इसी तरह 84 के दंगों के बारे में उनका कहना है कि अभी भी उससे जुड़े कई सवालों का जवाब दिया जाना बाकी है। इसमें से सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसने गुंडों को सिखों को सबक सिखाने का सिगनल दिया। उनका दुख इस बात में झलकता है कि 84 के दंगों के समय मैं अपने को एिलयनेटेड महसूस कर रहा था ठीक उसी तरह जैसे 1930 में जर्मनी में ज्यूज महसूस कर रहे थे।
फिलहाल इतना ही। लेकिन अंत में उनकी यह बात अपील कर गई कि मैं अपने रूट को कभी नहीं भूलता। लाइफ कम्स फुल सर्किल। किसी को भी अपना रूट नहीं भूलना चाहिए। दुर्भाग्य से आज वे सभी लोग जिन्हें किसी कारणवश (भले ही गलती से या गलत तरीके से) कुछ मिल जाता है वे अपना रूट भूल जाते हैं।

Wednesday, February 3, 2010

सिस्टम

यह सिस्टम है
एक पूर्व आतंकवादी को पद्म सम्मान
एक पत्रिका के संपादक को जेल में मौत
इस सिस्टम के बारे में कुछ मत कहो
कविता

राम

एक टेस्ट पोस्ट

कुछ गडमड है

कुछ गडमड है
सामने रसमलाई पड़ी हो
और उसे खाने का मन न करे
क्यारी में खूबसूरत फूल खिला हो
और उसे देखने का मन न करे
प्यारा सा संगीत बज रहा हो
और सुनने का मन न करे
किसी के साथ अन्याय हो रहा हो
और उसका विरोध करने का मन न करे
बच्चा भूख के मारे रो रहा हो
और आपका मन दुखी न हो रहा हो
तो समझ लीजिए कुछ गड़बड़ है .

Tuesday, February 2, 2010

विकास का मतलब

विकास का मतलब

कुछ समय पहले तक
जो ग्रीन बेल्ट हुआ करती थी
वहां खुल गया है पेट्रोल पम्प
जहाँ पार्क था और बच्चे खेलते थे
वहां बन चूका है अपार्टमेन्ट
जिस सड़क के किनारे वाली खाली जमीन पर
गरीब लोग ठेला लगाकर
चला ले रहे थे अपनी जीविका
वहां बना दिया गया है एक मंदिर
वे कहते हैं यह विकास है
हम कहते हैं यह विनाश है
जब हरिआली नहीं होगी
बच्चे खेल नहीं पाएंगें
और गरीब भूखों मरने लगेंगें
तो कौन जाएगा पेट्रोल खरीदने
कौन खरीदेगा अपार्टमेन्ट
और कौन जाएगा मंदिर में पूजा करने
विकास का तभी मतलब होगा
गरीब को भी अमीर बनाया जाएगा
लेकिन यह करेगा कौन
कम से कम वह तो नहीं
जो अभी लगा है विकास की लूट में .